कार एक्सीडेंट में बुरी तरह जख्मी महिला को इमरजेंसी टीम ने मृत घोषित कर दिया. उसके शरीर में जीवन का कोई संकेत नहीं मिला. लेकिन कई घंटे बाद मुर्दाघर में सांस भरने लगी.
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मौत से लौटी महिला के केस ने दक्षिण अफ्रीका के डॉक्टरों को हैरान कर दिया है. इमरजेंसी सेवा के मुताबिक शार्लेटनविले शहर के पास एक बड़ा सड़क हादसा हुआ. कई गाड़ियां एक दूसरे पर चढ़ गई. इसी हादसे का शिकार एक महिला भी हुई. उसकी कार कई बार पलटते हुए दूसरी गाड़ियों से टकराई.
एंबुलेस सर्विस के ऑपरेशन मैनेजर गैरिट ब्रैंडनिक के मुताबिक, "घटनास्थल पर पहुंचने के बाद हमारी टीम ने जरूरी प्रक्रिया शुरू कर दी." राहतकर्मियों ने महिला को कार से बाहर निकला. उसकी धड़कन बंद थी, सांस भी नहीं चल रही थी. प्राथमिक उपचार करने वाली टीम को महिला के शरीर में जीवन का कोई संकेत नहीं मिला. महिला को मौके पर ही मृत घोषित कर दिया गया और उसके शरीर को मुर्दाघर भेज दिया गया.
मुर्दाघर में शरीर को एक फ्रिज में रख दिया गया. कई घंटे बाद मुर्दाघर के तकनीशियन ने फ्रिज खोला तो महिला जीवित मिली एक स्थानीय अखबार के मुताबिक, "जब तकनीशियन ने महिला के शरीर को बाहर निकाला तब वह सांस ले रही थी." सूत्रों के हवाले से स्थानीय मीडिया ने लिखा है, "आप इस बात की कल्पना ही नहीं करते कि आप फ्रिज खोले और उसके भीतर कोई जिंदा हो."
इसके बाद महिला को तुरंत अस्पताल भेजा गया. मामले का पता जब इमरजेंसी टीम को चला तो वो भी हैरान रह गई. इमरजेंसी अधिकार ब्रैंडनिक कहते हैं, "कोई आइडिया नहीं है कि ऐसा कैसे हुआ. इमरजेंसी सर्विस के कर्मचारी बुरी तरह परेशान हैं."
स्थानीय स्वास्थ्य विभाग ने मामले की जांच का आदेश दिया है.
(मौत शरीर के शट डाउन की प्रक्रिया है. मृत्यु से ठीक पहले कई अंग काम करना बंद कर देते हैं. आम तौर पर सांस पर इसका सबसे जल्दी असर पड़ता है.)
मृत्यु का विज्ञान
मृत्यु क्या है और इंसान क्यों मरता है, मनुष्य इन सवाल का जवाब हजारों साल से खोज रहा है. चलिये देखते हैं आखिर विज्ञान मृत्यु और उसकी प्रक्रिया के बारे में क्या कहता है.
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विकास से विघटन तक
30 की उम्र में इंसानी शरीर में ठहराव आने लगता है. 35 साल के आस पास लोगों को लगने लगता है कि शरीर अब कुछ गड़बड़ करने लगा है. 30 साल के बाद हर दशक में हड्डियों का द्रव्यमान एक फीसदी कम होने लगता है.
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भीतर खत्म होता जीवन
30 से 80 साल की उम्र के बीच इंसान का शरीर 40 फीसदी मांसपेशियां खो देता है. जो मांसपेशियां बचती हैं वे भी कमजोर होती जाती है. शरीर में लचक कम होती चली जाती है.
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कोशिकाओं का बदलता संसार
जीवित प्राणियों में कोशिकाएं हर वक्त विभाजित होकर नई कोशिकाएं बनाती रहती हैं. यही वजह है कि बचपन से लेकर जवानी तक शरीर विकास करता है. लेकिन उम्र बढ़ने के साथ कोशिकाओं के विभाजन में गड़बड़ी होने लगती है. उनके भीतर का डीएनए क्षतिग्रस्त हो जाता है और नई कमजोर या बीमार कोशिकाएं पैदा होती हैं.
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बीमारियों का जन्म
गड़बड़ डीएनए वाली कोशिकाएं कैंसर या दूसरी बीमारियां पैदा होती हैं. हमारे रोग प्रतिरोधी तंत्र को इसका पता नहीं चल पाता है, क्योंकि वो इस विकास को प्राकृतिक मानता है. धीरे धीरे यही गड़बड़ियां प्राणघातक साबित होती हैं.
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लापरवाही से बढ़ता खतरा
आराम भरी जीवनशैली के चलते शरीर मांसपेशियां विकसित करने के बजाए जरूरत से ज्यादा वसा जमा करने लगता है. वसा ज्यादा होने पर शरीर को लगता है कि ऊर्जा का पर्याप्त भंडार मौजूद है, लिहाजा शरीर के भीतर हॉर्मोन संबंधी बदलाव आने लगते हैं और ये बीमारियों को जन्म देते हैं.
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शट डाउन
प्राकृतिक मौत शरीर के शट डाउन की प्रक्रिया है. मृत्यु से ठीक पहले कई अंग काम करना बंद कर देते हैं. आम तौर पर सांस पर इसका सबसे जल्दी असर पड़ता है. स्थिति जब नियंत्रण से बाहर होने लगती है तो दिमाग गड़बड़ाने लगता है.
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आखिरकार मौत
सांस बंद होने के कुछ देर बाद दिल काम करना बंद कर देता है. धड़कन बंद होने के करीब चार से छह मिनट बाद मस्तिष्क ऑक्सीजन के लिए छटपटाने लगता है. ऑक्सीजन के अभाव में मस्तिष्क की कोशिकाएं मरने लगती हैं. मेडिकल साइंस में इसे प्राकृतिक मृत्यु या प्वाइंट ऑफ नो रिटर्न कहते हैं.
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मृत्यु के बाद
मृत्यु के बाद हर घंटे शरीर का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस गिरने लगता है. शरीर में मौजूद खून कुछ जगहों पर जमने लगता है और बदन अकड़ जाता है.
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विघटन शुरू
त्वचा की कोशिकाएं मौत के 24 घंटे बाद तक जीवित रह सकती हैं. आंतों में मौजूद बैक्टीरिया भी जिंदा रहता है. ये शरीर को प्राकृतिक तत्वों में तोड़ने लगते हैं.
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बच नहीं, सिर्फ टाल सकते हैं
मौत को टालना संभव नहीं है. ये आनी ही है. लेकिन शरीर को स्वस्थ रखकर इसके खतरे को लंबे समय तक टाला जा सकता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक पर्याप्त पानी पीना, शारीरिक रूप से सक्रिय रहना, अच्छा खान पान और अच्छी नींद ये बेहद लाभदायक तरीके हैं.