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प्रलय की ओर बढ़ता जलवायु परिवर्तन

१२ अप्रैल २००९

संसार की 40 प्रतिशत जनता समुद्र तट से केवल 100 किलोमीटर तक की दूरी पर बसी हुई है. दस करोड़ लोग समुद्रतल से केवल एक मीटर तक की ऊँचाई पर रहते हैं.समुद्री जलस्तर इस बीच 3.2 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की दर से ऊपर उठ रहा है.

पृथ्वी का बढ़ता तापमानतस्वीर: AP

हम प्रलय की ओर बढ़ रहे हैं. कारण है, हमारी औद्योगिक प्रगति और उपभोक्ता संस्कृति. तापमान में विश्वव्यापी वृद्धि. वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता हुआ घनत्व. संक्षेप में जलवायु परिवर्तन.

दिसंबर 1997 में, जापान के क्योतो नगर में वैश्विक तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन पर लगाम लगाने का एक समझौता हुआ था, जो क्योतो प्रोटोकोल के नाम से प्रसिद्ध हुआ. उसमें तय हुआ था कि संसार के औद्योगिक देश ग्रीनहाउस कहलाने वाली तापमानवर्धक गैसों के अपने उत्सर्जन को, 1990 वाले स्तर की तुलना में, 5.2 प्रतिशत और नीचे लायेंगे.

बॉन में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन

क्योतो प्रोटोकोल 2012 तक चलेगा. उसके बाद क्या होगा, इसे तय करने के लिए पिछले कुछ वर्षों से समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हो रहे हैं. ऐसा ही एक सम्मेलन अप्रैल के आरंभ में बॉन में हुआ और जून में एक बार फिर बॉन में ही होगा. दिसंबर में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहागन में विश्वभर के नेता अपने शिखर सम्मेलन में तब तक हुई सहमतियों पर स्वीकृति की मुहर लगायेंगे.

बॉन में हुई जलवायु परिवर्तन पर बैठकतस्वीर: picture-alliance / dpa

कोपेनहागन सम्मेलन तक सात ही महीने बचते हैं और लगता यही है कि अभी बहुत कुछ करना बाक़ी है. वैज्ञानिकों के अनुसार कुल आठ ऐसी गैसे हैं, जो सारी पृथ्वी पर तापमान बढ़ा कर जलवायु में उलटफेर कर रही हैं. ये हैं: जलवाष्प H2O, कार्बन डाइऑक्साइड CO2, मीथेन CH4, नाइट्रस ऑक्साइड N2O, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन HFC, परफ्लोरोमीथेन CF4, परफ्लोरोईथेन C2F6 और सल्फ़रहेक्साफ्लोराइड SF6.

कार्बन डाइऑक्साइड का कुहराम

सबसे अधिक कुहराम कार्बन डाइऑक्साइड को लेकर है. जर्मनी में पोट्सडाम के जलवायु शोध संस्थान के वैज्ञानिक और जर्मन सरकार के जलवायु सलाहकार डॉ.स्तेफ़ान राम्सटोर्फ़ बताते हैं कि हवा में कार्बन डाइऑक्साइड का घनत्व 1970 वाले दशक की तुलना में दुगुना हो गया है "कॉर्बन डाइऑक्साइड का घनत्व बढ़ ही नहीं रहा है, उसके बढ़ने की गति भी समय के साथ तेज़ होती जा रही है. उसमें कमी आने के कोई लक्षण नहीं हैं."

कार्बन डाइऑक्साइड सबसे बड़ी समस्यातस्वीर: AP

यह स्थिति तब है, जब मानवीय गतिविधियों द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड का केवल आधा हिस्सा ही वायुमंडल में पहुँचता है, दूसरा आधा सागरजल में घुल जाता है. इससे महासागरों का पानी एसिडिक, यानी अम्लीय होता जा रहा है और समुद्री जीवों को नुकसान पहुँचा रहा है. वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने के अनुपात में सागरजल में घुल रही इस गैस की मात्रा भी बढ़ रही है "कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन यदि इसी तरह चलता रहा, तो 50 वर्षों में हम महासागरीय अम्लीयता की चरम सीमा पर पहुँच जायेंगे. समुद्री जीवों पर उसका गहरा असर पड़ने लगेगा. आम जनता की चेतना तक यह बात अभी नहीं पहुँची है."

पृथ्वी का तापमान अपूर्व ऊँचा

वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड वह कांचघर या ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करती है, जिसके कारण पृथ्वी पर पहुँच रही सूर्य की गर्मी अंतरिक्ष में परावर्तित नहीं हो पाती और बदले में पृथ्वी का तापमान बढ़ाने लगती है. जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समिति IPCC के आँकड़ों के अनुसार पृथ्वी पर का वर्तमान औसत तापमान, पिछले एक हज़ार वर्षों की तुलना, में अपूर्व ऊँचा है "वर्ष 1000 और 1100 में तापमान कुछ अधिक था, लेकिन 16वीं-17वीं सदी में एक लघु हिमयुग भी देखा गया था. पर, वे सारे परिवर्तन एक-आध डिग्री के परिवर्तन थे, विश्वस्तर पर छोटी मछली."

क्योतो प्रोटोकॉल के बाद क्या..तस्वीर: AP

1850 में तापमाप आँकड़े जमा करना शुरू होने के बाद से 1995 से 2006 के बीच के 12 में से 11 वर्ष सबसे गरम वर्ष रहे हैं. पिछली पूरी शताब्दी में पृथ्वी पर का औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्ज़ियस ही बढ़ा था, जबकि अब वह 0.74 डिग्री की दर से बढ़ रहा है. डॉ. राम्सटोर्फ़ का कहना है कि इस वृद्धि को 2050 तक के अगले 40 वर्षों में कुल मिलाकर दो डिग्री की वृद्धि से नीचे ही रखना होगा, वर्ना बहुत ही अनिष्टकारी परिणाम भुगतने पड़ेंगे "वैश्विक औसत का अर्थ है कि सूखी ज़मीन वाली जगहों पर वह 6 डिग्री सेल्ज़ियस या उससे भी अधिक भी बढ़ गया हो सकता है, जबकि महासागरों पर 4 डिग्री से भी कम बढ़ा हो सकता है, क्योंकि धूप का एक बड़ा भाग सागरजल के वाष्पीभवन में ख़र्च हो जाता है."

अनिष्ट केवल दो डिग्री दूर

इस समय औसत वैश्विक तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्ज़ियस है. अगले चार दशकों में उस में दो डिग्री तक की भी बढ़ोतरी नहीं होनी चाहिये, अन्यथा हम अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी मार चुके होंगे. याद रखना होगा कि हिमालय, ग्रीनलैंड तथा उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर की बरफ पिघलने से भी धरती पर का तापमान बढ़ेगा, क्योंकि बर्फ जिस सूर्यप्रकाश को आकाश की तरफ़ परावर्तित कर देती है, वह उसके पिघल जाने से बनी सूखी ज़मीन सोखने लगेगी. सबसे बड़ी बात यह है कि तापमान मामूली-सा बढ़ने से भी सागरतल के उठने में भारी वृद्धि होगी और एक बार बढ़ गया तापमान सदियों, शायद हज़ारों वर्षों तक नीचे नहीं उतरेगा "समुद्री जलस्तर पिछले सौ वर्षों में 20 सेंटीमीटर और ऊपर उठ गया है, जबकि पिछले पूरे एक हज़ार साल में यह उठाव कुल मिलाकर 25 सेंटीमीटर भी नहीं रहा है. कारण है, सागरजल गरम होने से फैलता है. साथ ही पिघल रही बर्फ समुद्र में पहुँच कर पानी की मात्रा बढ़ा रही है." समुद्री जलस्तर में यह उठाव इस समय 3.2 मिलीमीटर वार्षिक है. अकेले ग्रीनलैंड पर ही इस समय इतनी बर्फ जमा है कि वह पिघलने पर समुद्रतल को सात मीटर तक उठा सकती है. पृथ्वी के इतिहास में पहले भी जलवायु परिवर्तन हो चुके हैं. वे बहुत ही गंभीर चेतावनी देते हैं "20 हज़ार वर्ष पूर्व अंतिम हिमयुग के समय वैश्विक औसत तापमान आज की अपेक्षा 4 से 7 डिग्री कम था और समुद्रतल आज से 120 मीटर नीचे था. और भी पीछे जाने पर अधिक तापमान मिलता है. 30 लाख साल पहले वैश्विक तापमान आज की अपेक्षा 2-3 डिग्री अधिक था, जबकि सागरतल आजकी अपेक्षा 20 से 30 मीटर तक अधिक ऊपर उठ गया था. चार करोड़ साल पहले वौश्विक तापमान आज से केवल 4 डिग्री अधिक था, लेकिन उस समय धरती के इतिहास में अंतिम बार बर्फ की कोई चादर नहीं बची थी और समुद्रतल आज की अपेक्षा 70 मीटर ऊँचा उठ गया था."

समुद्र सतह की ज़रा सी बढ़ोतरी भारी उतार चढ़ावों का कारणतस्वीर: AP
लगातार ख़राब मौसम की चेतावनीतस्वीर: Stjepan Felber, Tourismusverband Zadar

तापमान घटने में हज़ार साल लगेंगे

यानी, वैश्विक औसत तापमान में ज़रा-सी भी घटबढ़ समुद्रतल में भारी उतार-चढ़ाव लाती है. 2007 में हॉलैंड की सरकार द्वारा गठित 23 सागर वैज्ञानिकों की एक समिति ने हिसाब लगाया कि 21वीं सदी के अंत तक समुद्रतल 55 से 110 मीटर तक और 22 वीं सदी के अँत तक 150 से 300 मीटर तक ऊपर उठ सकता है. डॉ. राम्सटोर्फ़ आगाह करते हैं कि कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को घटाने के लक्ष्य यदि 2050 तक पा भी लिये गये, तब भी पृथ्वी पर का तापमान घटने और समुद्रतल के गिरने की प्रक्रिया शुरू होने में लगभग एक हज़ार वर्ष लग जायेंगे "उत्सर्जन शून्य हो जाने पर भी हवा में कार्बन डाइऑक्साइड इस धीमी गति से कम होगी कि सन तीन हज़ार में भी केवल आधी मात्रा ही कम हो पायी होगी. समुद्र भी तब तक उसे सोख कर इतना अघा गया होगा कि वह भी अतिरिक्त मात्रा नहीं सोख पायेगा.

तब भी हमें कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य तापमानवर्धक गैसों के उत्सर्जन में अभी से भारी कटौती करनी होगी, ताकि तापमान यदि घटता नहीं, तो उस का बढ़ना तो कम से कम थम जाये! एक ही रास्ता हैः ज्वलनशील ईंधनों का यथासंभव पूरी तरह त्याग. डॉ. स्तेफ़ान राम्सटोर्फ़ का कहना है कि ऊर्जा की शतप्रतिशत आवश्यकता सौर, पवन और पानी जैसे प्राकृतिक स्रोतों की नवीकरणीय ऊर्जा से भी पूरी की जा सकती है. इस मे जितनी देर होगी, समुद्रतल का उठना ही नहीं, आँधी-तूफ़ान व सूखे और बाढ़ की विकरालता भी उतनी ही बढ़ती जायेगी.


रिपोर्ट- राम यादव

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