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प्रवासियों के दर्द पर बिहार में शुरू हुई चुनावी राजनीति

मनीष कुमार, पटना
२५ मई २०२०

कोरोना संकट के दौर में जैसे-जैसे बिहार लौटने वाले प्रवासी मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे में प्रदेश का सियासी तापमान चढ़ता जा रहा है. अचानक सभी राजनीतिक दलों को प्रवासी मजदूरों की चिंता सताने लगी है.

Indien Coronavirus - Bihar
अभी भी पैदल चले आ रहे हैं प्रवासी मजदूरतस्वीर: IANS

प्रवासी मजदूरों का अपने घर लौटना बदस्तूर जारी है. कोई मुंबई से पैदल बिहार चला आ रहा है तो कोई हैदराबाद से साइकिल से ही अपने गांव पहुंच रहा. जिसे जैसे बन पड़ा, अकेले या परिवार के साथ चल पड़ा. दरभंगा की एक पंद्रह साल की बच्ची तो अपने बीमार पिता को लेकर सात दिन में दिल्ली से करीब बारह सौ किलोमीटर की दूरी तय कर साइकिल से दरभंगा पहुंच गई जो संभवत: फ्रांस में होनेवाली विश्व की सबसे लंबी साइकिल रेस पर भी भारी है. इन प्रवासियों के सामने बस एक लक्ष्य है जैसे भी हो घर पहुंचना है. इनकी आपबीती बता रही है कि लॉकडाउन के कारण उपजे संकट की घड़ी में उनकी पीठ पर हाथ रखने कोई नहीं पहुंचा.

सत्तारूढ़ दल देश के दूसरे महानगरों से वापस लौट रहे  प्रवासी मजदूरों को बेहतर सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं विपक्षी पार्टियां प्रवासियों के दर्द को कुरेद उन्हें हमदर्द होने का भरोसा दिलाने में जुटी हैं. वजह साफ है, पांच-छह महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. जाहिर है, तमाम दावों के बावजूद दर-दर की ठोकरें खा रहे इन लाखों प्रवासियों के बूते किसी का खेल बनेगा तो किसी का बिगड़ेगा. दिनों दिन तीखी होती राजनीतिक बयानबाजी तो यही बता रही है.

शुरु से ही हुए राजनीति के शिकार

दरअसल ये प्रवासी शुरू से ही राजनीति के शिकार रहे. जिन राज्यों को वे अपने परिश्रम से विकास की राह पर दौड़ा रहे थे, वहां भी उनके साथ राजनीति हुई. दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, राजस्थान या फिर हरियाणा, किसी भी सरकार ने बयान देने के अलावा धरातल पर उनके लिए कुछ भी नहीं किया. मानो, वे चाहते थे कि ये कामगार किसी तरह यहां से निकल जाएं. पेट की आग तो लॉकडाउन खत्म होने के कुछ दिनों बाद उन्हें यहां ले ही आएगी. बिहार इतना विकसित व समृद्ध नहीं, जो इन्हें रोक लेगा. दिल्ली के मुख्यमंत्री टीवी चैनलों पर तो श्रमिकों से रुकने व उनके लिए पर्याप्त व्यवस्था होने की बात कहते रहे लेकिन जाते हुए प्रवासियों को रोकने के लिए व्यावहारिक तौर पर न तो वे आगे आएं और न ही उनकी पार्टी, संगठन या सरकार के लोग.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया क्वारंटीन सेंटरों का ऑनलाइन निरीक्षणतस्वीर: IANS

बिहार सरकार भी शुरू में उन्हें लाने की पक्षधर नहीं थी लेकिन जब प्रवासियों के कष्ट से जुड़ी मन को विचलित करने वाली खबरें आने लगीं तो नीतीश सरकार पर चौतरफा दबाव पड़ने लगा. राज्य सरकार ने उन्हें लाने में असमर्थता जताई और तब संसाधनों की कमी का हवाला दिया. लेकिन जब केंद्र ने उन्हें लाने की व्यवस्था कर दी तो बिहार सरकार को उन्हें वापस बुलाना पड़ा. संक्रमण फैलने के डर से सहमी बिहार सरकार के सामने बड़ी समस्या आ पड़ी. तब इन प्रवासियों को चौदह दिन के लिए क्वारंटीन सेंटर में रखने की व्यवस्था की गई ताकि पूरे गांव-जवार को कोरोना महामारी से बचाया जा सके. अब जब बड़ी संख्या में ये प्रवासी अपने गांव पहुंच गए तो एक बार फिर राजनीति के केंद्र में आ गए. राज्य सरकार क्वारंटीन केंद्रों पर बेहतर सुविधा मुहैया कराने में जुट गई वहीं विपक्ष पूरी व्यवस्था को नकारते हुए घर लौटने में हुई उनकी पीड़ा को कुरेदने में जुट गया.

सियासत और आने वाले चुनाव

सीधे तौर पर तो पार्टियां इसे आगामी विधानसभा चुनाव से जोड़ने से इनकार कर रही हैं लेकिन अंदरखाने यह उनकी चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा ही है. उन्हें यह पता है कि ये प्रवासी चुनाव में किसी का भी खेल बिगाड़ व बना सकते हैं. इधर, देश के तमाम हिस्सों में अभी भी लोग फंसे हैं जो अपने देस आने को दर-दर भटक रहे. इनमें बड़ी संख्या अशिक्षित मजदूरों की है जिन्हें अभी भी सरकारों द्वारा उन्हें घर लाए जाने की व्यवस्था की मुकम्मल जानकारी नहीं मिल रही. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रेल मंत्रालय से अनुरोध किया है कि प्रवासियों को उनकी ट्रेन की पूर्व सूचना दी जाए ताकि उन्हें भटकना न पड़े और वे किसी भी हालत में पैदल चलने को मजबूर न हों.

नीतीश कुमार की इस चिंता के भी निहितार्थ हैं. वे जानते हैं कि जो भी ट्रेन के अलावा पैदल या किसी अन्य साधनों से बिहार आएगा वह व्यवस्था से उतना ही खिन्न एवं आक्रोशित होगा जिसका खामियाजा उन्हें आसन्न विधानसभा चुनाव में भुगतना होगा. दरअसल प्रवासी भी दो भागों में बंट चुके हैं. इनका एक वर्ग वो है जो सरकारी व्यवस्था से अपने गांव के क्वारंटीन सेंटर तक पहुंचने में कामयाब रहा जबकि दूसरा वर्ग उन प्रवासियों का है जिन्होंने अपने गांव तक पहुंचने में काफी परेशानी और जलालत झेली. जाहिर है, इस दूसरे वर्ग का सरकार और उसकी व्यवस्था में कोई भरोसा नहीं होगा और चुनाव के मद्देनजर यही वर्ग राज्य सरकार के लिए चिंता का सबब है.

सबके अपने-अपने दांव

राजनीति के जानकारों का कहना है कि "अनुमान के मुताबिक अगले कुछ दिनों में करीब बीस लाख श्रमिकों को बिहार लौटना है. प्रवासियों की इतनी बड़ी तादाद राज्य के तकरीबन हरेक विधानसभा क्षेत्र में चुनावी गणित को गड़बड़ा सकती है. यह एक बड़ा वोट बैंक है. जातीय समीकरण के हिसाब से भी इनमें पिछड़े, अतिपिछड़े, दलितों व महादलितों की संख्या ज्यादा है. इसलिए इनकी चिंता तो करनी ही होगी चाहे वह सत्तारूढ़ पक्ष हो या फिर विपक्ष." यही वजह है कि नीतीश सरकार अभी अपना जोर बाहर फंसे प्रवासियों को बुलाने व क्वारंटीन सेंटर पर बेहतर सुविधा देने में लगा रही है, जहां से वे अच्छी यादें लेकर अपने घर जाएं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक राज्य सरकार चौदह दिन की अवधि में क्वारंटीन सेंटर में रहने वाले हरेक व्यक्ति पर नाश्ता-भोजन, लुंगी-साड़ी, तौलिया, बर्तन, दरी, मच्छरदानी व बिछावन मद में कुल चार हजार रुपये खर्च कर रही है. इसके अलावा जाते समय उन्हें अलग से पांच सौ रुपये भी दिया जाता है. बावजूद इसके भोजन, साफ-सफाई या फिर अन्य किसी व्यवस्था को लेकर हंगामे की खबर मीडिया की सुर्खियां बनती रहतीं हैं.

बीजेपी प्रमुख जेपी नड्डा ने की पार्टी कोर कमेटी की बैठकतस्वीर: IANS

विपक्ष इसे सरकार की विफलता मानते हुए अपने लिए एक अवसर के रूप में देखता है. यही वजह है कि बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव सहित पूरा राजद हमलावर बना हुआ है. स्वयं राजद प्रमुख लालू प्रसाद व तेजस्वी इस मुद्दे को लेकर सोशल मीडिया में काफी सक्रिय हैं. प्रवासियों को लुभाने के लिए राजद ने लालू रसोई व तेजस्वी भोजनालय शुरू किया है. तेजस्वी यादव ने अपने ट्विटर हैंडल की तस्वीर तक बदल दी है. प्रवासियों के आने के दौरान की तस्वीरें-वीडियो हों या फिर क्वारंटीन सेंटर की अव्यवस्था की, तेजस्वी उसे अपलोड करने से भी नहीं चूक रहे. हालांकि उसी प्लेटफार्म पर राजग भी उन्हें मुंहतोड़ जवाब दे रहा है. वाकई, सबकी अपनी-अपनी व्यथा है. एक स्थानीय पत्रकार कहते हैं, ‘‘इतना तो साफ है कि प्रवासियों को हर स्तर पर परेशानी उठानी पड़ी. उनके दर्द को महसूस करना भी सबके वश की बात नहीं है. ये लोग अपने राज्य में रोजी-रोटी का जुगाड़ न हो पाने के कारण ही तो दूसरे राज्यों में अपना श्रम सस्ते में बेच रहे थे ताकि उनके परिवार का भरण-पोषण हो सके. रोज कमाने-खाने वाले तो ऐसे ही व्यवस्था में बहुत विश्वास नहीं रखते. उन्हें जब कोई सहारा नहीं मिला तभी तो पैदल ही निकल पड़े. कई राज्यों ने भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं किया. वजह चाहे जो भी हो, उनकी अपनी सरकार ने भी निर्णय लेने में देरी की और अब अगर त्वरित गति से उनकी समस्याओं का निराकरण न हुआ तो उनका गुस्सा फूटेगा ही.''

चुनावी मोड में आ रही हैं पार्टियां

प्रत्यक्ष तौर पर तो हर पार्टी अभी विधानसभा चुनाव की तैयारी से इन्कार कर रही है लेकिन परोक्ष रूप से सभी दलों ने बिसात बिछानी शुरू कर दी है. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपनी संगठनात्मक गतिविधियां तेज कर दी है. इसी कड़ी में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा ने पार्टी के राज्यस्तरीय कोर ग्रुप की बैठक की जिसमें प्रवासियों की घर वापसी एवं चुनाव की तैयारियों पर चर्चा की गई. राज्य के महागठबंधन में भी हलचल तेज हो गई है. सोनिया गांधी ने भी घटक दलों के साथ चर्चा की है  जिसमें कोरोना संकट एवं प्रवासियों की स्थिति पर बातचीत हुई. बिहार में महागठबंधन के घटक दलों में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) व कांग्रेस के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम), पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) व मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) प्रमुख हैं. मुख्यमंत्री उम्मीदवार को लेकर महागठबंधन के घटक दलों में खींचतान चलती रहती है.

कोरोना संकट के इस दौर में प्रवासियों के मुद्दे पर उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का कहना है, "राज्य सरकार अभी सर्विस मोड में है, लेकिन विपक्ष चुनाव मोड में है." जदयू के वरीय नेता व राज्य के उद्योग मंत्री श्याम रजक भी चुनाव की तैयारी से इन्कार करते हुए कहते हैं, "अभी सरकार का ध्यान कोरोना संक्रमण से निपटने, प्रवासियों को बेहतर सुविधा देने, उनके लिए रोजगार के अवसर पैदा करने और लॉकडाउन के कारण लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की है.'' जबकि भाजपा के वरिष्ठ नेता व पथ निर्माण मंत्री नंदकिशोर यादव कहते हैं, "हम तो बिहार के विकास के मुद्दे पर चुनाव में जाएंगे, प्रवासियों को लाना और उन्हें सुविधा व रोजगार देना तो हमारे काम का हिस्सा है. यह हमारे लिए चुनाव का विषय नहीं हो सकता.''

भोपाल में घरवापसी के लिए प्रवासी कामगार करा रहे हैं रजिस्ट्रेशनतस्वीर: IANS

इससे इतर राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह का मानना है कि "अभी चुनाव के संबंध में सोचने की बात कहां है? अभी तो हमलोग यही सोच रहे कि प्रवासी कैसे लौट आएं, कैसे जिंदा रहे, भूख से नहीं मरें. चुनाव कब होगा नहीं होगा, इस पर कौन सोच रहा.'' हालांकि इस संबंध में राजद के विधायक डॉ. रामानुज प्रसाद कहते हैं, "विधानसभा चुनाव में तो प्रवासियों का दर्द तो बड़ा मुद्दा होगा. सरकार मजदूरों - कामगारों को तड़पा रही है, सड़कों व रेलवे लाइन पर उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया है तो इनके दर्द से बड़ा मुद्दा क्या होगा.'' राजद के विधायक विजय प्रकाश का मानना है, "जो लोग जितना पैदल चले वे उतने ही गुस्से से महागठबंधन को वोट करेंगे.'' आगामी चुनाव में प्रवासियों की भूमिका पर रालोसपा प्रमुख व पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा कहते हैं, "नीतीश सरकार से लोग काफी गुस्से में हैं. चुनाव में इसका प्रकटीकरण तो होगा ही. पहले तो लाने से इन्कार, फिर संसाधन की कमी और फिर रेल किराये को लेकर विवाद. लोगों को अभी का अभी रोजगार चाहिए. इस चुनाव में प्रवासियों का वोट बहुत मायने रखेगा.''

डिजिटल चुनाव की तैयारी कर रही हैं पार्टियां

अक्टूबर-नवंबर तक चुनाव अवश्यंभावी मानकर राज्य की सभी पार्टियां डिजिटल चुनाव की तैयारी कर रहीं हैं. सभी दलों के बड़े नेता वीडियो कांफ्रेसिंग कर कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर रहे हैं. छोटी-बड़ी सभी पार्टियों के आइटी सेल पूरी तरह सक्रिय हो उठे हैं. रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा जूम एप पर लगातार अपनी पार्टी के नेताओं- कार्यकर्ताओं से इंटरएक्ट कर रहे . जाहिर है, कोरोना संकट के कारण चुनाव प्रक्रिया में बदलाव आएगा. उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने तो कहा भी है कि इस बार बदले स्वरुप में बिहार में चुनाव हो सकता है. इस बार न तो हेलीकॉप्टर उड़ेगा और न ही नेता सभा-रैली कर सकेंगे. घर-घर जाकर वोटरों से संपर्क करना पड़ेगा. हालांकि राज्य में चुनाव पूरी तरह डिजिटल हो सकेगा, इसमें शक है. गांवों की एक बड़ी आबादी जो कम पढ़ी-लिखी या फिर अशिक्षित है, आखिर वह कैसे वोट कर सकेगी. बहुत संभव है, चुनाव आयोग पंचायत चुनाव के पैटर्न पर बूथों की संख्या बढ़ा दे या फिर कई फेज में चुनाव करवाए ताकि सोशल डिस्टेंशिंग का मतदान के दौरान पालन हो सके.

दावे-प्रतिदावे चाहे जो भी हों लेकिन इतना तो साफ है कि लाखों वोटरों की एक नई फौज इस बार बिहार के चुनाव मैदान में होगी. ये वे लोग हैं जो देश के अन्य हिस्सों में रहते थे और मतदान में हिस्सा नहीं ले पाते थे. इस बार अब वे अपने गांव-घर में हैं तो अपना वोट डालने की हरसंभव कोशिश करेंगे. यह तबका बहुत सोच-विचार कर नहीं बल्कि तात्कालिक परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया देता है बशर्ते कि कोई जातिगत शर्त न हो. इसलिए विपक्ष उनकी जलालत व दर्द को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है. वहीं सत्तारूढ़ दल को सरकारी मशीनरी को दुरुस्त कर उनकी समस्याओं का निराकरण करना होगा, उनकी रोजी-रोटी का मुकम्मल उपाय करना होगा. लेकिन यह तय है कि मजदूरों का गुनहगार होने का कलंक जिस किसी दल पर लगेगा, उसका सूपड़ा साफ हो जाएगा.

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