प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों पर कई फिल्में बनी लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. उनकी कहानियों और उपन्यास को सुन मुग्ध हो जाना स्वाभाविक है लेकिन फिल्मों ने कभी उसके साथ न्याय नहीं किया. दरअसल प्रेमचंद को सिनेमा कभी रास ही नहीं आया. वह खुद अपनी किस्मत आजमाने 1934 में तब के बम्बई गए. अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी लेखक की नौकरी भी की लेकिन एक साल का अनुबंध पूरा करने के पहले ही वाराणसी वापस आ गए. बम्बई और उससे भी ज्यादा वहां की फिल्मी दुनिया का हवा पानी उन्हें रास नहीं आया.
उन्होंने मिल मजदूर फिल्म की पटकथा भी लिखी. मोहन भगनानी के निर्देशन में बनी यह फिल्म नाकाम रही. प्रेमचंद की कहानियों पर 1934 में नवजीवन बनी. के सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर इसी नाम से फिल्म बनाई जिसमें सुब्बा लक्ष्मी ने मुख्य भूमिका अदा की थी. ए आर कारदार ने 1941 में त्रिया चरित्र पर स्वामी बनाई जो नहीं चली. सन 1946 में रंगभूमि पर इसी नाम से फिल्म बनी. मृणाल सेन ने 1977 में कफन कहानी पर बांग्ला में 'ओका ऊरी कथा' बनाई. साल 1963 में गोदान तथा 1966 में गबन का निर्माण हुआ. दूरदर्शन ने उनके उपन्यास निर्मला पर इसी नाम से धारावाहिक का निर्माण किया जो सालों चलता रहा.
भारत में कहीं भी युगल जोड़े प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन करते दिखें तो लोगों की त्यौरियां चढ़ जाती हैं. वहीं पश्चिमी देशों में सार्वजनिक जगहों पर चुंबन, आलिंगन आम बात है. देखिए भारत में किस की कहानी.
तस्वीर: MICHAEL KAPPELER/AFP/Getty Imagesचुंबन की शुरुआत कहां से हुई यह पक्के तौर पर कहना कठिन है. टेक्सास के मशहूर मानवशास्त्री वॉन ब्रायंट ने चुंबन या किस पर लम्बा शोध किया और पाया कि ऐसी किसी क्रिया के सबसे पहले लिखित प्रमाण 3,500 साल पुराने वेद, पुराणों और संस्कृत पाण्डुलिपियों में मिलते हैं.
तस्वीर: picture alliance/Heritage Imagesकरीब आधी सदी बाद हिंदू महाकाव्य महाभारत में होठों से होठों पर स्नेहमयी कोमल चुंबन का पहला जिक्र मिलता है. भारत में इस पर शोध करने वाले लोगों ने बताया कि 326 ईसा पूर्व जब सिकंदर महान ने उत्तरी भारत के पंजाब प्रांत के कुछ हिस्सों पर कब्जा किया तब वहां से ही वह किसिंग को दुनिया के बाकी हिस्सों में ले गया.
तस्वीर: picture-alliance/dpaअमेरिकी मानवशास्त्री वॉन ब्रायंट बताते हैं कि किस शब्द की उत्पत्ति भी प्राचीन भारत में ही हुई होगी. प्राचीन काल में किसिंग को “बूसा” या “बोसा” भी कहा गया, जिससे इसका प्राचीन लैटिन नाम ”बासियम” निकला. इसका आधुनिक जर्मन नाम "कुस" और अंग्रेजी नाम “किस” भी यहीं से निकला.
तस्वीर: Reuters/F. Benschविश्व को कामसूत्र देने वाले देश में आज भी सार्वजनिक जगहों पर युगल जोड़ों का हाथ में हाथ डालकर चलते दिखना आम नहीं है. "मनुस्मृति" नाम के ग्रंथ में कई सौ सालों में स्थापित हुए हिंदुओं के सामाजिक आचार व्यवहार का ब्यौरा था. काफी हद तक इसे ही हिंदुओं के जीवन जीने का आधार मान लिया गया. कुछ लोगों ने आगे चलकर इसका मतलब महिलाओं की कामुकता पर नियंत्रण करना समझ लिया.
तस्वीर: dpa - Bildarchiv1933 में आई हिन्दी फिल्म “कर्मा” में उस समय की मशहूर अदाकारा देविका रानी ने पर्दे पर एक्टर और असली जीवन में अपने पति हिमांशु राय को किस किया था.
2007 में मशहूर बॉलीवुड एक्टर शिल्पा शेट्टी को हॉलीवुड एक्टर रिचर्ड गेयर के गालों पर किस करने के कारण काफी आलोचना झेलनी पड़ी थी. पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए और उन कलाकारों के पुतले तक जलाए गए.
तस्वीर: INDRANIL MUKHERJEE/AFP/GettyImages1980 में पद्मिनी कोल्हापुरे के ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स को पश्चिमी अंदाज में अभिवादन करने के दौरान किस किया था जिसके कारण उनकी खूब आलोचना हुई. इसके अलावा 1993 में अभिनेत्री शबाना आजमी के नेल्सन मंडेला को किस करने पर भी ऐसी ही प्रतिक्रिया हुई.
तस्वीर: DW2008 में दिल्ली के एक मेट्रो स्टेशन के पास किस करते पाए गए एक विवाहित जोड़े पर अश्लीलता फैलाने के आरोप में मुकदमा जड़ दिया गया. इस बार अदालत ने अपना फैसला सुनाते हुए साफ किया कि प्रेम जताना कोई गैरकानूनी काम नहीं हैं.
तस्वीर: Hesam
प्रेमचंद के उपन्यास या कहानी पर बनी किसी फिल्म ने शतरंज के खिलाड़ी के रूप में आखिरकार सफलता का मुंह देखा. निर्देशक सत्यजित रे 1977 में इसका निर्माण किया. शतरंज के खिलाड़ी को तीन फिल्म फेयर के अलावा 1978 में बर्लिन महोत्सव में गोल्डन बीयर अवार्ड मिला. उपन्यास में कहानी 1856 के अवध नवाब वाजिद अली शाह के दो अमीरों के ईद गिर्द घूमती है. सत्यजित रे ने 1981 में सदगति का भी निर्माण किया. यह सवाल बार बार उठाया जाता है कि जिस प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों ने पाठकों को झकझोरा उस पर बनी फिल्में दर्शकों को पसंद क्यों नहीं आयीं.
हिन्दी कथा साहित्य को तिलस्मी कहानियों के झुरमुट से निकाल कर जीवन के यथार्थ की ओर ले जाने वाले प्रेमचंद देश ही नहीं दुनिया में मशहूर हुए. उन्होंने साहित्य में यथार्थवादी परम्परा की नींव रखी. सिनेमा और साहित्य अलग अलग विधा हैं लेकिन दोनों का पारस्परिक समबन्ध काफी गहरा है. जब कहानी पर आधारित फिल्मों की शुरूआत हुई तो इसका आधार साहित्य ही बना. भारतेंदु हरिश्चन्द्र के नाटक हरिश्चन्द्र पर दादा साहब फाल्के ने इसी नाम से फिल्म बना दी लेकिन उसका हश्र कुछ ऐसा हुआ कि निर्माता हिन्दी की साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने से गुरेज करने लगे. कहानी या उपन्यास में बाजार की भूमिका नहीं होती लेकिन सिनेमा में बाजार का तत्व हावी होता है.
एमजे/एसएफ (वार्ता)