फराह नाज जब अफगान शरणार्थी समुदाय से काम करने के लिए निकलती हैं तो उन्हें तीखी टिप्पणियों और विरोध भरी नजरों का सामना करना पड़ता है. अब उन्हें ऐसे व्यवहार की आदत पड़ चुकी है.
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अफगान शरणार्थी समुदाय के लोग फरहा नाज को पसंद नहीं करते क्योंकि वह हर सुबह काम करने के लिए बाहर निकल जाती है. वे लोग नाज के काम करने पर उनसे कहते हैं कि वह अच्छी औरत नहीं है. वह जो कर रही है वह शर्मनाक है और उसकी सही जगह अपने घर में है और उसे अपने बीमार पति और पांच बच्चों का ख्याल रखना चाहिए. 32 वर्षीय नाज को तालिबान से भागे पांच साल हो गये हैं. वहां उनके पति को मारने का आदेश दिया गया था और उस पर मिट्टी तेल छिड़ककर लगभग जिंदा जला दिया गया था. उसके बच्चों को अगवा कर लेने की धमकियां मिली थीं. अब वो इस बारे में ध्यान नहीं देती कि लोग क्या सोचते हैं.
फिलहाल वो एक बिजनेस वूमन बनने की तैयारी में हैं. नाज कहती हैं कि मेरे पास काम करने के अलावा कोई चारा नहीं था और अब मुझे इस पर गर्व है. मैं अपने परिवार का ध्यान रख पा रही हूं और मेरे समुदाय की महिलाओं की सोच भी बदल रही हूं. और खास बात ये है कि मैं जो काम कर रही हूं वो यह दर्शाता है कि शरणार्थी भी बेहतरीन काम कर सकते हैं.
नाज उन पांच महिलाओं में से हैं जो न सिर्फ घर से बाहर निकल कर काम कर रही हैं बल्कि रूढ़िवादी मानसिकता को भी चुनौती दे रही हैं. इसके साथ वो उन कुछ लोगों में से हैं जो प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए काम कर रही हैं.
तालिबान की धमकियों से बेपरवाह अफगान जलपरी
अफगानिस्तान के रुढ़िवादी समाज में जहां महिलाएं बुनियादी अधिकारों को तरस रही हैं, वहीं 25 साल की एलेना सबूरी धमकियों से घबराए बिना अफगान महिलाओं को तैराकी के गुर सिखा रही हैं.
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अफगान जलपरी
एलेना सबूरी कई मामलों में दकियानूसी सोच रखने वाले अफगान समाज में महिलाओं के लिए संघर्ष कर रही हैं. वह वीमन स्विमिंग कमेटी की प्रमुख और कोच हैं. वह ऐसी महिला तैराकों को तैयार करने में जुटी हैं जो टोक्यो ओलंपिक के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सकें.
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मुश्किल तैराकी
अफगानिस्तान में सिर्फ 30 ही स्वीमिंग पूल हैं जिनमें से सिर्फ एक में महिलाओं को आने की अनुमति है. लेकिन चरमपंथियों की तरफ से इस पूल को लगातार धमकियां मिल रही हैं. लेकिन सबूरी इन बातों की ज्यादा फिक्र नहीं करतीं.
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जोखिम
सबूरी कहती हैं कि उन्होंने तैराकी ज्यादातर इंटरनेट से सीखी और काबुल एक पूल में प्रैक्टिस की. अब उन्होंने दूसरी लड़कियों को यह हुनर सिखाने का बीड़ा उठाया है. वह कहती हैं, “मैं जानती हूं कि मैंने एक वर्जित क्षेत्र में कदम रखा है. इस टीम को बनाकर मैंने बड़ा जोखिम उठाया है.” (फोटो सांकेतिक)
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बाधाएं
सबसे बड़ा खतरा तालिबान चरमपंथी ही हैं जबकि इस्लामिक स्टेट जैसे गुट भी वहां मजबूत हो रहे हैं. इसके अलावा पुरूष प्रधान अफगान समाज में महिलाओं पर कई तरह की पाबंदियां भी सबूरी के रास्ते को रोड़े हैं. सबूरी और उनकी टीम अपनी कमर, बाहें और जांघों को ढके बिना नहीं तैर सकतीं.
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खास स्विमिंग सूट
सबूरी की टीम के लिए ब्राजील की एक कंपनी से खास स्विमसूट बनवाने की बात चल रही है. अफगान फेडरेशन ऑफ स्विमिंग के युवा अध्यक्ष सैयद अहसान ताहिरी कहते हैं, “हमारे स्विमर्स के लिए सबसे बड़ी बाधा सुरक्षा ही है.”
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लक्ष्य है टोक्यो
ताहिरी एलेना सबूरी की तारीफ करते हुए कहते हैं, “हमारा लक्ष्य है कि 2020 के टोक्यो ओलंपिक में हम कम से दो पुरूष और एक महिला तैराक के साथ मौजूद रहें.” अगर ऐसा हुआ तो ओलंपिक में पहली बार कोई अफगान महिला तैराक पहुंचेगी.
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गलतफहमी
ताहिरी कतर, ईरान और सऊदी अरब का हवाला देते हुए कहते हैं कि अफगानिस्तान को छोड़ कर सभी मुस्लिम देशों की महिला टीमें हैं. वह कहते हैं कि अफगानिस्तान में कुछ यह गलतफहमी भी है कि इस्लाम में महिलाओं के खेलने पर पाबंदी है.
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फंडिंग के प्रयास
ताहिरी की फेडरेशन काबुल में कम से कम चार पूलों को फिर से खड़ा करने में जुटी है. इनमें 1970 के दशक में सोवियत अधिकारियों का बनाया एक पूल भी शामिल है. ताहिरी को सरकारी मदद का इंतजार तो है ही, उन्होंने फंडिंग के लिए एक वेबसाइट भी शुरू की है.
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हिम्मत नहीं हारेंगे..
सबूरी का कहना है कि वह हिम्मत हारने वाली नहीं है. लगभग एक दर्जन महिलाएं उनके साथ आई हैं. वह कहती हैं, “उन्होंने मुझसे संपर्क किया. मैंने उन्हें झटपट अपने साथ जोड़ लिया. मैं उन्हें ऐसे ही नहीं जाने दे सकती हूं.”
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यह काम बहुत बड़ा है और सिर्फ 5 लोग इसे ठीक से नहीं कर पायेंगे. लेकिन यह काम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना रहा है. यह काम दोहरी भूमिकायें निभा रहा है. एक तरफ तो भारत में प्लास्टिक प्रदूषण के मुद्दे पर बात होने लगी है तो दूसरी तरफ वे शरणार्थी महिलाओं की छवि को बेहतर बना रही है.
ये महिलाएं जिस प्रोजेक्ट में काम कर रही हैं वह दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों की एक पहल है. यहां अफगान महिलाएं ऐसी कटोरियां, चम्मच और छुरी चाकू वगैरह बनाती हैं जिसे खाया जा सकता है! ये बाजरे और गेहूं के आटे से बने बिस्कुट की तरह होते हैं. और इन्हें कैफे और आईसक्रीम पार्लरों में प्लास्टिक की जगह पर इस्तेमाल किया जा रहा है. इसे पश्चिम के देशों में बहुत पसंद किया जा रहा है और पर्यावरण के अनुकूल एक विकल्प की तरह देखा जा रहा है.
20 वर्षीय छात्र निश्चय हंस कहते हैं कि हम सामाजिक उद्यम का एक मॉडल बनाना चाहते थे. जो पर्यावरण को बेहतर करने के साथ साथ शरणार्थियों जैसे बहिष्कृत समुदायों को रोजगार भी दे. निश्चय दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज के उन 40 छात्रों में से हैं जो इस काम में शामिल हैं. ये लोग कमजोर और पिछ़डे समुदायों के लोगों के साथ मिल कर टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल व्यवसाय खड़ा करने का प्रयास करते हैं. इस काम में यूएन भी इनकी मदद कर रहा है.
नीता भल्ला/एसएस (रॉयटर्स)
खतरे उठाकर सुरों को साधती ये अफगान लड़कियां
बेहद कट्टरपंथी समझे जाने वाले अफगान समाज में कुछ लड़कियों ने सुरों के सहारे बदलाव का बीड़ा उठाया है. उन्होंने अफगानिस्तान का पहला महिला ऑर्केस्ट्रा बनाया है जिसे दुनिया भर में प्यार और सराहना मिल रही है.
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क्यों अहम है जोहरा
अफगानिस्तान में संगीत को अच्छा नहीं समझा जाता और खासकर महिलाओं के लिए तो बिल्कुल नहीं. इसलिए कुछ लड़कियों का एक साथ मिल कर जोहरा नाम से ऑर्केस्ट्रा बनाना बहुत अहमियत रखता है. ये सभी लड़कियां अफगानिस्तान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक में पढ़ती हैं.
तस्वीर: G.Beadle/WEF
संगीत के लिए टूटे रिश्ते
इस सिम्फनी की दो कंडक्टरों में से एक नेगिन के पिता तो उनका साथ देते हैं. लेकिन उनके अलावा पूरा परिवार संगीत सीखने और ऑर्केस्ट्रा में शामिल होने के खिलाफ था. वह बताती हैं कि उनके कई रिश्तेदारों ने इसी वजह से उनके पिता से अपने संबंध तक तोड़ लिए.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Jawad
अहम संस्थान
अफगानिस्तान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक देश के उन चंद संस्थानों में से एक है जहां लड़के लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं. नेगिन ने यहीं पियानो और ड्रम बजाना सीखा और वे जोहरा की कंडक्टर बन गईं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Jawad
संगीत की महक
जोहरा ने अपनी पहली विदेशी परफॉर्मेंस स्विट्जरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक फोरम के दौरान दी. इसके बाद स्विट्जरलैंड और जर्मनी के चार अन्य शहरों में भी उन्होंने अपने संगीत का जादू बिखेरा. पारंपरिक पोशाकों में सजी इन लड़कियों के संगीत की महक धीरे धीरे दुनिया में फैल रही है.
तस्वीर: A. Sarmast
संगीत की देवी
जोहरा में 12 साल से 20 साल तक की उम्र की 30 से ज्यादा लड़कियां हैं. ऑर्केस्ट्रा का नाम फारसी साहित्य में संगीत की देवी कही जाने वाले जोहरा के नाम पर रखा है. यह ऑर्केस्ट्रा पारंपरिक अफगान और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत बजाता है.
सरमस्त ने इसके लिए जोखिम भी बहुत उठाए हैं. 2014 में एक कंसर्ट के दौरान एक तालिबान आत्मघाती हमलावर ने खुद को उड़ा लिया था. इस घटना में खुद सरमस्त घायल हो गए थे जबकि दर्शकों में शामिल एक जर्मन व्यक्ति की जान चली गई थी.
तस्वीर: ANIM
मकसद
अफगानिस्तान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक के संस्थापक और निदेशक अहमद नासिर सरमस्त कहते हैं कि इस ऑर्केस्ट्रा को बनाने का मकसद यही है कि लोगों के बीच एक सकारात्मक संदेश जाए और वे बच्चे और लड़कियों को संगीत सीखने और उसमें योगदान देने के लिए प्रेरित करें.
तस्वीर: ANIM
कहां गई मीना?
इस ऑर्केस्ट्रा की शुरुआत 2014 में हुई जब सातवीं में पढ़ने वाली एक लड़की मीना ने सरमस्त के सामने ऑर्केस्ट्रा बनाने का सुझाव रखा. ऑर्केस्ट्रा तो बन गया, लेकिन पूर्वी नंगरहार प्रांत में अपनी बहन की शादी में शामिल होने गई मीना फिर कभी संस्थान में नहीं लौट पाई.
तस्वीर: Save The Children
मुश्किलें
नेगिन की तरह ऑर्केस्ट्रा की दूसरी कंडक्टर जरीफा आबिदा को भी परिवार की तरफ से विरोध झेलना पड़ा. 2014 में जब उन्होंने म्यूजिक इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया तो सिर्फ अपनी मां और सौतेले पिता को बताया, अपने चार भाइयों और अन्य रिश्तेदारों को नहीं, क्योंकि वे कभी इसकी इजाजत नहीं देते.
तस्वीर: DW/A. Behrad
बदलाव होगा
अब हालात कुछ बेहतर हुए हैं. जरीफा के दो भाइयों को छोड़कर परिवार के सभी सदस्य उनके साथ हैं. जरीफा को उम्मीद है कि वे दोनों भी जल्दी मान जाएंगे. वह कहती हैं कि धीरे धीरे ही सही, लेकिन अफगानिस्तान भी बदलेगा जरूर.