चुनाव आयोग ने दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी आप के 20 विधायकों को अयोग्य घोषित करने की सिफारिश की है. लाभ के पद के मामले में कार्रवाई करते हुए आयोग ने राष्ट्रपति को सिफारिश भेजी.
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निर्वाचन आयोग ने आप के 20 विधायकों को अयोग्य घोषित करने की सिफारिश भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भेजी है. राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही चुनाव आयोग इन विधायकों पर कार्रवाई करेगा. संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की सिफारिश के आधार पर कार्रवाई करने के लिए बाध्य है.
चुनाव आयोग के फैसले का विरोध करते हुए ट्विटर पर आम आदमी पार्टी ने कहा, "चुनाव आयोग के इतिहास में यह पहला मौका है जब मामले की सुनवाई किए बगैर सिफारिश कर दी गई है."
असल में यह मामला वकील प्रशांत पटेल ने उठाया था. 2015 में आप के दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के बाद पटेल ने एक याचिका दायर की. याचिका में कहा गया था कि आप के 21 विधायक "लाभ के पद" पर हैं. याचिका के मुताबिक ये सभी विधायक संसदीय सचिव के पद पर हैं. इसे आधार बनाकर पटेल ने इन नेताओं को विधायक के रूप में अयोग्य घोषित करने की मांग की. इनमें से एक विधायक ने बाद में इस्तीफा दे दिया. याचिका दायर करने के बाद केजरीवाल सरकार ने संसदीय सचिव पद खत्म भी कर दिया. 2015 के विधानसभा चुनावों में आप ने दिल्ली में 70 में से 67 सीटें जीती थीं.
जून 2017 में आप के विधायकों ने चुनाव आयोग से इस याचिका को खारिज करने की मांग की, जिसे ठुकरा दिया गया. इसके बाद आप ने दिल्ली हाई कोर्ट का रुख किया. विधायकों का कहना था कि संसदीय सचिव का पद 2016 में खत्म कर दिया गया था. लेकिन हाई कोर्ट ने कहा कि इस मामले में अभी सुनवाई चुनाव आयोग ने शुरू नहीं की है, लिहाजा अदालत विधायकों की याचिका स्वीकार नहीं कर सकती.
लाभ के पद वाला विवाद पहली बार 2006 में शुरू हुआ जब राज्य सभा सांसद जया बच्चन पर उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम की अध्यक्ष के रूप में लाभ के पद पर होने के आरोप लगे. चुनाव आयोग ने उन्हें राज्य सभा की सदस्यता के अयोग्य पाया. जया बच्चन की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया कि सांसद या विधायक द्वारा लाभ का पद लेने से उसे सदस्यता गंवानी होगी, भले ही उसने लाभ के पद का वेतन या भत्ता न लिया हो. इस प्रावधान के तहत कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी को भी लोकसभा की सदस्यता छोड़नी पड़ी थी.
चंदों पर चलते राजनीतिक दल
लोकतंत्र में राजनीतिक दल लोगों के विचार के विकास में योगदान देते हैं और उनका समर्थन जीतकर उनके हित में प्रशासन चलाते हैं. लेकिन सदस्यों से पर्याप्त धन न मिले तो पार्टियों को चंदे पर निर्भर होना पड़ता है.
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बढ़ा खर्च
राजनीतिक दलों का खर्च बढ़ा है. वहीं उनका जनाधार खिसका है. लोकतांत्रिक संरचना के अभाव में सदस्यों की भागीदारी कम हुई है. पैसों की कमी चंदों से पूरी हो रही है, जिसका सही हिसाब किताब नहीं होता.
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जुलूस
खर्च इस तरह के जुलूसों के आयोजन पर भी है. चाहे चुनाव प्रचार हो या किसी मुद्दे पर विरोध या समर्थन व्यक्त करने के लिए रैलियों का आयोजन. नेताओं को लोकप्रियता दिखाने के लिए इसकी जरूरत होती है.
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रैलियां
लोकप्रियता का एक पैमाना स्वागत में सड़कों पर उतरने वाली भीड़ है. इस भीड़ का इंतजाम स्थानीय पार्टी इकाई को करना होता है. कार्यकर्ताओं को लाने ले जाने का भी खर्च होता है.
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छोटी पार्टियां
राष्ट्रीय पार्टियों के कमजोर पड़ने से लगभग हर राज्य में प्रांतीय पार्टियां बन गई हैं. स्थानीय क्षत्रपों को भी अपनी पार्टी चलाने के लिए पैसे की जरूरत होती है.
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कहां से आए धन
बहुत से प्रांतों में आर्थिक विकास न होने के कारण चंदा दे सकने वाले लोगों की कमी है. फिर पैसे के लिए चारा घोटाला होता है या चिटफंड घोटाला.
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पैसे की लूट
फिर सहारा स्थानीय कंपनियों का लेना पड़ता है. बंगाल में सत्ताधारी त्रृणमूल के कुछ नेता घोटालों के आरोप में जेल में हैं, जनता सड़कों पर उतर रही है.
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नजरअंदाज नियम
भारत का चुनाव आयोग दुनिया के सबसे सख्त आयोगों में एक है. उसने स्वच्छ और स्वतंत्र चुनाव करवाने में तो कामयाबी पाई है लेकिन राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाने में नाकाम रहा है.
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पारदर्शिता संभव
भारत जैसे लोकतंत्र को चलाने वाली बहुत सी राजनीतिक पार्टियां खुद कानूनों का पालन नहीं करतीं. आम आदमी पार्टी अकेली पार्टी है जो चंदे के मामले में पारदर्शी है.
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प्राथमिकता क्या
सालों से सत्ता में रही और स्वच्छ प्रशासन के लिए जिम्मेदार रही पार्टियां या तो जुलूस, धरना, प्रदर्शन में वक्त गुजार रही है...
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दलगत राजनीति
...या फिर जीत का जश्न मनाने, नए प्रदेशों पर कब्जा करने की योजना बनाने और वहां सत्ता में आने की तैयारी करने में.
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परेशान जनता
तो देश के बड़े हिस्से को पानी, बिजली जैसी आम जरूरत की चीजें उपलब्ध नहीं है. अभी भी लोगों को पीने के पानी के लिए लाइन में खड़ा होना पड़ता है.