अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मध्यपूर्व शांति योजना सिर्फ इस्राएलियों के हितों को ध्यान में रखकर बनाई गई है जबकि फलीस्तीनियों के हित नजरअंदाज किए गए हैं. डॉयचे वेले के राइनर सोलिच कहते हैं कि इसका नतीजा अच्छा नहीं हो सकता.
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कई दशकों से इस्राएल और फलीस्तीनियों का विवाद अनसुलझा है. न तो युद्ध, न ही हमले, न विद्रोह और न ही अंतरराष्ट्रीय पहल, शांति संधि या संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के लिए नियमित समर्थन स्थिति में थोड़ा भी बदलाव लाने में कामयाब हो पाए हैं. अविश्वास बहुत गहरा है, और ऐतिहासिक समझौते की तैयारी या क्षमता दोनों ही पक्षों में थोड़ी भी नहीं है.
ऐसे में यदि राष्ट्रपति ट्रंप वाशिंगटन से मध्य पूर्व में शांति का भरोसेमंद संदेश देते तो यह शांति प्रक्रिया में एक उम्मीद भरा संदेश हो सकता था. कि हम बंद गली के मुहाने पर खड़े हैं, इसलिए अब नए विचारों के साथ एकदम नई राह पर चलने की कोशिश कर रहे हैं.
समझौते के बदले अपमान
लेकिन डॉनल्ड ट्रंप ऐसे राष्ट्रपति हैं, जो शांति वाली दूरदृष्टि के लिए नहीं जाने जाते. मध्यपूर्व के लिए भी उनके पास कोई आइडिया या हल नहीं है. इसके विपरीत सदियों के डील के रूप में घोषित उनकी पहल समान अधिकारों वाले पार्टनर के बीच भारी सौदेबाजी के बाद तय हुई कोई डील नहीं है. यह राजनीतिक हुक्मनामे की साफ कोशिश है. कुछ सांकेतिक बातों को छोड़कर इस योजना में इस्राएल के सुरक्षा हितों पर उदारता से ध्यान दिया गया है जबकि फलीस्तीनियों को योजना के निर्माण में भी साझेदार नहीं बनाया गया, और वे साफ तौर पर खोने वाले हैं. उनके और इलाकों को इस्राएल के हाथों गंवाने का खतरा है.
हालांकि उन्हें अपना राज्य देने की बात कही गई है, लेकिन उसे इस्राएल के सुरक्षा हितों का ख्याल रखना होगा और पूरी तरह विसैन्यीकृत होगा. येरूशलम हमेशा के लिए इस्राएल की अविभाजित राजधानी रहेगी, जैसी कि ट्रंप ने 2015 में ही घोषणा कर दी थी. और सांत्वना पुरस्कार के रूप में शहर के अरब आबादी वाले एक छोटे से हिस्से में फलीस्तीनी अपनी राजधानी बना सकेंगे. ट्रंप ने कहा है कि उनकी योजना संभवतः फलीस्तीनियों के लिए अंतिम मौका होगा. वे यह भी कह सकते थे, इसे मानो या जाने दो. इस तरह से दो समान अधिकारों वाले देश कभी नहीं बन सकते. ट्रंप ने फलीस्तीनियों को दो राज्यों वाला नहीं बल्कि डेढ़ राज्यों वाला समाधान दिया है.
इस्राएल के लिए खुले हाथ
ये राजनीतिक विचार न सिर्फ अनैतिक और अपमानजनक है, क्योंकि दो दलों के बीच विवाद में सिर्फ एक दल को फायदा पहुंचाया जा रहा है. ट्रंप की शांति योजना खतरनाक भी है क्योंकि यह इस्राएल को व्यावहारिक रूप से तथाकथित डील के आधार पर और फलीस्तीनी इलाकों पर अधिकार करने की खुली आजादी देती है. इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू के लिए यह अच्छा ही है, क्योंकि अब तक कोई इस्राएली प्रधानमंत्री अमेरिका से इससे बेहतर रियायत पाने में सफल नहीं रहा है.
यह नेतन्याहू को इस्राएल में होने वाले चुनावों और साथ ही अदालत में तल रहे भ्रष्टाचार वाले मुकदमे में फायदा पहुंचाएगा. लेकिन अरब मुस्लिम पक्ष से शांति योजना का भारी विरोध होगा. कट्टरपंथी ताकतें खुशी से फूले नहीं समा रही हैं क्योंकि शांति योजना उन्हें आतंक और हिंसा के सही बहाना देती है. ये सब मध्य पूर्व को निश्चित तौर पर सुरक्षित नहीं बनाएगा. इस्राएल को भी नहीं.
मुस्लिम देश इस्राएल को मध्यपूर्व में विवादों का केंद्र कहते हैं. एक तरफ उसके आलोचक हैं तो दूसरी तरफ उसके मित्र. लेकिन इस रस्साकसी से इतर बहुत कम लोग जानते हैं कि इस्राएल आखिर कैसा है.
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राष्ट्र भाषा
आधुनिक हिब्रू के अलावा अरबी इस्राएल की मुख्य भाषा है. ये दोनों 1948 में बने इस्राएल की आधिकारिक भाषाएं हैं. आधुनिक हिब्रू 19वीं सदी के अंत में बनी. पुरातन हिब्रू से निकली आधुनिक हिब्रू भाषा अंग्रेजी, स्लाविक, अरबी और जर्मन से भी प्रभावित है.
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छोटा सा देश
1949 के आर्मिस्टिक समझौते के मुताबिक संप्रभु इस्राएल का क्षेत्रफल सिर्फ 20,770 वर्ग किलोमीटर है. इस समझौते पर मिस्र, लेबनान, जॉर्डन और सीरिया ने दस्तखत किए थे. लेकिन फिलहाल पूर्वी येरुशलम से लेकर पश्चिमी तट तक इस्राएल के नियंत्रण में 27,799 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र है. इस्राएल के उत्तर से दक्षिण की दूरी 470 किमी है. देश का सबसे चौड़ा भूभाग 135 किलोमीटर का है.
अनिवार्य सैन्य सेवा
इस्राएल दुनिया का अकेला ऐसा देश है जहां नागरिकों और स्थायी रूप से रहने वाली महिला व पुरुषों के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य है. 18 साल की उम्र के हर इस्राएली को योग्य होने पर तीन साल सैन्य सेवा करनी पड़ती है. महिलाओं को दो साल सेना में रहना पड़ता है.
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फलीस्तीन के समर्थक
नेतुरेई कार्टा का मतलब है कि "सिटी गार्ड्स." यह 1939 में बना एक यहूदी संगठन है. यह इस्राएल की स्थापना का विरोध करता है. इस संगठन का कहना है कि एक "यहूदी मसीहा" के धरती पर आने तक यहूदियों को अपना देश नहीं बनाना चाहिए. इस संगठन को फलीस्तीनियों का समर्थक माना जाता है.
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राष्ट्रपति पद ठुकराया
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइनस्टाइन भले ही पूजा नहीं करते थे, लेकिन जर्मनी में यहूदियों के जनसंहार के दौरान उनका यहूदी धर्म की तरफ झुकाव हो गया. उन्होंने यहूदी आंदोलन के लिए धन जुटाने के लिए ही अमेरिका की पहली यात्रा की. बुढ़ापे में उन्हें इस्राएल का राष्ट्रपति बनने का न्योता दिया गया, आइनस्टाइन ने इसे ठुकरा दिया.
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ईश्वर को चिट्ठियां
हर साल येरुशलम के डाक घर को 1,000 से ज्यादा ऐसे खत मिलते हैं, जो भगवान को लिखे जाते हैं. ये चिट्ठियां कई भाषाओं में लिखी होती हैं और विदेशों से भी आती हैं. ज्यादातर खत रूसी और जर्मन में होते हैं.
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येरुशलम की पीड़ा
इतिहास के मुताबिक येरुशलम शहर दो बार पूरी तरह खाक हुआ, 23 बार उस पर कब्जा हुआ, 52 बार हमले हुए और 44 बार शहर पर किसी और का शासन हुआ. गिहोन झरने के पास शहर का सबसे पुराना इलाका है, कहा जाता है कि इसे 4500-3500 ईसा पूर्व बनाया गया. इसे मुसलमानों, ईसाइयों और यहूदियों का पवित्र शहर कहा जाता है.
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पैसेंजर फ्लाइट का रिकॉर्ड
24 मई 1991 को इस्राएली एयरलाइन कंपनी एल अल का बोइंग 747 विमान 1,088 यात्रियों को लेकर इस्राएल पहुंचा. किसी जहाज में यह यात्रियों की रिकॉर्ड संख्या है. इथियोपिया के ऑपरेशन सोलोमन के तहत यहूदियों को अदिस अबाबा से सुरक्षित निकालकर इस्राएल लाया गया.
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खास है मुद्रा
इस्राएली मुद्रा शेकेल दुनिया की उन चुनिंदा मुद्राओं में से है जिनमें दृष्टिहीनों के लिए खास अक्षर हैं. दृष्टिहीनों की मदद करने वाली मुद्राएं कनाडा, मेक्सिको, भारत और रूस में भी हैं.