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फिर याद आए गालिब और उनका अंदाज-ए-बयां

२७ दिसम्बर २०१०

भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायर माने जाने वाले मिर्जा गालिब की आज 213वीं जन्मतिथि है. बचपन में बाप को खोने वाले गालिब ने जमाने का दर्द मरहम जैसे बयान किया. उनकी रचनाओं और उनके जीवन पर एक नजर.

इश्क ने 'गालिब' निकम्मा कर दिया,

वरना हम भी आदमी थे काम के.

उनके आने से जो आ जाती है चेहरे पर रौनक,

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,

दिल को बहलाने को ‘गालिब' ये ख्याल अच्छा है.

ऐसे न जाने कितने शेर भारत, पाकिस्तान और दुनिया भर में शायरी के चाहनों वालों की जिंदगी का हिस्सा हैं. उनके कुछ दीवाने कहते हैं गालिब ऐसे नशे की तरह हैं, जिसका सुरूर उम्र भर रहता है.

27 दिसंबर 1797 के दिन आगरा में मिर्जा असदुल्लाह खान का जन्म हुआ. बचपन में पिता खोने के बाद सात बहन भाइयों के बीच में गालिब ने अपार कष्ट देखें और हुकूमती जुल्म देखे और दुनिया के स्वार्थ को समझ लिया. उनका एक शेर है, ''हमको उनसे वफा की है उम्मीद.....जो नहीं जानते वफ़ा क्या है.'' बुढ़ापे के दिनों में उन्होंने 1857 की क्रांति देखी. इस पर भी उन्होंने लोगों को एकजुट होने का संदेश दिया.

लेकिन नफरत उनके व्यक्तित्व पर भारी न हुई. एक बार ब्रिटिश अधिकारी ने जब उनसे पूछा कि क्या तुम मुसलमान हो. तो उन्होंने जवाब दिया, "आधा मुसलमान हूं. शराब पीता हूं, सूअर नहीं खाता हूं." धर्म के नाम पर कट्टरता फैलाने वालों के खिलाफ गालिब की कलम खूब चली.

दिल्ली की गालिब अकादमी के सचिव अकील अहमद कहते हैं, ''जिस तरह से उन्होंने जीवन की हर संवेदना को अपनी रचनाओं में उकेरा, मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई और कर सकता है. उनकी शायरी से हर कोई आसानी से जुड़ाव महूसस करता हूं. इतिहास और उर्दू साहित्य में ऐसा कोई शायर नहीं है.''

दिल्ली में उन्हें श्रद्धाजंलि देने वालों में कुछ डॉक्टर भी थे. उनमें से एक ने कहा, ''मुझे लगता है कि वह शायर ही नहीं बल्कि एक बहुत बड़े मनोविज्ञानी भी थे.''

हर दौर में नए शायरों को प्रेरणा देने वाले मिर्जा गालिब का देहांत 15 फरवरी 1869 को हुआ. उन्हें पुरानी दिल्ली में दफनाया गया. पुण्यतिथि या जन्मतिथि जैसे मौकों पर वहां कुछ जलसा सा लगता है. सामान्य दिनों में उनके एकाध मुरीद कब्र तक पहुंचते हैं.

गालिब कह गए थे:

''तुम न आए तो क्या सहर न हुई

हां मगर चैन से बसर न हुई

मेरा नाला (सोना) सुना ज़माने ने

एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई''

रिपोर्ट: पीटीआई/ओ सिंह

संपादन: ए कुमार

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