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फिर सवालों के घेरे में है नागा शांति प्रक्रिया

प्रभाकर मणि तिवारी
१२ अगस्त २०२०

पूर्वोत्तर के सबसे ज्यादा उग्रवादग्रस्त राज्य नागालैंड में बीते 23 साल से जारी शांति प्रक्रिया अपने आखिरी दौर में है. इस पर निर्णायक बातचीत के लिए एनएससीएन (आई-एम) का प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में है. लेकिन फिर भी संदेह है.

Indien Nagaland Friedensabkommen
मोदी सरकार के साथ 2015 में नागालैंड समझौते पर दस्तखत के बादतस्वीर: UNI

केंद्र सरकार ने सितंबर में इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के संकेत दिए हैं. लेकिन एनएससीएन ने शांति प्रक्रिया के मध्यस्थ और नागालैंड के राज्यपाल आरएन रवि की भूमिका पर आपत्ति जताई है और किसी अन्य को मध्यस्थ नियुक्त करने की मांग की है. ऐसे में अंतिम दौर की बातचीत का कोई ठोस नतीजा निकलने पर संदेह जताया जा रहा है. गतिरोध दूर करने के लिए केंद्र सरकार कुछ और लोगों को भी इस प्रक्रिया में शामिल करने पर विचार कर रही है. दोनों पक्षों के पैदा होने वाले गतिरोध की वजह से ही यह प्रक्रिया बार-बार पटरी से उतरती रही है.

विवाद की पृष्ठभूमि

नागालैंड देश की आजादी के बाद से ही उग्रवाद की चपेट में रहा है. यहां के ज्यादातर लोग खुद को भारत का हिस्सा नहीं मानते. उनकी दलील है कि ब्रिटिश कब्जे से पहले यह एक स्वाधीन इलाका था. अंग्रेजों की वापसी के बाद इस राज्य ने खुद को स्वाधीन घोषित कर केंद्र के खिलाफ हिंसक अभियान शुरू कर दिया था. वर्ष 1947 में देश के आजाद होने के समय नागा समुदाय के लोग असम के एक हिस्से में रहते थे.

देश आजाद होने के बाद नागा कबीलों ने संप्रभुता की मांग में आंदोलन शुरू किया था. उस दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा भी हुई थी जिससे निपटने के लिए उपद्रवग्रस्त इलाकों में सेना तैनात करनी पड़ी थी. उसके बाद वर्ष 1957 में केंद्र सरकार और नागा गुटों के बीच शांति बहाली पर आम राय बनी. इस सहमति के आधार पर असम के पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले तमाम नागा समुदायों को एक साथ लाया गया. बावजूद इसके इलाके में उग्रवादी गतिविधियां जारी रहीं. तीन साल बाद आयोजित नागा सम्मेलन में तय हुआ कि इस इलाके को भारत का हिस्सा बनना चाहिए.

नागालैंड का राजधानी कोहिमातस्वीर: Imago Images/robertharding

उसके बाद वर्ष 1963 में इसे राज्य का दर्जा मिला और अगले साल यानी 1964 में यहां पहली बार चुनाव कराए गए. लेकिन अलग राज्य बनने के बावजूद नागालैंड में उग्रवादी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया जा सका. वर्ष 1975 में तमाम उग्रवादी नेताओं ने हथियार डाल कर भारतीय संविधान के प्रति आस्था जताई. लेकिन यह शांति क्षणभंगुर ही रही. वर्ष 1980 में राज्य नें सबसे बड़े उग्रवादी गठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन) का गठन किया गया. बाद में यह दो गुटों में बंट गया.

शांति प्रक्रिया

राज्य के सबसे बड़े उग्रवादी संगठन एनएससीएन (आई-एम) और केंद्र सरकार ने ठीक 23 साल पहले वर्ष 1997 में युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ्रेमवर्क एग्रीमेंट यानी समझौते के प्रारूप पर हस्ताक्षर करने के बाद शांति प्रक्रिया के मंजिल तक पहुंचने की कुछ उम्मीद जरूर पैदा हुई थी. बावजूद उसके इस प्रक्रिया में अकसर गतिरोध पैदा होते रहे हैं.

नागा समस्या पर बातचीत के अंतिम दौर में पहुंचने के साथ ही उसके पड़ोसी राज्यों की चिंताएं बढ़ गई हैं. इसकी वजह यह है कि एनएससीएन (आई-एम) शुरू से ही असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नागा-बहुल इलाकों को मिला कर नागालिम यानी ग्रेटर नागालैंड के गठन की मांग करता रहा है. इलाके के इन राज्यों ने केंद्र से कोई भी समझौता करने से पहले बाकी राज्यों की अखंडता बरकरार रखने को कहा है.

पारंपरिक पोशाक में नागातस्वीर: Imago Images/Xinhua

ताजा गतिरोध

एनएससीएन(आई-एम) ने राज्यपाल और शांति प्रक्रिया में मध्यस्थ आरएन रवि की भूमिका पर सवाल खड़ा करते हुए उन पर इस प्रक्रिया को पटरी से उतारने का प्रयास करने का आरोप लगाया है और केंद्र से उनकी जगह कोई दूसरा मध्यस्थ नियुक्त करने की मांग की है. दरअसल, संगठन की नाराजगी बीते जून में रवि की टिप्पणियों से उपजी है. तब रवि ने राज्य सरकार को पत्र भेज कर संगठन पर अवैध गतिविधियों और वसूली में शामिल होने का आरोप लगाया था. राज्यपाल के पत्र के जबाव में ही सरकार को एक सर्कुलर निकाल कर सरकारी कर्मचारियों से यह बताने को कहा कि किसी उग्रवादी संगठन से उनके परिजनों का कोई संबंध तो नहीं है या परिवार को कोई सदस्य एनएससीएन में शामिल तो नहीं है.

शांति प्रक्रिया के तहत आखिरी दौर की बातचीत बीते साल अक्तूबर में ही खत्म होने का दावा किया गया था. लेकिन अब तक इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं हो सके हैं. दरअसल, केंद्र के तमाम दावों के बावजूद नागा संगठनों ने अब तक अलग संविधान और झंडे की मांग नहीं छोड़ी है. एनएससीएन (आई-एम) की स्टीयरिंग समिति के सदस्य वी होराम कहते हैं, "संविधान और झंडे पर फैसला होना अभी बाकी है. यह दोनों मुद्दे बेहद अहम हैं. हम वर्षों से अपने झंडे तले संघर्ष करते रहे हैं.” उनका कहना है कि फिलहाल शांति समझौते पर हस्ताक्षर की कोई समय सीमा तय करना मुश्किल है. दोनों पक्ष इसकी हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. लेकिन समाधान ऐसा होना चाहिए जो दोनों पक्षों के लिए सम्मानजनक और स्वीकार्य हो. हम कोई थोपा हुआ समझौता स्वीकार नहीं करेंगे.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीते कुछ महीनों के दौरान होने वाली घटनाओं ने दोनों पक्षों के बीच दूरियां बढ़ा दी हैं. यही वजह है कि हर बार एक नया गतिरोध पैदा हो रहा है. पूर्वोत्तर की राजनीति और उग्रवाद पर नजदीकी निगाह रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक वाई कुंजम सिंह कहते हैं, "हर दौर की बातचीत के बाद विवाद का कोई न कोई नया मुद्दा उभर जाता है. देश में इससे पहले शायद ही किसी शांति प्रक्रिया में इतना लंबा समय लगा हो. लेकिन नागा शांति प्रक्रिया में अभी कई पेंच हैं. ऐसे में बहुत जल्दी कोई समाधान सामने आने की उम्मीद कम ही है.”

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