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फुटबॉल के नाम पर खेल सकते हैं जर्मन दक्षिणपंथी

१३ नवम्बर २०११

दक्षिणपंथियों का खेलों पर कब्जा करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह एक ऐसा विषय है जो लगातार सरकारों के आगे कई सवाल खड़े करता आया है. जर्मनी में अक्सर नव नाजियों को ट्रेनर या अंपायर के रूप में देखा जाता है.

तस्वीर: picture-alliance / dpa

फुटबॉल जर्मनी का सबसे लोकप्रिय खेल है. वैसा ही जैसा भारत में क्रिकेट. नेता भी जनता का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए कई बार फुटबॉल का सहारा लेते हैं. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्कल को भी फुटबॉल वर्ल्ड कप के दौरान मैच का मजा लेते हुए देखा जाता है. ऐसे में दक्षिणपंथी भी इस खेल का फायदा उठाने से पीछे नहीं हटते. पत्रकार रॉनी ब्लाश्के ने इसी मुद्दे पर अटैक फ्रॉम द राइट विंग  नाम की एक किताब लिखी है. किताब में ब्लाश्के ने लिखा है कि किस तरह से नव नाजी फुटबॉल के खेल का गलत फायदा उठा रहे हैं.

दक्षिणपंथियों को पहचानना मुश्किल

किताब के अनुसार नव नाजियों को अब उनके दिखावे से नहीं पहचाना जा सकता. जरूरी नहीं कि नव नाजी विचारधारा वाले व्यक्ति के शरीर पर स्वास्तिक का निशान देखा जाए और या वे हिटलर के बारे में खुल कर बात करें. लेकिन ऐसे लोग चारों ओर हैं. वे फुटबॉल की कई लीगों में फैले हुए हैं, खास तौर से निचले स्तर पर. इनकी पहचान करने के लिए इनके बर्ताव पर ध्यान देना जरूरी है. रॉनी ब्लाश्के का कहना है, "नव नाजी को आप ठीक तरह पहचान नहीं सकते, लेकिन फुटबॉल के दौरान उसकी पहचान की जा सकती है."

नियो नाजीतस्वीर: AP

ऐसा इसलिए क्योंकि मैदान पर जो बातें सामान्य लगती हैं, अगर उन्हें थोड़ा करीब से देखा जाए तो उनका कुछ खास मतलब हो सकता है. जैसे कि जर्सी पर खिलाड़ी का नंबर एक संकेत हो सकता है. मिसाल के तौर पर 88. वैसे तो यह खिलाड़ी की दादी की उम्र हो सकती है या शायद उसके जन्म का साल. लेकिन इसका मतलब 'हेल हिटलर' भी हो सकता है. अंग्रेजी में 'एच' आठवां अक्षर है. 'हेल हिटलर' को छोटा कर 'एच एच' या फिर 88 लिखा जा सकता है. इसी तरह 18 का मतलब 'ए एच' यानी अडोल्फ हिटलर हो सकता है. साथ ही ट्रेनिंग के दौरान कोच खिलाड़ियों को कुछ इस तरह खड़े होने को कह सकता है कि दूर से देखने पर वह हिटलर के स्वास्तिक जैसा दिखे.

फैन क्लब्स में नस्लभेद

फुटबॉल आम लोगों को अपनी ओर खींचता है, भले ही स्थानीय टीमें हों या बड़े क्लब. क्लब केवल खिलाड़ियों के ही नहीं होते हैं, फैन्स के भी होते हैं. इन फैन क्लब्स में नव नाजियों को लोगों का ध्यान खींचने का मौका मिलता है. फुटबॉल जोश से भरा खेल है. अपने देश, राज्य या फिर क्लब से जो प्रेम मैच के दौरान दिखता है, वह शायद ही कहीं और न दिखता हो. ब्लाश्के बताते हैं, "मैंने ज्यादातर फैन्स से वैसी ही भाषा सुनी है जैसी (हिटलर की) एनपीडी पार्टी के कार्यकर्ताओं की हुआ करती थी. सम्मान, सहयोग, निष्ठा. ये ऐसी बातें हैं जो दोनों को जोड़ती हैं." इन फैन क्लब्स में नस्लवादी टिप्पणियां आम तौर पर सुनी जा सकती हैं. खेल के साथ लोगों की भावनाएं जुड़ी होती हैं और ऐसे में लोगों को फुसलाना काफी आसान हो जाता है.

तस्वीर: dapd

ब्लाश्के के अनुसार फुटबॉल के अलावा कई अन्य खेलों में भी ऐसे लोगों को देखा जा सकता है. लेकिन अन्य खेलों की तुलना में फुटबॉल सही अवसर देता है, "ऐसा बास्केटबॉल और हैंडबॉल में भी होता है, लेकिन उन खेलों में यह इस हद तक नहीं फैला हुआ है. मैंने आइस हॉकी में भी ऐसी चीजों के बारे में सुना है, लेकिन वहां यह उतना आम नहीं है."

ब्लाश्के ने अपनी किताब में ऐसे कई उदाहरण दिए हैं जिन्हें देख कर पता चलता है कि फुटबॉल और राजनीति को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. ऐसा भी नहीं है कि सरकार या फैन क्लब्स इन बातों से अनजान हैं. इन्हें रोकने के लिए कई कदम भी उठाए जा रहे हैं. मिसाल के तौर पर कोलोन शहर में एक फैन प्रोजेक्ट के तहत फैन्स के लिए खास ट्रिप्स आयोजित की जाती हैं. उन्हें संग्रहालयों में ले जाया जाता है ताकि वह इतिहास से रूबरू हो सकें और समझ सकें कि हिटलर के शासन के दौरान जर्मनी में क्या हुआ. ब्लाश्के के अनुसार यह काफी नहीं है, इस दिशा में अभी और बहुत काम करने की जरूरत है.

रिपोर्ट: ओलिविया फ्रित्ज/ ईशा भाटिया

संपादन: ओ सिंह

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