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बंद बागानों में फिर मौत की दस्तक

प्रभाकर, कोलकाता२६ नवम्बर २०१५

पश्चिम बंगाल में लंबे अरसे से बंद चाय बागानों में कुपोषण, बीमारी और भूखमरी से होने वाली मौतें अक्सर देश-विदेश में सुर्खियां बटोरती रही हैं. अब हाल के दिनों में ये बागान फिर से सुर्खियों में हैं.

Indien Teepflücker in Darjeeling
तस्वीर: DW/R. Rajpal Weiß

चुस्की लेता यूरोप

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बंद चाय बागानों में कम से कम 50 मजदूरों की मौत ने एक बार फिर लोगों का ध्यान उनकी ओर वापस खींच दिया है. बदहाली के दौर से गुजर रहे उत्तर बंगाल के चाय उद्योग से अब मजदूरों के पलायन का दौर शुरू हो गया है. बंद या बंदी की कगार पर खड़े इन बागानों के सैकड़ों मजदूर अब रोजी-रोटी की तलाश में तमिलनाडु व केरल जैसे सुदूर राज्यों में जाने लगे हैं. चाय बागानों की बदहाली और इस बारे में राज्य सरकार की उदासीनता के विरोध में 20 से ज्यादा मजदूर यूनियनों ने 27 नवंबर से चार दिवसीय भूख हड़ताल करने और एक दिसंबर को आम हड़ताल करने का फैसला किया है. मजदूर यूनियनों का आरोप है कि राज्य और केंद्र सरकारों का उदासीन रवैया ही तमाम समस्याओं की जड़ है. सीटू नेता श्यामल चक्रवर्ती कहते हैं, "अगर सरकार चाहती तो कब की यह समस्या सुलझ गई होती."

तस्वीर: DW/Prabhakar

इलाके में डंकन समूह के सभी 16 चाय बागानों में काम बंद है. मजदूरों को न तो राशन-पानी मिल रहा है, न ही मजदूरी. अकेले बागराकोट चाय बागान में इस साल सितंबर से अब तक भूख से 17 मजदूरों की मौत हो चुकी है. हाल में चाय बागान के इलाकों का दौरा करने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रबंधन को चेतावनी देते हुए कहा था कि सरकार बंद चाय बागानों का अधिग्रहण कर उसे दूसरों को सौंप देगी. लेकिन मजदूर यूनियनों का कहना है कि सरकार ने पहले रेड बैंक समूह के जिन पांच बागानों का अधिग्रहण किया था वहां भी मजदूर बदहाल ही हैं. ऐसे में इससे समस्या नहीं सुलझेगी. मजदूरों की मजदूरी का भुगतान नहीं करने के मामले में राज्य सरकार के आदेश पर डंकन समूह के खिलाफ सीआईडी जांच भी चल रही है.

तस्वीर: DW/Prabhakar

बंद चाय बागानों में रोजी-रोटी और कुपोषण की समस्या बढ़ने की वजह से बच्चों और युवतियों की तस्करी के मामले तेजी से बढ़ गए हैं. यह लोग काम की तलाश में बागानों से बाहर निकल कर दलालों के हत्थे चढ़ जाते हैं. बागराकोट चाय बागान की फूलमणि ओरांव का पति चेन्नई के एक स्कूल में झाड़ू लगाने का काम करता है जबकि 20 साल की बेटी पूर्णियां (बिहार) के एक होटल में बरतन धोती है. फूलमणि कहती है कि आर्थिक तंगी की वजह से उसके बेटे ने दो साल पहले पढ़ाई छोड़ दी थी और अब नजदीक ही ट्रकों पर नदी से पत्थर लादने का काम करता है. वह कहती है, "पति व बेटी की चिंता सताती रहती है. लेकिन हम करें भी क्या? हमारे सामने कोई और विकल्प नहीं है. यहां साथ रह कर भूखों मरने से अच्छा है कि दूर रह कर जान बची रहे." वह खुद को खुशनसीब मानती है कि उसका बेटा साथ रहता है. उस बागान की दर्जनों दूसरी महिलाएं तो अकेले रहने को अभिशप्त हैं. घर के सारे मर्द कमाने के लिए सुदूर जगहों पर चले गए हैं.

तस्वीर: DW/Prabhakar

इस बागान में डेढ़ दशक से काम करने वाली पुष्पा विश्वकर्मा कहती है, "बागान के आधे लोग नौकरी की तलाश में बागान छोड़ कर जा चुके हैं." 34 साल से इसी बागान में रहने वाली पुष्पा भी चली गई होती लेकिन उसकी स्थायी नौकरी ने उसे रोक लिया. कंपनी पर उसकी काफी रकम बकाया है. विपक्ष और मजदूर यूनियनों का आरोप है कि केंद्र व राज्य सरकार ने भी इस उद्योग और मजदूरों की बदहाली की ओर से आंखें फेर रखी हैं. कोई सहायता करना तो दूर, भुखमरी के शिकार मजदूरों की मौत को बीमारी और कुपोषण से होने वाली मौत करार दिया जाता है ताकि कोई मुआवजा नहीं देना पड़े.

तस्वीर: DW/Prabhakar

दूसरी ओर, राज्य के श्रम मंत्री मलय घटक कहते हैं, "सरकार ने इलाके के तमाम बागानों के लिए सौ करोड़ का एक कोष बनाया है. इससे मजदूरों को आवास, बिजली, पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं और स्कूल मुहैया कराए जाएंगे." उनका कहना है कि तमाम चाय मजदूरों को दो रुपए किलो चावल और तीन रुपए किलो गेहूं मुहैया कराया जा रहा है. लेकिन विपक्ष और सरकार की दलीलों की बीच बेबस मजदूर धीरे-धीरे मौत के मुंह में समाने पर मजबूर हैं. उनको अपनी जिंदगी में एक नई सुबह का इंतजार है. अब दीवार से पीठ लगने के बाद तमाम मजदूर यूनियनों ने पांच दिन की हड़ताल का फैसला किया है ताकि सरकार और बागान प्रबंधन की कुंभकर्णी नींद टूट सके.

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