दिल्ली की अदालत के बाहर जाइए तो अब भी टाइपराइटर की खटखट सुनाई दे जाती है. सड़क किनारे बैठे टाइपिस्ट आज भी यहां इस पुरानी मशीन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसे दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में भुलाया जा चुका है.
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राजबाला 1998 से दिल्ली में टाइपिस्ट का काम कर रही हैं. पिछले बीस सालों से वह लोगों के लिए एफिडेविट, प्रॉपर्टी के कागजात और अन्य कानूनी दस्तावेज टाइप कर रही हैं. सालों पहले उन्होंने एक पुरानी टाइपिंग मशीन खरीदी थी. हर दिन वे इससे तीन सौ से चार सौ रुपये कमाती हैं. राजबाला बताती हैं, "मैनुअल टाइपिंग है, भारी है, कहीं गिर भी जाए, तो कोई नुकसान नहीं होता. इसमें कोई बिजली की भी परेशानी नहीं. ना तो प्रिंटर की जरूरत पड़ती है और ना ही किसी और चीज की. सिर्फ मशीन है और टेबल है, बस."
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राजबाला का कहना है कि उन्होंने जिंदगी में बस एक ही काम सीखा है, वह है टाइपिंग और इसे वह किसी भी हाल में नहीं छोड़ेंगी. उन्होंने कहा, "देखिये, यह मेरी कमाई का जरिया है. जैसे एक बच्चे से प्यार होता है, वैसे ही इससे है. मैं जिंदगी भर टाइप करूंगी"
लेकिन इस मशीन का अंत अब नजदीक है. अब टाइपिंग सीखने में भी किसी की रुचि नहीं बची है. जैसे जैसे भारत आधुनिक हो रहा है, डिजिटल दुनिया की तरफ बढ़ रहा है, वैसे वैसे इस पुरानी तकनीक से लोग दूर होते चले जा रहे हैं.
यही वजह है कि राजेश पाल्टा जैसे लोगों की दुकानें भी अब बंद होने लगी हैं. इनका परिवार 1930 के दशक से दिल्ली में टाइपराइटर बेचता रहा है. लेकिन कंप्यूटर के आने के बाद से कारोबार मंदा हो गया और इन्हें अपनी दुकान को बचाने के लिए नयी तरकीबें सोचनी पड़ीं. राजेश कहते हैं, "मैं पिछले कुछ वक्त से बहुत परेशान था और मुझे इस कारोबार का अंत नजर आ रहा था. टाइपराइटर के ज्यादातर डीलरों ने तो अपनी दुकानें बंद कर ही दी लेकिन मैं डटा रहा क्योंकि यह मेरा पैशन है."
अलविदा टाइपराइटर
भारत में कई जगहों पर अब भी टाइपराइटर का इस्तेमाल होता है. लेकिन नए टाइपराइटों का उत्पादन बंद होने से ये खटखटाती मशीनें इतिहास का हिस्सा बन जाएंगी.
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टाइपिंग सीखने के स्कूल
1990 के दशक तक भारत में लाखों टाइपिंग स्कूल थे. इन स्कूलों के जरिये लोग टाइपराइटर चलाना सीखते थे. लेकिन 2000 के आस पास देश में तेजी से कप्यूटरीकरण होने लगा और टाइपिंग स्कूल धीरे धीरे बंद होने लगे. सन 2000 में ही स्वीडिश कंपनी फासिट और अमेरिकन कंपनी रेमिंग्टन ने भी टाइपराइटरों का उत्पादन बंद कर दिया.
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टाइपराइटर की अहमियत
कचहरी और सरकारी दफ्तरों में टाइपराइटर काफी इस्तेमाल हुए. अच्छी टाइपिंग स्पीड के चलते हजारों लोगों को नौकरियां भी मिलीं. टाइपराइटर की वजह से महिलाओं को भी नौकरी पाने में आसानी हुई. 20वीं सदी में टाइपराइटर ने भारत की जॉब मार्केट की तस्वीर बदली.
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अभी भी टाइपिंग
नई दिल्ली समेत कुछ शहरों में अब भी इक्का दुक्का टाइपिंग स्कूल हैं. ऐसे स्कूलों में बेहद कम दाम में टाइपिंग सीखी जाती है. कंप्यूटर और टाइपराइट का कीबोर्ड एक जैसा होने की वजह से भी इनकी अहमियत कुछ हद तक बची हुई है.
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समय की जंग
रेमिंग्टन और फासिट जैसी बड़ी कंपनियों के भारत से निकलने के बाद 2009 में भारतीय कंपनी गोदरेज और बॉयस ने टाइपराइटरों का उत्पादन बंद कर दिया. अब पुराने टाइपराइटरों से ही काम चलाया जा रहा है और धीरे धीरे उनकी जगह कंप्यूटर लाए जा रहे हैं.
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टाइपराइट मैकेनिकों की आखिरी पीढ़ी
भारत के कुछ शहरों में अब भी टाइपराइटर की मरम्मत करने वाले लोग मिल जाते हैं. पुराने टाइपराइटरों के पुर्जे अदला बदली कर वे इन मशीनों को ठीक करते हैं. मैकेनिक भी जानते हैं कि उनका पेशा आखिरी सांसें ले रहा है.
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अभी कहां कहां हैं टाइपराइटर
फिलहाल अदालतों और परिवहन विभाग के दफ्तरों के बाहर टाइपराइटर दिख जाते हैं. बहुत सी जगहों पर हलफनामे जैसे सरकारी दस्तावेज अब भी इन्हीं की मदद से तैयार किये जाते हैं.
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सजावट का हिस्सा
पश्चिम में टाइपराइटर अब सजावट का समान बन चुके हैं. भारत में भी ये मशीनें धीरे धीरे इतिहास का हिस्सा बनती जा रही हैं. रिपोर्ट: हेलेना काशेल/ओएसजे
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पुरानी तकनीक को बचाए रखने के लिए राजेश ने नयी तकनीक का सहारा लिया. अपने पास रखे टाइपराइटरों की कीमत का अंदाजा लगाने के लिए राजेश नियमित रूप से वेबसाइटों को देखते रहते हैं. मॉडर्न लुक वाले पोर्टेबल टाइपराइटर करीब दस हजार रुपये में बिकते हैं. राजेश के पास सौ दुर्लभ मशीनों का कलेक्शन भी है. इनमें से कुछ अस्सी साल से भी ज्यादा पुराने हैं. फिलहाल तो यही लगता है कि टाइपराइटर अब कुछ हुनरमंद लोगों के हाथ में ही बच पाएगा. इसकी मंजिल अब या तो म्यूजियम की शेल्फ हैं या फिर पुरानी चीजों का संग्रह बनाने वालों के घर.