बरसों पहले पति के घर से निकाली गई मंजीत कौर जब लुधियाना से दिल्ली आईं तो उनके साथ दो बेटे, कुछ सामान और पहाड़ जैसी जिंदगी थी. गुरुद्वारे में कुछ दिन बिताए, लेकिन सिर पर छत न होने से परेशानियों ने साथ नहीं छोड़ा.
विज्ञापन
दिल्ली में करीब 10 हजार ऐसी महिलाएं हैं जो किसी कारण अपने गांव-घर को छोड़कर आती है. उन्हें उम्मीद होती है कि यहां आकर उन्हें ठिकाना मिल जाएगा. लेकिन यह क्या इतना आसान है? शायद नहीं. दिल्ली में इन महिलाओं को जीने के लिए हर दिन लड़ना पड़ता है. शहरीकरण के विस्तार और सस्ते घरों की कमी की वजह से इन्हें ठिकाना मिलने में परेशानी बढ़ती जा रही है. पुल या फ्लाईओवर के नीचे, सड़क डिवाइडर या फुटपाथ ही इनका घर होते हैं.
मंजीत बताती हैं, ''मैं घर का किराया नहीं दे सकती. बारिश हुई तो प्लास्टिक से ढंक लिया और 45 डिग्री की गर्मी व कड़कड़ाती ठंड में खुद को सिकोड़ लिया. बरसों बीत गए, लेकिन यहां सस्ता ठिकाना नहीं मिला. यहां पुलिस आकर बार-बार तंग करती रहती है और स्थानीय लोग चिल्लाते और गालियां देते हैं. कभी-कभी रात को इतना डर लगता है कि मैं सो नहीं पाती हूं.''
जर्मनी में गरीबों का ऐसे ध्यान रखा जाता है
बेघर, खाने पीने और बच्चों की जरूरत पूरी करने के लिए पैसों की कमी. आंकड़ों को देखें तो जर्मनी में हर तीसरा व्यक्ति गरीबी से प्रभावित है. लेकिन उनके लिए कई संस्थाएं काम कर रही हैं.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
डांवाडोल भविष्य
यह फोटो जर्मन शहर ब्रेमन के सबसे गरीब समझे जाने वाले इलाके की है. इस शहर में हर पांचवें व्यक्ति पर गरीबी की तलवार लटक रही है. जर्मनी में गरीब उसे समझा जाता है जिसकी मासिक आमदनी मध्य वर्ग के लोगों की औसत आमदनी से 60 फीसदी से भी कम हो.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
भूख के खिलाफ जंग
ब्रेमन में ऐसी 30 गैर सरकारी संस्थाएं सक्रिय हैं, जिन्होंने गरीबी और भूख के खिलाफ जंग छेड़ी है. ये संस्थाएं सुपरमार्केट और बेकरियों से बचा हुआ खाना लेकर जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाती हैं. ऐसी ही एक संस्था रोज सवा सौ लोगों को खाना मुहैया कराती है.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
नस्लवाद नहीं
शहर एसेन में एक निजी संस्था ने विदेशी लोगों को मुफ्त में खाना ना देने का फैसला किया था, लेकिन कड़ी आलोचना के बाद फैसले को वापस ले लिया गया. वहीं ब्रेमन में काम करने वाली संस्थाओं का कहना है कि वे हर रंग और नस्ल के गरीब लोगों की मदद करते हैं.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
मदद को बढ़ते हाथ
अस्सी साल के वेर्नर डोजे वॉलेंटियर के तौर पर ब्रेमन टाफल नाम की संस्था के साथ काम करते हैं जो गरीबों को खाना मुहैया कराती है. कई लोग एक यूरो प्रति घंटा के हिसाब से काम करते हैं जबकि बहुत से छात्र गरीबी के खिलाफ इस जंग में वॉलेंटियर के तौर पर शामिल हैं.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
उजड़े घर
पूर्वी जर्मनी में कभी हाले शहर की रौनकें देखने वाली थीं लेकिन अब इस शहर के कई इलाके वीरान हो चुके हैं. शहर में बेरोजगारी दर बहुत ज्यादा है. ऐसे में रोजगार की तलाश यहां के लोगों को शहर छोड़ने पर मजबूर कर रही है.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
जरूरतमंदों की मदद
हाले में गरीब लोगों को कम कीमत पर खाने की चीजें और कपड़े मुहैया कराए जाते हैं. इन 'सोशल मार्केट्स' में सबसे गरीब तबके के बच्चों और लोगों को प्राथमिकता के आधार पर चीजें दी जाती हैं. लेकिन समस्या यह है कि शहर में ऐसे लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
ज्यादातर विदेशी खरीदार
कई ऐसे स्टोर हैं जहां घर की चीजें सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं. स्टोर चलाने वालों का कहना है कि उनके यहां खरीदारी करने वाले लोगों में सबसे ज्यादा विदेशी और शरणार्थी हैं. उनके मुताबिक, जर्मन लोग इस्तेमाल की हुई चीजों को खरीदने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
गरीबी में बचपन
जर्मनी में करीब दस लाख बच्चे गरीबी का शिकार हैं. ऐसे बच्चे ना तो अपना बर्थडे मनाते हैं और न ही स्पोर्ट्स क्लबों में दाखिल होते हैं. आंकड़े बताते हैं कि जर्मनी में हर सातवां बच्चा सरकार की तरफ से दी जाने वाली सरकारी सहायता का मोहताज है.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
कोई बच्चा भूखा ना रहे
शिनटे ओस्ट नाम की एक संस्था छह से 15 साल के पचास बच्चों को स्कूल के बाद खाना मुहैया कराती है. संस्था की निदेशक बेटिना शापर कहती हैं कि कई बच्चे ऐसे हैं जिन्हें एक वक्त का भी गरम खाना नसीब नहीं होता. यह संस्था चाहती है कि कोई भी बच्चा भूखा ना रहे.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
हम एक परिवार हैं
बेटिना शापर कहती हैं कि जरूरतमंद बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनमें शरणार्थी बच्चों की बड़ी संख्या है. उनकी संस्था बच्चों को खाना मुहैया कराने के अलावा उन्हें होमवर्क और दूसरे कामों में भी मदद करती है. बच्चों को दांत साफ करने का सही तरीका भी सिखाया जाता है.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
बढ़ता अकेलापन
एक आंकड़े के मुताबिक जर्मनी की राजधानी बर्लिन में लगभग छह हजार लोग सड़कों पर सोने को मजबूर हैं. बर्लिन के बेघरों में 60 फीसदी विदेशी लोग हैं और इनमें से ज्यातार पूर्वी यूरोप के देशों से संबंध रखते हैं.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
सपने चकनाचूर
एक हादसे में अपनी एक टांग गंवाने वाले योर्ग छह साल से बेघर हैं. वह कहते हैं कि बर्लिन में बेघरों की तादाद बढ़ने के साथ साथ उनमें आपस में टकराव भी बढ़ रहा है. निर्माण के क्षेत्र में काम कर चुके योर्ग की तमन्ना है कि वह फिर से ड्रम बजाने के काबिल हो पाएं.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
12 तस्वीरें1 | 12
हाइसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क के लिए काम करने वाली शिवानी चौधरी कहती हैं कि बेघर महिलाओं की स्थिति इसलिए बद्तर है क्योंकि उन्हें सड़कों पर कई बार बेइज्जत किया जाता है. कई महिलाएं यौन शोषण और हिंसा, तस्करी आदि की शिकार हो जाती हैं.
भारत की स्थिति इसलिए चुनौतीपूर्ण है क्योंकि 2024 तक चीन की आबादी को पीछे छोड़ने का अनुमान लगाया जा रहा है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, दिल्ली में 1.6 करोड़ की आबादी रहती है जिसमें से 46,724 लोग बेघर हैं. भारत में बेघरों की आबादी का 10 फीसदी हिस्सा महिलाओं का है. हालांकि बेघरों के लिए काम करने वाले संगठन इसे तीन गुना बताते हैं. वे 2011 की जनगणना पर भी सवाल उठाते है जिसमें बेघरों की आबादी के 19 लाख से 17 लाख तक घटने की बात कही गई थी.
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी एंड रिसर्च से जुड़े अश्विन पारुलकर के मुताबिक, ''हमारे शहर तेजी से विकसित हो रहे हैं. सरकार पर दबाव है कि लोगों और बेघरों की जरूरतों को पूरा किया जाए. बेघरों का सही आंकड़ा न मिलने से योजना बनाने में मुश्किलें आती हैं.''
भारत सरकार का लक्ष्य है कि 2022 तक 2 करोड़ घर शहरी इलाकों में बनाए जाए. विश्लेषकों का कहना है कि इस योजना के लिए बेघरों को गिना ही नहीं गया है. सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को आदेश दिया है कि 1 लाख की आबादी वाले इलाकों में कम से कम एक शेल्टर बनाया जाए जो 24 घंटे खुला रहे. इसे कुछ राज्यों ने ही लागू किया है. ऐसे में बेघर कहां जाएं?
दिल्ली के शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के अधिकारी बिपिन राय बताते हैं, ''हमारी योजना शेल्टर बनाकर बेघरों को बुनियादी सुविधाएं और कामकाज देना है, लेकिन दिक्कत जमीन की कमी की है. इसलिए हमें अस्थायी शेल्टर बनाकर ही लोगों को रखना पड़ रहा है.'' दिल्ली समेत अन्य बड़े शहरों में बेघरों की बढ़ती आबादी सरकार के लिए चुनौती बन गई है. इससे कानूनी व्यवस्था को खतरा बना रहता है.
वीसी/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
बेघर लोगों का गांव
बेघर लोगों का गांव
जिन लोगों के पास घर और स्थायी पता नहीं होता, वो अपनी जिंदगी कैसे संवारें? इसी सवाल के साथ जबाव खोजते हुए स्कॉटलैंड में बेघर लोगों के लिए एक गांव बसाया गया है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Buchanan
मिल गई छत
यह है "सोशल बाइट विलेज" नाम का स्कॉटिश गांव. बेघर लोग यहां रह सकते हैं, खाना पीना खा सकते हैं. बेघर लोगों के हकों की आवाज बुलंद करने वाले लोग खाने पीने का खर्च उठाते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Buchanan
डेढ़ साल तक टेंशन फ्री
12 से 18 महीने तक बेघर लोग इन घरों में मुफ्त में रह सकते हैं. इस दौरान संस्था उनके लिए नौकरी और नया घर खोजने की कोशिश करती है. सोशल बाइट विलेज एडिनबरा शहर में है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Buchanan
हर तरह की सुविधा
हर घर में एक बेडरूम, ओपन किचन और बाथरूम है. किचन में सारे बर्तन और औजार मौजूद हैं. मनोरंजन के लिए एक टेलिविजन भी है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Buchanan
लकड़ी के घर
सारे मकान टिकाऊ ढंग से उगाए गए जंगल की लकड़ी से बने हैं. बाहरी दीवारें 25 सेंटीमीटर मोटी हैं. घर सर्दियों में गुनगुने और गर्मियों में ठंडे रहते हैं
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Buchanan
सुकून भरा कोना
बेडरूम बहुत बड़ा नहीं है लेकिन आरामदायक है. मकानों को इस ढंग से बनाया गया है कि ज्यादा से ज्यादा जगह बचाई जा सके.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Buchanan
मानवीय मदद
सोशल बाइट का मकसद बेघर लोगों को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करना है. 18 महीने तक यहां रहने के दौरान बेघर लोगों की छत की चिंता दूर हो जाती है. फाउंडेशन के कर्मचारी सोनी मरे (बाएं) कॉलिन चाइल्ड्स (दाएं) भी कभी बेघर थे.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Buchanan
सामाजिक पहल के जनक
सोशल बाइट विलेज प्रोजेक्ट के लिए पहल करने वालों में जोश लिटिल जॉन की अहम भूमिका है. वह मानते हैं कि गरीबी से घिरे इंसान में भी प्रतिभा होती है, उसे बस सहारे की जरूरत पड़ती है. लिटिल जॉन इस प्रोजेक्ट को दुनिया भर के शहरों में फैलाना चाहते हैं.