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बढ़ रहे हैं दलितों पर अत्याचार के मामले

शिवप्रसाद जोशी
११ अक्टूबर २०१६

भारत में दलित चेतना के नवउभार के बीच दलितों पर अत्याचार के आंकड़े भी भयावह तेजी से बढ़े हैं. बात सिर्फ प्रगति और जागरूकता की होती तो दलितों के खिलाफ हिंसा का ग्राफ कम होना चाहिए था, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.

Indien Proteste gegen Benachteiligung von niedrigen Kasten
तस्वीर: Reuters/A. Dave

दलितों में जागृति आ ही रही है कि नये हमले भी आ गए हैं और इनका स्वरूप और विकृत और बर्बर हुआ है. क्योंकि भारत कितनी भी आर्थिक तरक्की कर ले, पढ़ा लिखा होने का जश्न मना ले फिर भी यहां का समाज वैचारिक तौर पर अभी भी रूढ़िवादी जकड़नों से बाहर नहीं निकल पाया है और यहां की सवर्णवादी संरचना में जातिवादी दुराग्रह और वर्चस्ववादी पूर्वाग्रह धंसे हुए हैं. लोकतंत्र समानता आधारित समाज के निर्माण का सबसे कारगर रास्ता है लेकिन ये रास्ता दलितों के लिए बंद सा दिखता है. सबके हक की बात कहकर सत्ता वर्ग अपने हितों का ही पोषण करता जाता है और इन्हीं हितों में ब्राह्मणवादी रवैया भी आता है. जाहिर है लोकतंत्र को चुनावी राजनीति के तौर पर तो बरत लिया गया, लेकिन उसकी आत्मा को कभी अंगीकार नहीं किया गया. लोकतंत्र उसी वर्चस्ववादी समाज के खूंटे से बंधी गाय सरीखा बना रहा.
उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में पिछले सप्ताह एक दलित का गला काट देने वाला अध्यापक उसी कट्टर समाज का प्रतिनिधि है. वह एक चक्की से गेहूं पिसाने के लिए गया था जिस चक्की को एक दलित ने छू दिया और उस वर्णवादी श्रेष्ठता के सामने आ खड़ा हुआ था जो उस अध्यापक को विरासत में मिले थे. एक तरह की ये ऑनर किलिंग उत्तराखंड से लेकर तमिलनाडु तक फैली हुई है जहां पिछले दिनों एक कस्बे में एक दलित युवा को सरेराह दिनदिहाड़े इसलिए पीट पीटकर मारा डाला गया क्योंकि उसने उच्च जाति की एक लड़की से प्रेम करने का दुस्साहस किया था. हरियाणा, बिहार, राजस्थान, आंध्र प्रदेश- ऐसी घटनाएं किसी भी राज्य में कहीं भी हो जाती है. गुजरात के ऊना में दलित पहले गाय को मारने के लिए मारे जाते हैं फिर जब वे प्रतिरोध कर मरी गाय को उठाने से मना कर देते हैं तो उन्हें फिर मारा जाता है. दलित स्त्रियों पर अत्याचार की हिला देने वाली दास्तानों से ये समाज भरा पड़ा है.

कारोबार पर ध्यानतस्वीर: Dalit Foods

कहा जाता था कि औद्योगीकरण और शहरीकरण के साथ आधुनिक मूल्यों का प्रसार होगा लेकिन ये सिद्धांत भारत के संदर्भ में नाकाम रहा. इसी अर्बन स्फीयर में दलित छात्रों की आत्महत्याओं के मामले नोटिस में आ रहे हैं. 2007 से अब तक उत्तर भारत और हैदराबाद में आत्महत्या करने वाले 25 छात्रों में से 23 दलित थे. इनमें से दो एम्स में और 11 तो सिर्फ हैदराबाद शहर में थे. उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में दलितों के खिलाफ सबसे ज्यादा आपराधिक मामले प्रकाश में आए हैं. दक्षिण भारत में अविभाजित आंध्र प्रदेश का नंबर पहले आता है.

इंडिया टुडे पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक हर 18 मिनट पर एक दलित के खिलाफ अपराध घटित होता है. औसतन हर रोज तीन दलित महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं, दो दलित मारे जाते हैं, और दो दलित घरों को जला दिया जाता है. 37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे रहते है, 54 फीसदी कुपोषित है, प्रति एक हजार दलित परिवारों में 83 बच्चे जन्म के एक साल के भीतर मर जाते हैं. यही नहीं 45 फीसदी बच्चे निरक्षर रह जाते हैं. करीब 40 फीसदी सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को कतार से अलग बैठकर खाना पड़ता है, 48 फीसदी गांवों में पानी के स्रोतों पर जाने की दलितों को मनाही है.

मुद्दों को लोगों तक पहुंचाने की कोशिशतस्वीर: DW/A. Andre


कानून कड़े कर दिए गए. दिसंबर 2015 में एससीएसटी संशोधन बिल भी पास हो गया लेकिन आर्थिक तरक्की में भी दलितों की भागीदारी बढ़ानी होगी. आर्थिक उदारवाद के हाशियों में ही वृहद दलित समाज रहा है. आरक्षण से कुछ सशक्तिकरण आया है लेकिन इस सशक्तिकरण के विपरीत दलितों पर बैकलैश की घटनाएं भी बढ़ी है. आरक्षण और संविधान द्वारा प्रदत अधिकारों ने दलितों के प्रति सवर्णों के एक हिस्से के जेहन में नफरत भी भर दी है जिन्हें लगता है कि दलित उनके अवसरों को हथिया रहे हैं.

ऐसी स्थिति में सरकारों का यह कर्तव्य है कि वह रोजगार और वृद्धि के अवसरों पर प्रकट तौर पर दिखते इन कथित असंतुलनों को दूर करे. कानून और संविधान एक दायरे में ही अपना काम कर सकते हैं, समाज में ही आंदोलन उभरेंगे तो शायद बदलाव संभव है. जागते हुए को आखिर कब तक पीछे धकेलेंगे. अगर दलित जाग रहा है तो सवर्ण को उन कारणों की छानबीन कर उनका समाधान निकालने में आगे आना चाहिए जिनसे अलगाव और अपराध बढ़ते हैं. जितना ये समाज दलितों से दूर जाएगा उतना ही अपने लिए अंधकार बढ़ाएगा.    

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