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बदलता रहा संगीत

१५ अप्रैल २०१३

भारतीय सिनेमा के संगीत ने हर दशक में प्रयोग किए है. इनमें कुछ प्रयोगों ने 'प्यार हुआ इकरार हुआ' जैसे गाने दिए तो कुछ ने 'जुम्मा चुम्मा' जैसे आइटम नंबरों को जन्म दिया.

तस्वीर: rockstar

फिल्मी संगीत का शुरुआती समय यानी चालीस का दशक वह था जब विश्व युद्ध और फिर देश की आजादी के बाद बंटवारे के बीच घिरे भारत के माहौल ने संगीत को भी प्रभावित किया. ज्यादातर गाने दो अर्थों से लिखे गए. जहां उनमें प्रेमी प्रेमिका के बीच रोमांस या विरह की पीड़ा होती, वहीं बंटवारे के दर्द से गुजर रहे लोगों की भावनाएं भी थीं. आजादी के पास का काल वह था जब पंजाबी संगीतकारों का बोलबाला बढ़ा. गुलाम हैदर, जीएम चिश्ती और पंडित अमरनाथ के साथ गानों में ढोलक का इस्तेमाल होने लगा.

सबसे पुख्ता दौर

भरतीय फिल्म संगीतकार और स्वतंत्र संगीत समूह 'चार यार' के प्रमुख मदन गोपाल सिंह ने कहा, "चालीस से पचास का दशक हिन्दी सिनेमा के संगीत के लिए सुनहरा समय था. इस समय रिकॉर्डिंग और तकनीक के मामले में संगीत ने जोर पकड़ा. ढोलक की थाप को गिटार के साज के साथ मिलाया गया. तरह तरह के प्रयोग किए गए. इस दौर में जिया बेकरार है में लता की आवाज में नूर जहां का प्रभाव भी दिखता है."

तस्वीर: imago stock&people

इस समय जिन संगीतकारों ने संगीत को आधुनिक शक्ल दी, वो थे नौशाद, एसडी बर्मन और शंकर जयकिशन. खास कर देव आनंद की फिल्मों के उनके मशहूर गाने हों या फिर गुरुदत्त की प्यासा के गाने जिनमें गिटार और बेस की ध्वनि पर शब्द लयबद्ध हुए. फिर वह ‘दुनिया अगर मिल भी जाए' हो या ‘वक्त ने किया'. इन गानों में धुन के साथ साथ शब्दों का बहुत महत्व हुआ करता था. फिल्म मुगले आजम में नौशाद ने जिस तरह ऑर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया वह भव्यता का अहसास कराता था.

ढलान का समय

अगला दौर था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जैसे संगीतकारों के प्रयोगों का. सिंह मानते हैं कि इन प्रयोगों के बावजूद भी इन गानों में 40 के दशक वाली बात नहीं थी क्योंकि इस समय शायरी कमजोर पड़ चुकी थी. उनका मानना है कि गुलजार के अलावा कोई और कवि इस दौर में ऐसे नहीं थे जो समय की नब्ज पकड़ पाए.

हालांकि जब कभी भी भारतीय संगीत में प्रयोग की बात होती है, तो आरडी बर्मन का नाम सबसे पहले दिमाग में आता है. उन्हें काफी हद तक भारतीय फिल्मों में यूरोपीय संगीत की झलक का श्रेय जाता है. उनके अलावा सिंह मानते हैं कि 70 और 80 का दशक हिन्दी सिनेमा के संगीत के पतन का समय था जब ‘एक दो तीन' और ‘जुम्मा चुम्मा' जैसे गानों के साथ नई तरकीबें तो इस्तेमाल की जा रही थीं लेकिन वे मिठास से दूर होती जा रहे थीं. इस समय के संगीत ने भारतीय सामाजिक और राजनैतिक हालात को भी पूर्व की तरह संबोधित नहीं किया. लोग उस समय तो इन गानों पर थिरके लेकिन उनमें याद्दाश्त के साथ जुड़ने जैसा कुछ नहीं मिला.

मशहूर गीतकार प्रसून जोशी ने कहा, "प्रयोग तभी सफल होते हैं दब आप दिल की आवाज सुनते हैं." जोशी मानते हैं भारत के पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ विदेशी यंत्रों का जिस तरह मिला जुला इस्तेमाल भारत में होता है वह कहीं और नहीं होता. लेकिन ये प्रयोग जब सिर्फ दबाव में आकर या बाजार की मांग पर होते हैं तो कामयाब संगीत नहीं दे पाते.

तस्वीर: DW/W. Hasrat-Nazimi

90 के दशक की शुरुआत तक गानों के मामले में भारतीय सिनेमा अजीबो गरीब द्वंद्व के दौर से गुजर रहा था, जिसमें प्रयोग तो हो रहे थे लेकिन प्रयोगों के चक्कर में साज मर रहा था. प्रसून जोशी ने कहा, "लंबे इंतजार के बाद सिनेमा को मणिरत्नम की फिल्म रोजा के साथ एक और हुनरमंद संगीतकार जो मिला वह है एआर रहमान. रहमान ने जैज जैसी यूरोपीय संगीत शैलियों को भारतीय संगीत में बड़ी सहजता से पिरो दिया." मानव ध्वनियों को गीत में बीच बीच में वाद्य दंत्रों की जगह इस्तेमाल करने वाले भी रहमान ही थे.

कठिन रास्ता

आधुनिक संगीतकारों के नाम लें तो एक तरफ देव डी और गुलाल दैसी फिल्मों का लीग से हटकर संगीत देने वाले अमित त्रिवेदी का नाम दिमाग में आता है तो दूसरी तरफ स्नेहा खानवलकर का, जिन्होंने गांव के घरों में गूंजने वाले गानों को गैंग्स आफ वासेपुर के लिए आधुनिक रूप में पेश कर कामयाब प्रयोग का प्रदर्शन किया. लेकिन परिवर्तन को समझना और अपनाना आसान नहीं. त्रिवेदी ने बताया कि गाने हिट हो जाने के बाद भले ही लोग उनकी वाहवाही करते हों लेकिन रिलीज से पहले निर्माता निर्देशकों को इस तरह के अलग थलग संगीत के लिए राजी करना आसान नहीं होता. यह एक बेहद कठिन रास्ता है.

उन्होंने कहा कि कुछ तो बदलते समाज के साथ संगीत बदलता है तो कुछ बदलते संगीत के साथ समाज की पसंद बदलती है. लेकिन सच्चा कलाकार वही करता है, जो उसका दिल कहता है. उनके अनुसार इस समय दुनिया भर के संगीत को सुनने तक हर किसी की पहुंच है, तकनीक ने आसमान की ऊंचाइयां छू रखी हैं और लोग प्रयोगों के लिए, कुछ नया सुनने के लिए तैयार हैं. ऐसे में यह भारतीय फिल्म संगीत का सबसे रोचक दौर है.

तस्वीर: AP

भारतीय फिल्म संगीतकार मदन गोपाल सिंह ने डॉयचे वेले से कहा, "भारतीय फिल्मी संगीत के इतिहास में आजादी के पहले पहले के संगीतकारों में कई पाकिस्तानी कलाकार भी शामिल थे, जो पुराने संगीत के घरानों से ताल्लुक रखते थे. उनके संगीत में उर्दू का खासा प्रभाव दिखता था. वर्तमान समय में एक बार फिर राहत फतेह अली खान और शफकत अमानत अली जैसे कलाकारों के हिन्दी सिनेमा के साथ जुड़ने से संगीत में एक बार फिर उर्दू भाषी और उन घरानों से संबंध रखने वाले कलाकार मिले हैं. इससे यहां के संगीत ने एक तरह की करवट ली है."

भारतीय गाने भारत ही नहीं विश्व भर में शौक से सुने जाते हैं. उनका सोंधापन कल भी था और आज भी है. उनमें तरह तरह की भाषाओं और तरह तरह की धुनों के मिलन का जादू कल भी था और आज भी है.

रिपोर्टः समरा फातिमा

संपादनः अनवर जे अशरफ

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