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बनते बनते क्या उलझ गई चीन अमेरिका की बात

राहुल मिश्र
२५ मार्च २०२२

यूक्रेन युद्ध के बीच अमेरिका को चीन से बात करने की अचानक जरूरत क्यों पड़ी? क्या बाइडेन ने जिनपिंग को धमकाने के लिए यह बातचीत रखी थी या फिर चीन ही अमेरिका को कुछ समझाना चाहता था. दोनों का ध्यान अपनी ही चिंताओं पर था.

जो बाइडेन और शी जिनपिंग की बातचीत से क्या हासिल हुआ
जो बाइडेन और शी जिनपिंग की बातचीत से क्या हासिल हुआतस्वीर: Liu Bin/Xinhua/dpa/picture alliance

18 मार्च को अमेरिका और चीन के राष्ट्रपतियों की वीडियो कॉल के जरिए एक बातचीत हुई. दोनों राष्ट्राध्यक्षों के बीच छह महीने के भीतर यह दूसरी बातचीत थी. चीन के अधिकारिक बयान की मानें तो शी जिनपिंग से बातचीत की पेशकश अमेरिका की तरफ से हुई थी वहीं अमेरिका के अनुसार शिखर वार्ता की जरूरत पर आपसी सहमति एक हफ्ते पहले रोम में हुई बैठक में बनी.

सच्चाई जो हो लेकिन इस बैठक की तैयारियों के मद्देनजर अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सलीवान और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य और विदेश मामलों के आयोग के महानिदेशक यांग जेइची के बीच बातचीत से एक हफ्ते पहले इटली के रोम शहर में हुई बातचीत महत्वपूर्ण है. हालांकि बातचीत कौन करना चाहता था इसके अलावा चर्चा के मुद्दों को लेकर भी दोनों ने अलग बयान दिए हैं. 

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चीनी सरकार के अनुसार बाइडेन ने चीन को पचास साल पहले जारी हुए शंघाई कम्यूनिक (शासकीय सूचना) की याद दिलाई और यह कहा कि "अमेरिका चीन से कोई शीत युद्ध नहीं चाहता, ना वह चीनी शासन व्यवस्था को बदलना चाहता है, उसके सैन्य गठबंधन चीन के खिलाफ नहीं हैं, अमेरिका ताइवान की स्वतंत्रता का पक्षधर नहीं है, और ना ही वह चीन से किसी हिंसक झगड़े की इच्छा रखता है."

युूक्रेन युद्ध के बीच ही दोनों नेताओं ने आपस में बातचीत कीतस्वीर: Susan Walsh/AP/picture alliance

हैरानी यह है कि इनमें से अधिकांश बातें अमेरिकी प्रेस रिलीज में देखने को नहीं मिलीं. उलटे अगर अमेरिकी मीडिया की सुनें तो ऐसा लगता है कि बाइडेन साहब ने बैठक में चीन को ही धमका दिया.

जहां तक शी जिनपिंग के दृष्टिकोण का सवाल है तो उसके मुताबिक पिछले नवंबर में हुई पहली वर्चुअल बैठक से मार्च में हुई दूसरी मुलाकात के बीच विश्व व्यवस्था में बड़े परिवर्तन आये हैं. शांति और विकास के रास्ते में अड़चनें आ रही हैं जिनसे निपटने के लिए चीन और अमेरिका को मिलकर काम करना होगा.

मतभेद के बीच से रास्ता

आपसी सहयोग की तमाम बातों पर जोर देने के साथ ही शी जिनपिंग ने यह भी कहा कि ऐसा नहीं है कि चीन और अमेरिका में मतभेद नहीं हैं. उन्होंने कहा कि चीन और अमेरिका में मतभेद थे और आगे भी होंगे.

बकौल जिनपिंग इसमें कोई बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात यह है कि अमेरिका और चीन इन मतभेदों को काबू में रखें और साथ मिलकर संबंधों को आगे बढ़ाते रहें. चीन ने यह चिंता भी जताई कि चीन और अमेरिका के बीच "वन चाइना पालिसी" को लेकर बरसों से चले समझौते को अमेरिकी प्रशासन में बैठे चंद लोग ध्वस्त करने की फिराक में हैं जो गलत है.

यूक्रेन के मुद्दे पर भी शी जिनपिंग ने चिंता जताई और कहा कि परिस्थितियों का इस स्तर पर पहुंचना अच्छा नहीं है. अपने बयान में उन्होंने चीन के यूक्रेन की समस्या से निपटने के लिए सुझाये छह-सूत्रीय कार्यक्रम का जिक्र भी किया.

जो बाइडेन और शी जिनपिंगतस्वीर: Rod Lamkey/CNP/picture alliance--Shen Hong/picture alliance/Xinhua

चीन का मानना है कि अमेरिका और नाटो के दूसरे देशों को रूस और यूक्रेन दोनों से बात करनी चाहिए और मिलजुल कर समस्या का समाधान निकालने की कोशिश करनी चाहिए.

अब जरा अमेरिकी बयान का हाल देखिए. इसके अनुसार राष्ट्रपति बाइडेन ने यूक्रेन मसले पर चीन को कड़ी चेतावनी देते हुए कहा कि अगर चीन रूस को यूक्रेन के साथ लड़ाई में किसी भी प्रकार की सहायता करता है तो यह अमेरिका-चीन के संबंधों के लिए घातक होगा. चीन की अंतरराष्ट्रीय समुदाय में छवि और संबंधों के लिए भी यह ठीक नहीं होगा. मतलब यह कि अमेरिका ने साफ तौर पर चीन को चेतावनी दे दी कि वह रूस की सहायता ना करे.

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क्या थी अमेरिका की मंशा?

अमेरिका और चीन के बीच हुई इस बातचीत ने कम से कम यह जता दिया है कि आपसी मतभेदों के बावजूद अमेरिका को इस बात का एहसास है कि चीन की रूस से नजदीकियां उसकी अपनी साख के लिए ठीक नहीं हैं.

पिछले साल नवंबर से ही बाइडेन सरकार को यह एहसास हो चला है कि चीन के साथ खुलेआम व्यापार युद्ध और कूटनीतिक रस्साकसी से कुछ खास हासिल नहीं हो रहा है. रूस के यूक्रेन पर हमले के बीच जब यह खबरें आनी शुरू हुईं कि चीन रूस को कूटनीतिक और सैन्य दोनों मोर्चों पर मदद कर सकता है. शायद इससे बाइडेन सरकार के होश उड़ गए. यही वजह है कि दोनों राष्ट्राध्यक्षों के बीच यह बैठक हुई.

बाइडेन प्रशासन को अच्छी तरह मालूम है कि उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती चीन है, रूस नहीं. रूस पर सख्त रवैये और तमाम आर्थिक प्रतिबंधों की कवायद के बावजूद अमेरिका रूस के यूक्रेन पर हमले को विश्व व्यवस्था पर अपने दबदबे के लिए चुनौती नहीं मानता. चीन को लेकर ऐसी बात नहीं है.

चीन चाहता है कि अमेरिका ताइवान को बीच में ना घसीटेतस्वीर: Huang Jingwen/Xinhua/picture alliance

दोनों देशों के बीच प्रतिस्पर्धा सामरिक के साथ-साथ आर्थिक और विश्व व्यापार के क्षेत्र में भी है. सामरिक नजरिये से सोचा जाय तो शायद अमेरिका की कोशिश और उम्मीद यही है कि चीन और रूस के बीच उसके खिलाफ खुले तौर पर कोई मोर्चा ना बन पाए. इन दोनों ताकतों के एक साथ ना आने देने की कोशिश में अमेरिका चीन से वार्ताओं के और दौर चलाएगा.

चीन इस बातचीत से क्या हासिल करना चाहता था?

चीन भी जानता है कि पीठ पीछे वह भले रूस का साथ दे या अमेरिका से होड़ लगाए लेकिन आमने-सामने खड़े हो कर चुनौती देने के लिए वह भी अभी तैयार नहीं है. ऐसे में अगर रूस के बहाने अमेरिका से रिश्ते सुधारने का कोई मौका मिल रहा है तो चीन उसे छोड़ेगा नहीं. 

यूक्रेन के मसले में वैसे भी चीन की भूमिका कूटनीतिक स्तर पर ज्यादा है, सैन्य स्तर पर फिलहाल काफी कम. अमेरिका की तरह चीन भी नहीं चाहता कि शीत युद्ध जैसी स्थिति तुरंत सामने आये.

अमेरिका से रूस-यूक्रेन मुद्दे पर बातचीत के जरिये चीन यह संदेश देने में तो सफल हुआ ही है कि बिना उसके सहयोग के अमेरिका और पश्चिमी देश रूस से निपटने में कारगर नहीं होंगे. अमेरिका का यह संशय चीन के लिए नयी संभावनाएं पैदा करता है.

जो बाइडेन चाहते हैं कि यूक्रेन युद्ध में चीन रूस की सहायता करेतस्वीर: The White House/AP/picture alliance

शिखर वार्ता के बाद जारी हुए आधिकारिक वक्तव्यों में यह बात तो स्पष्ट है कि ताइवान के मुद्दे पर चीन और अमेरिका के बीच बात हुई. आगे आने वाले समय में अगर चीन अमेरिका के कहे अनुसार चलता है तो संभवतः अमेरिका की ताइवान नीति में भी कुछ नरमी आएगी.

इस बारे में पहला स्पष्ट रुझान तो यही है कि ताइवान को लेकर चीन की चिंताओं को बाइडेन प्रशासन ने सुना भी, समझा भी, और उस पर बाद में उस पर सुलझे और सकारात्मक बयान भी दिए.

चीन क्या अब पश्चिमी देशों के निशाने पर नहीं रहेगा?

इन तमाम बातों का मतलब यह कतई नहीं है कि चीन पश्चिमी हमले का लक्ष्य नहीं रहेगा. चीन भी इस बात से वाकिफ है.

वर्तमान परिस्थितियों में चीन और अमेरिका दोनों चाहेंगे कि एक दूसरे से संवादहीनता बनाये रखने के बजाय बातचीत जारी रखी जाय और तात्कालिक महत्त्व के मुद्दों से पहले निपट लिया जाय. इसमें फायदा शायद दोनों पक्षों का है. निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि आगे आने वाले महीनों में चीन और अमेरिका की उच्चस्तरीय बैठकों और शिखर वार्ता के दौर और चलेंगे.

रूस के यूक्रेन पर हमले से उपजी चुनौतियों ने चीन और अमेरिका के बीच इन उच्चस्तरीय वार्ताओं को एक आवश्यक आवश्यकता बना दिया है.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)

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