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बनी रहेगी पारंपरिक किताबों की अहमियत

अनवर जे अशरफ़, नई दिल्ली (संपादनः ए कुमार) ७ फ़रवरी २०१०

रविवार को दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला समाप्त हो गया लेकिन इस बात का भरोसा दे गया कि तकनीक कितनी भी आगे बढ़ गई हो, ई बुक्स भले अपनी पहचान बनी रही हों लेकिन परंपरागत किताबों की जगह बनी रहेगी.

तस्वीर: DW

नौ दिनों तक दिल्ली के प्रगति मैदान में किताबों से घिरे रहने के बाद यह सोच पाना मुश्किल है कि अब किताबों के बिना कैसा लगेगा. विशालकाय विश्व पुस्तक मेले में एक हज़ार से ज़्यादा कंपनियों की मौजूदगी और ऊंची ऊंची अलमारियों में भरी लाखों किताबें. मेले से तसल्ली इस बात की मिली कि इंटरनेट और दूसरे माध्यमों के आने के बाद भी साधारण किताबों की अहमियत बनी हुई है.

पाकिस्तानी स्टॉल पर दिखी ख़ूब भीड़तस्वीर: AP

पाकिस्तान से मेले में शिरकत करने आए इरशाद उल मुजीब शेख़ का कहना है, "किताबें अब इंटरनेट पर भी मिलने लगी हैं, लेकिन मैं नहीं समझता कि इससे किताब उद्योग पर ज़्यादा असर पडा है. इस तरह के मेलों में बड़ा मौक़ा मिला है. हर किसी को अपनी पसंद के मुताबिक़ किताबें मिल जाती हैं."

वैसे किताबों के पन्नों की सोंधी महक के बीच ई बुक्स पर भी ख़ूब चर्चा हुई, स्टॉल लगे और दर्शकों की भीड़ टूटी. लोग उस कंप्यूटरनुमा किताब को देखने उमड़ पड़े, जो एक साथ दर्जनों किताबें रख सकती है और जो आने वाले समय में किताबों को एक नया आयाम दे सकती है. चर्चित लेखक चेतन भगत भी आम किताबों के साथ ई बुक्स को ज़रूरी मानते हैं. वह कहते हैं, "ई बुक भी आएंगी, इंटरनेट बुक भी आएंगी, लेकिन किताबें अपनी जगह बनी रहेंगी. इंटरनेट एक उपोयगी माध्यम है जिसका सहारा मैं भी अपनी किताबों के प्रचार के लिए लेता हूं."

नौ दिन तक चला दिल्ली का पुस्तक मेलातस्वीर: DW

विश्व पुस्तक मेला साबित करता है कि किताबें ख़रीदने और पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी है. मेले के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट के मुताबिक़ नौ दिनों के मेले में उम्मीद से कहीं ज़्यादा लोगों की भागीदारी हुई और जम कर कारोबार हुआ. मेले के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट की निदेशक नुज़हत हुसैन कहती हैं, "आयोजन बेहद सफल रहा, बहुत सारे लोग आए. दिल्ली का पुस्तक मेला न सिर्फ़ लोगों के दिलों में बल्कि उद्योग में भी अपनी ख़ास जगह बना चुका है."

वैसे ई बुक्स को आम आदमी तक पहुंचने में ज़रा वक्त लगेगा क्योंकि मामूली ई बुक भी पचास से साठ हज़ार रुपये में मिलती है. दिल्ली का प्रगति मैदान अभी किताबों को अलविदा कह रहा है लेकिन प्रकाशकों से लेकर दर्शकों तक को पता है कि यह मेला लौट कर आएगा और किताब चाहने वाले भी लौटेंगे.

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