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बर्लिन की दीवार क्यों उठी और फिर अचानक गिर गई

महेश झा
६ नवम्बर २०१९

जिस सफाई से उसे बनाया गया था उसी सफाई से उसमें सेंध लग गई. दीवार ने लोगों को एक ही शहर के दो हिस्सों में आने जाने से रोक रखा था.

BdT Berlin Brandenburger Tor bei Nacht
तस्वीर: Reuters/F. Bensch

तीस साल बीत गए. बर्लिन की दीवार एक दिन अचानक गिर गई. उस ऐतिहासिक दिन का एक गवाह मैं भी हूं. कभी मैं दीवार से कुछ सौ मीटर की दूरी पर रहता था, उसे रोज देखता था, अजेय समझता था, लेकिन जब उसके गिरने का क्षण आया तो किसी को इस बात का अंदाजा नहीं था कि ऐसा कुछ हो भी सकता है और वह भी इतने शांतिपूर्ण तरीके से.

उस शाम लोगों को दीवार पार करने की इजाजत मिल गई. बर्लिन दीवार का खुलना, उसका गिरना बन गया. उसकी पहरेदारी करने वाले लोग बस एक आदेश से गेटकीपर बन गए, जैसे कि उन्हें भी इसी दिन का इंतजार रहा हो और वे भी दीवार गिरने और आजाद महसूस करने के लिए तड़प रहे हों. कैसा लगता है कि आप जिस घर को बना रहे हैं, उसमें रह ना सकें, जिस चौकी की पहरेदारी कर रहे हैं, उसे कभी पार ना कर सकें और आपके साथ काम करने वालों की भी नजरें आप पर लगी हों कि कहीं आप भाग ना जाएं.

बदला बर्ताव

जो लोग बर्लिन दीवार पर बनी सीमा चौकियों को जानते हैं, उन्हें याद होगा वो रास्ता जिससे होकर वे इमिग्रेशन तक पहुंचते थे. उन्हें याद होंगे पूर्वी जर्मन सीमा पुलिस के वो चेहरे, जो इमिग्रेशन काउंटर पर पासपोर्ट चेक करते थे, आपके चेहरे को टटोलती उनकी भावशून्य आंखें. केबिन में बैठे पुलिस वालों को देखकर बदन में सिहरन होती, बुत से दिखते अधिकारी जो सिर्फ आपको तंग करने के लिए वहां बिठाए गए थे, कुछ समय पहले तक कुछ कुछ भारत के हवाई अड्डों पर बैठने वाले इमिग्रेशन अधिकारियों जैसे. एक दिन में जैसे सब कुछ बदल गया. दीवार गिरी या खुली जो भी कह लें, 9 नवंबर के बाद सीमा पुलिस वाले मानवता की मूर्ति बन गए, इतने दोस्ताना कि क्या कहने. मैंने उन दिनों सख्त रहने वाले सुरक्षा अधिकारियों के चेहरों से डर को गायब होते देखा था. मैंने सुरक्षाकर्मियों को एक दिन में इंसान बनते देखा था और उन्हें लोगों को डराने की कोशिश करने वाले क्रूर संतरियों से मददगार साथी में बदलते देखा था. 

तनावों के बीच 1961 में बनी दीवार तस्वीर: picture-alliance/dpa

एक दीवार क्या इतना कुछ कर सकती है? बर्लिन दीवार 13 अगस्त 1961 को बनाई गई थी. ठीक उसी तरह अचानक जैसे कि उसे खोला गया. पूर्वी जर्मनी का साम्यवाद पूंजीवाद के साथ दौड़ रहा था, प्रतिस्पर्धा में था लेकिन हर रोज वह थक रहा था, उसका कतरा कतरा खून बह रहा था. पढ़े लिखे लोग पूर्वी जर्मनी छोड़कर पश्चिम पलायन कर रहे थे, जरूरी कामगारों की कमी हो रही थी. सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी को एक ही उपाय सूझा, दीवार बनाने का ताकि अपने लोगों को भागने से रोका जा सके. तीस साल के अंदर पता चल गया कि देशभक्ति बाड़ों के पीछे लोगों को बंद कर नहीं जगाई जा सकती. सीमाओं की रक्षा लोगों को दबाकर नहीं की जा सकती और सख्ती से सरकारों को नहीं बचाया जा सकता.

तीस साल बाद 1989 आते आते लोग बाड़ों को तोड़ने और आजाद होने के लिए इतने बेताब हो चुके थे कि वे सड़कों पर उतरने लगे थे. दीवार खुलने और जर्मनी के एक होने का अंदेशा भले ही ना रहा हो, उम्मीदें जरूर थीं जो बहुत से दिलों की गहराई में पल रही थीं. ज्यादातर लोग खुलकर बातें नहीं करते थे, लेकिन औपचारिक बातचीत और आत्मीय बातचीत का टोन अलग होता था. 1985 के आते आते साम्यवादी व्यवस्था की समस्याएं सामने आने लगी थीं. आईटी तकनीक धीरे धीरे विकसित हो रही थी, उत्पादन के तरीके बदल रहे थे, लोगों की जरूरतें और मांगें बदल रही थीं. साम्यवादी अर्थव्यवस्था उन्हें पूरा करने में असहाय, असमर्थ नजर आने लगी थी.

बदलती जरूरतें

लोगों का पेट भरा था, उन्हें अच्छे फैशनेबल कपड़े, कारें और टेलिविजन चाहिए था, लेकिन उद्योग इन मांगों को पूरा करने में लाचार था. एक तो विदेशी मुद्रा कमाने का दबाव, दूसरी ओर सुरक्षा और आबादी की बढ़ती मांगें. कम्युनिस्ट पार्टी के पास इन सवालों से निबटने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था. पार्टी का नेतृत्व बूढ़ा हो चला था, नौजवान नेता भी पार्टी की नीतियों से खुश नहीं थे, लेकिन खुलकर कोई बोल नहीं रहा था, बोलने की हिम्मत नहीं थी. एक मिसाल देखिए. ब्रेड का एक किलो का लोफ एक मार्क में मिलता लेकिन उसे बनाने में कई मार्क लगते. घाटे का ये सौदा कितने दिन चल सकता था. लोगों की तनख्वाह 1000 से 3000 मार्क महीने थी, एक कलर टेलिविजन 7000 मार्क का मिलता था. यह लग्जरी सामान कौन खरीद पाता? बड़े पैमाने पर उपभोक्ता सामग्री बनाने के चक्कर में रंग, फैशन और निजी पसंदों का ख्याल नहीं रखा जाता था. यह आखिर कितने दिन चलता.

इस तरह बंटा शहरतस्वीर: Imago Images/G. Leber

लोग अक्सर पूछते हैं कि कब से लगने लगा था कि जीडीआर यानी पूर्वी जर्मनी का अस्तित्व खतरे में है. तो मैं कहूंगा 1985 से ही. इस्ट ब्लॉक के देशों में सूरज की किरणें सोवियत संघ के पीछे पीछे चलती थी. वहां जब मिखाइल गोर्वाचोव सत्ता में आए तो पूर्वी जर्मनी में भी लोगों को शासन में बदलाव की उम्मीद दिखी. पार्टी के अंदर सोवियत संघ के ग्लासनोस्त की तर्ज पर बहस होने लगी. पूर्वी जर्मन कम्युनिस्ट नेता एरिष होनेकर गद्दी छोड़ने को तैयार नहीं थे. तब तक सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों में सत्ता में शांतिपूर्ण बदलाव का दौर नहीं आया था. पार्टी नेता के खिलाफ बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी. होनेकर ने जर्मन साम्यवाद को जीडीआर के रंगों वाला समाजवाद कहकर अपनी नीतियों का बचाव करने की कोशिश की. पहले सालों के विपरीत गोर्वाचोव का सोवियत संघ सत्ता परिवर्तन के लिए दबाव नहीं डाल रहा था. जीडीआर के नेता वक्त की मांग समझ नहीं रहे थे और पार्टी के अंदर और समाज के अंदर दरार गहराती जा रही थी.

बर्लिन जीडीआर की राजधानी था. वह किसी दूसरे यूरोपीय शहर जैसा ही लगता था. रोशनी से जगमगाती सड़कें, खाने पीने के सामानों से भरी दुकानें और फैशनेबल कपड़ों से भरे सुपर मार्केट. हकीकत का पता बर्लिन से बाहर निकलने पर होता था. चाहे लाइपजिग हो या ड्रेसडेन, वहां के लोग बेबाक भी थे. शुरुआती सालों में खासकर यूनिवर्सिटी के छात्रों के साथ बात करना अच्छा अनुभव था. कहीं कोई लाग लपेट नहीं, साफ दो टूक बातें, सरकार की शिकायत ना भी हो तो चीजों की कमी और खामियों के बारे में बात करने में कोई कोताही नहीं. इसलिए साम्यवादी सरकार के खिलाफ शुरुआती आंदोलन भी इन्ही शहरों से शुरू हुए. लाइपजिग के लोगों ने हर सोमवार आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रदर्शन करना शुरू किया. एकदम शांतिपूर्ण, गांधीजी के सत्याग्रह की तरह, काम के बाद अपने समय में. यह प्रदर्शन हर सोमवार को होता. सरकार इससे निबटने में नाकाम रही. आखिर चुपचाप मार्च करने वालों पर सख्ती कैसे की जाए.

शीत युद्ध के दिन

ये सोशल मीडिया और मीडिया के समर्थन के बिना होने वाले विरोध आंदोलन के दिन थे. जीडीआर के अंदर मीडिया पूरी तरह कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों था. सरकार के विरोध की कोई खबर नहीं छपती. हालांकि पश्चिम जर्मन मीडिया के प्रतिनिधि पूर्वी जर्मनी में थे, लेकिन उनके लिए काम करना आसान नहीं था. फिर भी पश्चिमी मीडिया में छपी खबरें आंदोलनकारियों का उत्साह बढ़ाती. गर्मी आते आते आते हालात बिगड़ने लगे. अक्सर कहा जाता है कि पूर्वी जर्मनी के लोगों को देश के बाहर जाने की आजादी नहीं थी, लेकिन ये सच नहीं. उन्हें दोस्ताना साम्यवादी देशों में जाने की आजादी तो थी, सिर्फ पश्चिमी और तीसरी दुनिया के देशों में जाना मना था. बहुत से जर्मन गर्मियों में छुट्टी बिताने पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों में जाते. 1989 की गर्मियां तनावपूर्ण थी. लोग अचानक चेकोस्लोवाकिया और हंगरी की ओर जाने लगे. शरण के लिए दूतावासों में इकट्ठा होने लगे.

सीमा पुलिस की हिचकिचाहटतस्वीर: picture-alliance/AP/L. Schmidt

पश्चिमी जर्मनी ने उन लोगों को शरण देने का फैसला लिया तो लोग ऑस्ट्रिया के साथ लगी सीमा पर इकट्ठा होने लगे. हंगरी के लिए एक मानवीय समस्या पैदा हो गई. अभी शरणार्थी संकट के बाद से जो हालत ग्रीस और इटली की है, उस समय वही हालत हंगरी की थी. आखिरकार हंगरी ने सीमा पर लगी बाड़ को हटाने का फैसला लिया. कंटीली बाड़ को काटने की विदेश मंत्री जूला हॉर्न की तस्वीरें दुनिया भर में छा गईं. ईस्ट ब्लॉक की सीमा अब अभेद्य नहीं रही. हंगरी ने अपनी सीमा को खोल दिया था. वहां से होकर अब कोई भी ऑस्ट्रिया जा सकता था और इस तरह पश्चिमी यूरोप में प्रवेश कर सकता था. कम्युनिस्ट सरकार पर दबाव बढ़ने लगा. वह साम्यवादी जीडीआर के गठन की 40वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारियों में लगी थी. खुले तौर पर सब कुछ सामान्य होने का प्रदर्शन किया जा रहा था, लेकिन अंदरखाने हालत खराब होती जा रही थी. लोग भाग रहे थे और उद्योग की कई शाखाओं में लोग नहीं होने के कारण मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं.

राजनीतिक उथलपुथल

फिर आया 40वीं वर्षगांठ का दिन 7 अक्टूबर को. समारोह में भाग लेने सोवियत नेता गोर्बाचोव भी आए. एक ओर जश्न हो रहा था, आमंत्रित विदेशी नेताओं के साथ जीडीआर के गठन की खुशियां मनाई जा रही थीं तो दूसरी ओर लोग सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे. लोग सुधारों की मांग कर रहे थे. समारोह समाप्त हो गए, होनेकर सुधार ना करने के अपने इरादे पर डटे रहे. गोर्बाचोव चले गए लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी की हालत पस्त होने लगी. अब देर होने लगी थी और बहुत से नेताओं को समझ में आने लगा था कि जल्द कुछ ना किया गया तो और देर हो जाएगी. 18 अक्टूबर को एरिष होनेकर को हटा दिया गया. लेकिन अब तक लोगों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कुंजी अपने हाथों में ले ली थी, अब दूसरी बड़ी मांग थी, यात्रा की आजादी. कम्युनिस्ट पार्टी के लोग भी अब अपनी ही सरकार के खिलाफ सुधारों के लिए प्रदर्शन करने लगे थे. लेकिन पार्टी को पता नहीं था कि इन मांगों को कैसे पूरा करे और सत्ता कैसे बचाई जाए. नए नेताओं को भीड़ से निबटने का कोई अनुभव भी नहीं था. इगोन क्रेंस में वह करिश्मा नहीं था, जिसकी उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी को जरूरत थी.

और ऐसे ही दबाव के माहौल में एक दिन दीवार खोलने की घोषणा कर दी गई. कम्युनिस्ट पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में बहस चल रही थी, फैसले लिए जा रहे थे, प्रशासनिक तैयारी पूरी थी भी नहीं, पोलित ब्यूरो सदस्य गुंटर शाबोव्स्की ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में नागरिकों को विदेश जाने की अनुमति देने की घोषणा कि तो उन्हें पता भी नहीं था कि वे क्या बोल रहे हैं, उन्हें एक पर्ची दी गई, उन्होंने जो समझा घोषणा कर दी. और लोग चेक प्वाइंट पर पहुंचने लगे. शाबोव्स्की ने यही कहा था कि उनकी समझ में फौरी तौर पर दीवार खोलने का फैसला लिया गया है. जब हजारों लाखों की भीड़ सीमा चौकियों पर पहुंची तो वहां पहरेदारी कर रहे सैनिकों के सामने लोगों को पश्चिम में जाने देने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. दोनों ओर के लोग मिले तो एक दूसरे की बाहों में लिपट गए. अद्भुत नजारा था, बिछड़े हुए रिश्तेदार एक दूसरे मिले थे. एक क्षण जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. एकता का, मिलन का वह क्षण अचानक उनकी गोदी में गिरा था और एक दूसरे को बांहों में जकड़कर उन्होंने उस पल को यादगार बना दिया. वह मौका जर्मन एकीकरण के लिए मकान की नींव डालने का मौका बन गया.

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