2020 में जलवायु परिवर्तन की वजह से 10 सबसे बड़ी मौसमी विपदाओं में से दो भारत में हुई थीं जिनसे अरबों रुपये का नुकसान होने का अनुमान है. जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा नुकसान झेलने वाले देशों में भारत भी आता है.
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ब्रिटेन की स्वयंसेवी संस्था क्रिश्चियन एड की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में जो दस सबसे बड़ी कुदरती आफतें आई थीं वे मानव जाति को बहुत "महंगी” भी पड़ी हैं. उनसे जानमाल के करीब 150 अरब डॉलर के नुकसान का अंदाजा लगाया गया है. इन विपदाओं की वजह से साढ़े तीन करोड़ लोगों की जानें गईं और एक करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए.
2020 को जलवायु ब्रेकडाउन का साल कहने वाली इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सबसे बुरी मार गरीब देशों पर पड़ी है जहां क्षतिग्रस्त या नष्ट हुए जानमाल का कोई बीमा भी नहीं था. और ये मार चौतरफा पड़ी है, एशियाई भूभाग में आई बाढ़ हो, अफ्रीका में टिड्डियों का आतंक हो या यूरोप और अमेरिका में आए भयंकर तूफान.
जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि का दीर्घकालीन प्रभाव भी इस नुकसान में साफ झलकता है. ऐसा नहीं है कि मानवनिर्मित ग्लोबल वॉर्मिंग से पहले कुदरती आफतें इंसान पर नहीं टूटी हैं लेकिन एक सदी से अधिक के तापमान के डाटा और दशकों के सैटेलाइट डाटा के जरिए हासिल हुए चक्रवात और समुद्र के स्तर में वृद्धि के आंकड़ों के आधार पर कहा जा सका है कि धरती तप रही है और विपदाएं बढ़ रही हैं- अतिवृष्टि और तूफान से लेकर लू और जंगल की आग तक, और डायबिटीज और हृदयरोग जैसी बीमारियों से लेकर वैश्विक महामारी तक.
अम्फान की तबाही
2020 में सबसे ज़्यादा "महंगी” साबित हुई 10 कुदरती आफतों में से दो का कहर भारत के विभिन्न हिस्सों पर टूटा था. मई 2020 में अम्फान नाम का सुपर साइक्लोन इस वैश्विक सूची में चौथे और जून से अक्टूबर के दौरान आई बाढ़ पांचवे नंबर पर है. बंगाल की खाड़ी में उठने वाले अम्फान ने 270 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार वाली हवाओं के साथ भारत और बांग्लादेश में तबाही मचाई थी. दोनों देशों को करीब 95 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. कम से कम 128 लोग मारे गए थे और करीब पांच करोड़ लोग विस्थापित हो गए थे.
जून और अक्टूबर के बीच असम से लेकर केरल तक, मॉनसून से हुई अत्यधिक बारिश के चलते बाढ़ और भूस्खलन की काफी घटनाएं दर्ज की गई थीं. रिपोर्ट के मुताबिक इन बाढ़ों से भारत को करीब 73 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था और दो हजार लोगों की मौत हो गई थी.
प्रकृति को छेड़ अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारता इंसान
प्रकृति की मदद कर इंसान, मानव सभ्यता की कई गलतियां सुधार सकता है. वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो गया है कि इंसानी गलतियों का हम पर किस हद तक बुरा असर पड़ रहा है.
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स्वच्छ ऊर्जा यानी स्वच्छ हवा
वायु प्रदूषण हर साल करीब 42 लाख लोगों की जान लेता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह लंग कैंसर और दिल की कई बीमारियों के लिए जिम्मेदार है. वायु प्रदूषण के लिए जीवाश्म ईंधन से चलने वाली मशीनें और कचरा सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. ऊर्जा के स्वच्छ स्रोत इंसान और पृथ्वी की सेहत बेहतर कर सकते हैं.
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सीओटू और कुपोषण का रिश्ता
ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने से सिर्फ ग्लोबल वॉर्मिंग पर ही असर नहीं पड़ेगा बल्कि हमारा भोजन भी पौष्टिक होगा. पौधे जब ज्यादा सीओटू सोखते हैं तो वे प्रोटीन, जिंक और आयरन जैसे पोषक तत्व भी कम बनाते हैं. इन पौष्टिक तत्वों की कमी बच्चों की सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है. अगर सीओटू का स्तर इसी तरह बढ़ता रहा तो हमारा भोजन कम पौष्टिक होता चला जाएगा.
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जैव विविधता का विघटन
पौधों और जीवों की कई प्रजातियां रिकॉर्ड तेजी से खत्म हो रही हैं. लेकिन ये प्रजातियां इंसान तक पहुंचने वाले इकोसिस्टम में अहम भूमिका निभाती हैं. हम तक पहुंचने वाला भोजन, पानी और प्राकृतिक दवाएं ऐसे ही इकोसिस्टमों से गुजरती हुई हम तक पहुंचती हैं. इन इकोसिस्टमों का बचाव इंसान के ही हित में हैं.
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साफ परिवहन यानी अच्छी सेहत
दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी शहरों में रहती है और ये संख्या बढ़ती जा रही है. शहरी आबादी ट्रैफिक से हो रहे वायु, ध्वनि और जल प्रदूषण को झेल रही है. ट्रेनों और साइकिलों का ज्यादा इस्तेमाल करने के साथ साथ फुटपाथों की संख्या भी बढ़ानी होगी. ऐसा हुआ तो दुर्घटनाएं भी कम होंगी और लोग भी तंदुरुस्त रहेंगे.
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हरियाली की हिफाजत
पैदावार बढ़ाने के लिए जंगलों का सफाया करते करते आज मिट्टी की उर्वरता काफी गिर चुकी हैं. जंगलों से हो रही छेड़छाड़ के कारण ही नए नए वायरसों का खतरा बढ़ चुका है. कृषि और औद्योगिक पशुपालन में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों की वजह से मिट्टी, पानी और हवा दूषित हो रहे हैं. लिहाजा संरक्षित इलाकों का दायरा लगातार बढ़ाने की जरूरत है.
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मौसम का विनाशकारी रूप
ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से मौसम दुश्वार होता जा रहा है. बीते दो दशकों में बेहद ताकतवर तूफानों, जंगलों की आग, बाढ़ और गंभीर सूखे के मामलों में रिकॉर्ड तेजी आई है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक मौसमी आपदाओं के कारण हर साल दुनिया भर में 60 हजार से ज्यादा लोग मारे जा रहे हैं. ज्यादातर मौतें विकासशील देशों में हो रही हैं. वैश्विक तापमान जितना बढ़ेगा, इन आपदाओं में उतनी ही वृद्धि होगी.
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हालात बेकाबू होने से पहले
पर्यावरण की दुर्दशा अगर यूं ही जारी रही तो इंसानी संघर्ष भी बढ़ेंगे. लाखों-करोड़ों लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है. इसका असर पूरी मानव सभ्यता पर पड़ेगा. इसीलिए जलवायु परिवर्तन से लड़ते हुए पर्यावरण को फिर से सेहतमंद बनाने में ही मानवता का हित छुपा है. (रिपोर्ट: जेनिफर कॉलिन्स/ओएसजे)
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बात सिर्फ इतने बड़े आर्थिक नुकसान की नहीं है, बड़ी चिंता ये है कि ऐसी आफतें आने वाले समय में आवृत्ति और शक्ति के लिहाज से और तीव्र हो सकती हैं. जलवायु परिवर्तन ऐसी घटनाओं के लिए कैटालिस्ट की तरह काम करता आ रहा है. नवंबर 2021 में ग्लासगो में अगला जलवायु सम्मेलन होना है. 2015 के पेरिस समझौते में वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और 2030 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन आधा करने का लक्ष्य रखा गया था. इसके तहत हर साल उत्सर्जन में करीब साढ़े सात प्रतिशत कटौती की जानी है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक लक्ष्य कम होने के बजाय दूर होता जा रहा है.
कोविड-19 महामारी से त्रस्त दुनिया में इन कुदरती आफतों से हुई तबाहियों ने गरीबों को और पीछे धकेला है. हिंद महासागर क्षेत्र में वैश्विक तापमान बढ़ने से साइक्लोन की ताकत भी बढ़ती जा रही है और नुकसान पहुंचाने की क्षमता भी. अम्फान के अलावा भारत पिछले साल जून में एक और शक्तिशाली साइक्लोन- निसर्ग के वार को झेल चुका है.
पर्यावरण से जुड़ी लड़ाइयां और चिंताएं
वैज्ञानिकों का मानना है कि 2020 अतिरेक रूप से गरम साल था, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में 30 से 33 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किए गए थे. जलवायु परिवर्तन कितना बड़ा खतरा बनता जा रहा है इसका एक अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले साल के पहले छह महीनों में ही 200 से अधिक प्राकृतिक विपदाएं आ चुकी थीं. ये आंकड़ा 21वीं सदी के 2000-2019 की अवधि में 185 विपदाओं के औसत से ऊपर है. 2019 के मुकाबले 2020 में कुदरती आफतों की घटनाओं में पहले छह महीने की अवधि में 27 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है.
पर्यावरण से जुड़ी लड़ाइयों और चिंताओं को इसीलिए खारिज करने की मूर्खता नहीं की जा सकती. परियोजनाएं और निर्माण जरूरी हैं लेकिन वे समावेशी और सुचिंतित विकास के पैमानों पर होने चाहिए ना कि अंधाधुंध! उत्तराखंड में चार धाम सड़क परियोजना को लेकर विवाद थमा नहीं है, इसी तरह सुप्रीम कोर्ट की बहुमत से हरी झंडी के बावजूद सरकार के सेंट्रल विस्ता प्लैन को लेकर पर्यावरणवादियों और अन्य एक्टिविस्टों में शंकाएं और सवाल बने हुए हैं. वैसे एक राहत की बात ये है कि भारत हरित ऊर्जा अभियान को भी जोरशोर से चलाता दिख रहा है.
गोवा में कुदरत को बचाती एक युवा वैज्ञानिक
06:23
कुछ सप्ताह पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के कच्छ में 30 हजार मेगावॉट बिजली उत्पादन वाले और उनके मुताबिक दुनिया के सबसे बड़े पुनर्चक्रित ऊर्जा पार्क का शिलान्यास किया था. खबरों के मुताबिक ये विशाल प्रोजेक्ट एक लाख 80 हजार एकड़ यानी सिंगापुर के आकार जितने भूभाग में फैला हुआ है. इसमें सौर पैनल, सौर ऊर्जा भंडारण यूनिट और पवनचक्कियां लगाई जाएंगी. दावा है कि इस प्रोजेक्ट से हर साल भारत कार्बन डाय ऑक्साइड उत्सर्जन में पांच करोड़ टन की कटौती करने में सफल हो सकेगा. ये परियोजना भारत के उस महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य का हिस्सा है जिसके तहत 2022 तक 175 गीगावॉट और 2030 तक 450 गीगावॉट पुनर्चक्रित ऊर्जा का उत्पादन किया जाना है. इससे हर साल 20 अरब डॉलर के बिजनेस अवसर भी बनने की बड़ी उम्मीद भी जताई गई है.
सौर ऊर्जा के अलावा गैस पाइपलाइन के जरिए भारत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की कोशिशों में जुटा है. सरकार की योजना अगले चार से छह साल में देश में 16 हजार किलोमीटर लंबी प्राकृतिक गैस पाइपलाइन बिछाकर चालू करने की योजना भी है. पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने 450 किलोमीटर लंबी कोच्चि-मंगलुरू गैस पाइपलाइन का उद्घाटन किया था. भारत के प्राथमिक ऊर्जा स्रोतो में गैस का हिस्सा अभी करीब छह प्रतिशत है जबकि वैश्विक औसत 24 प्रतिशत है. 2030 तक भारत इस हिस्से को 15 प्रतिशत करना चाहता है. हरित ऊर्जा का दायरा बढ़ाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत ने पेरिस समझौते के तहत अपने कार्बन फुटप्रिंट में 2005 के स्तरों से 2030 तक 33-35 प्रतिशत कटौती करने का लक्ष्य रखा है.
भूकंप, सबसे जानलेवा प्राकृतिक आपदाओं में से एक हैं. पृथ्वी के भीतर होने वाली ये शक्तिशाली भूगर्भीय हलचल अब तक करोड़ों लोगों की जान ले चुकी है. एक नजर, अब तक के सबसे जानलेवा भूकंपों पर.
तस्वीर: Reuters
शांशी, 1556
चीन के शांशी प्रांत में 1556 में आए भूकंप को मानव इतिहास का सबसे जानलेवा भूकंप कहा जाता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक रिक्टर स्केल पर करीब 8 तीव्रता वाले उस भूकंप से कई जगहों पर जमीन फट गई. कई जगह भूस्खलन हुए. भूकंप ने 8,30,000 लोगों की जान ली.
तस्वीर: Reuters
तांगशान, 1976
चीन की राजधानी बीजिंग से करीब 100 किलोमीटर दूर तांगशान में आए भूकंप ने 2,55,000 लोगों की जान ली. गैर आधिकारिक रिपोर्टों के मुताबिक मृतकों की संख्या 6 लाख से ज्यादा थी. 7.5 तीव्रता वाले उस भूकंप ने बीजिंग तक अपना असर दिखाया.
तस्वीर: picture alliance / dpa
हिंद महासागर, 2004
दिसंबर 2004 को 9.1 तीव्रता वाले भूकंप ने इंडोनेशिया में खासी तबाही मचाई. भूकंप ने 23,000 परमाणु बमों के बराबर ऊर्जा निकाली. इससे उठी सुनामी लहरों ने भारत, श्रीलंका, थाइलैंड और इंडोनेशिया में जान माल को काफी नुकसान पहुंचाया. सबसे ज्यादा नुकसान इंडोनेशिया के सुमात्रा द्पीव में हुआ. कुल मिलाकर इस आपदा ने 2,27,898 लोगों की जान ली. 17 लाख लोग विस्थापित हुए.
तस्वीर: picture alliance/AP Photo
अलेप्पो, 1138
ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक सीरिया में आए उस भूकंप ने अलेप्पो को पूरी तरह झकझोर दिया. किले की दीवारें और चट्टानें जमींदोज हो गईं. अलेप्पो के आस पास के छोटे कस्बे भी पूरी तरह बर्बाद हो गए. अनुमान लगाया जाता है कि उस भूकंप ने 2,30,000 लोगों की जान ली.
तस्वीर: Reuters/Hosam Katan
हैती, 2010
रिक्टर पैमाने पर 7 तीव्रता वाले भूकंप ने 2,22,570 को अपना निवाला बनाया. एक लाख घर तबाह हुए. 13 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा. हैती आज भी पुर्नर्निमाण में जुटा है.
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दमघान, 856
कभी दमघान ईरान की राजधानी हुआ करती थी. ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक करीब 12 शताब्दी पहले दमघान शहर के नीचे से एक शक्तिशाली भूकंप उठा. भूकंप ने राजधानी और उसके आस पास के इलाकों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया. मृतकों की संख्या 2 लाख आंकी गई.
तस्वीर: Reuters
हैयुआन, 1920
चीन में आए करीब 7.8 तीव्रता वाले भूकंप के झटके हजारों किलोमीटर दूर नॉर्वे तक महसूस किये गए. भूकंप ने हैयुआन प्रांत में 2 लाख लोगों की जान ली. पड़ोसी प्रांत शीजी में भूस्खलन से एक बड़ा गांव दफन हो गया. लोगंदे और हुइनिंग जैसे बड़े शहरों के करीब सभी मकान ध्वस्त हो गए. भूकंप ने कुछ नदियों को रोक दिया और कुछ का रास्ता हमेशा के लिए बदल दिया.
तस्वीर: Reuters
अर्दाबिल, 893
ईरान में दमघान के भूकंप की सिहरन खत्म भी नहीं हुई थी कि 37 साल बाद एक और बड़ा भूकंप आया. इसने पश्चिमोत्तर ईरान के सबसे बड़े शहर अर्दाबिल को अपनी चपेट में लिया. करीब 1,50,000 लोग मारे गए. 1997 में एक बार इस इलाके में एक और शक्तिशाली भूकंप आया.
तस्वीर: AP Graphics
कांतो, 1923
7.9 तीव्रता वाले भूकंप ने टोक्यो और योकोहामा इलाके में भारी तबाही मचाई. पौने चार लाख से ज्यादा घरों को नुकसान पहुंचा. इसे ग्रेट टोक्यो अर्थक्वेक भी कहा जाता है. भूकंप के बाद चार मीटर ऊंची सुनामी लहरें आई. आपदा ने 1,43,000 लोगों की जान ली.
तस्वीर: Reuters
अस्गाबाद, 1948
पांच अक्टूबर 1948 को तुर्कमेनिस्तान का अस्गाबाद इलाका शक्तिशाली भूकंप की चपेट में आया. 7.3 तीव्रता वाले जलजले ने अस्गाबाद और उसके आस पास के गांवों को भारी नुकसान पहुंचाया. कई रेलगाड़ियां भी हादसे का शिकार हुईं. भूकंप ने 1,10,000 लोगों की जान ली.
तस्वीर: Siamak Ebrahimi
कश्मीर, 2005
भारत और पाकिस्तान के विवादित इलाके कश्मीर में 7.6 तीव्रता वाले भूकंप ने कम से कम 88 हजार लोगों की जान ली. सुबह सुबह आए इस भूकंप के झटके भारत, अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान और चीन तक महसूस किए गए. पाकिस्तान में करीब 87 हजार लोगों की मौत हुई. भारत में 1,350 लोग मारे गए.
तस्वीर: AFP/Getty Images/T. Mahmood
सिंचुआन, 2008
87,000 से ज्यादा लोगों की जान गई. करीब एक करोड़ लोग विस्थापित हुए. 7.9 तीव्रता वाले भूकंप ने 10,000 स्कूली बच्चों की भी जान ली. चीन सरकार के मुताबिक भूकंप से करीब 86 अरब डॉलर का नुकसान हुआ.