बाइडेन की जीत से चीन की मुश्किलें घटेंगी या बढ़ेंगी?
राहुल मिश्र
१२ नवम्बर २०२०
आम तौर पर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के नेता अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था को बनाए रखने का जुमला ककहरे की तरह दुहराते रहते है. दूसरी ओर रूस, चीन और भारत जैसे देश बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के हिमायती रहे हैं.
अमेरिका में नेतृत्व में बदलाव पर चीन की गहरी नजर हैतस्वीर: Ng Han Guan/dpa/picture alliance
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चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शंघाई कोआपरेशन ऑर्गनाइजेशन के राष्ट्राध्यक्षों की बीसवीं शीर्षस्तरीय वार्ता के दौरान दिए गए भाषण में वैश्विक शासन और समकालीन विश्व व्यवस्था को बनाए रखने पर जोर ने चीन की बदलती भूमिका पर एक बार फिर ध्यान आकर्षित किया. शी के भाषण ने एक और संदेश स्पष्ट रूप से दिया कि दुनिया को चीन की उतनी ही जरूरत है जितनी चीन को दुनिया की. और इस बात से चीन के कट्टर आलोचक भी अनदेखा नहीं कर सकते. शी ने न सिर्फ कोविड महामारी से लड़ने में बहुपक्षीय सहयोग की भूमिका पर बल दिया बल्कि एससीओ सदस्य देशों को कोविड-19 वैक्सीन मुहैय्या कराने का वादा भी किया. 10 नवंबर को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की अध्यक्षता में हुई इस वर्चुअल बैठक में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई. रूस इस साल एससीओ की अध्यक्षता कर रहा है.
शी जिनपिंग के भाषण की सबसे खास बात रही उनका वैश्विक शासन और समकालीन विश्व व्यवस्था को बनाए रखने पर जोर. अमेरिका की घटती साख के बीच चीन के राष्ट्रपति का यह बयान अहम है. वैसे तो चीन कोरोना वायरस की उत्पत्ति की खोज तक का विरोध करता रहा है लेकिन राष्ट्रपति शी ने एससीओ सदस्य देशों के बीच एक स्वास्थ्य हॉट लाइन स्थापित करने की वकालत की और कहा कि इस हॉटलाइन से एससीओ सदस्य देश कोविड-19 जैसी किसी आपदा से जूझने में आपसी सहयोग और साझा सूझबूझ से काम ले सकेंगे. साथ ही शी ने किसी बाहरी ‘पालिटिकल वायरस' से बचकर रहने की नसीहत भी दी. शी की इन बातों में अमेरिका के लिए संदेश बहुत साफ है.
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क्या है शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन
क्या रूस, चीन और भारत आपसी मतभेद पाटकर जी-7 का विकल्प बन पाएंगे. ये सारे देश शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) के सदस्य हैं.
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स्थापना
यूरोप और एशिया, यानी यूरेशिया को राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा के मुद्दे पर जोड़ने के लिए 15 जून 2001 को चीन में शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन का एलान किया गया. 2002 में इसके चार्टर पर दस्तखत हुए और 19 सितंबर 2003 से यह संस्था काम करने लगी.
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शुरुआती सदस्य
शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन की नींव रखने वाले देशों में चीन, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान शामिल हैं. उज्बेकिस्तान के बिना इन पांच देशों का समूह पहले शंघाई-5 कहलाता था.
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भारत और पाकिस्तान की एंट्री
जुलाई 2005 में कजाखस्तान की राजधानी अस्ताना में हुए एससीओ सम्मेलन में भारत, ईरान, मंगोलिया और पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुख पहली बार शामिल हुए. भारत और पाकिस्तान पिछले साल संस्था के सदस्य बने. एससीओ के सदस्य देशों में दुनिया की आधी आबादी रहती है.
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बढ़ता कारवां
अफगानिस्तान, बेलारूस, ईरान और मंगोलिया शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन के ऑब्जर्वर देश बन चुके हैं. इन देशों पर नजर रखी जा रही है. जरूरी शर्तें पूरी होने के बाद इनकी सदस्यता पर विचार किया जाएगा.
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डॉयलॉग पार्टनर
अर्मेनिया, अजरबैजान, कंबोडिया, नेपाल, श्रीलंका और तुर्की को डॉयलॉग पार्टनर बनाया गया है. एससीओ के आर्टिकल-14 के तहत डॉयलॉग पार्टनर ऐसा देश या ऐसी संस्था होगी जो एससीओ के लक्ष्यों और सिद्धांतों को साझा करे, जिसका एससीओ से रिश्ता समान साझा हितों पर टिका हो.
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एससीओ की मुश्किलें
शंघाई कोऑपरेशन आर्गनाइजेशन के सदस्य देश आतंकवाद, कट्टरपंथ और अलगाववाद से मिलकर निपटने पर सहमत होते हैं. लेकिन जब बात भारत-पाकिस्तान संबंधों और भारत-चीन सीमा विवाद ही आती है तो पेंच फंस जाता है. सीमा विवाद सहयोग में बाधा बन जाता है.
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नाटो का जवाब
पश्चिम के मीडिया पर्यवेक्षकों को लगता है कि एससीओ की स्थापना का असली मकसद नाटो को जवाब देना है. रूस और चीन बिल्कुल नहीं चाहते कि अमेरिका उनकी सीमा से सटे इलाकों के करीब पहुंचे. 2005 में एससीओ देशों ने अमेरिका से यह भी कहा कि वह सदस्य देशों से अपनी सेना हटाए. उस वक्त उज्बेकिस्तान में अमेरिकी सेना तैनात थी.
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सैन्य साझेदारी
बीते कुछ बरसों में एससीओ देशों की बीच सैन्य सहयोग में तेजी आई है. 2014 के सम्मेलन में सामूहिक सुरक्षा संधि संस्था बनाने की मांग भी उठी. इस पर चर्चा जारी है.
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कोरोना पर मिसाल नहीं अमेरिका
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि खुद को दुनिया का सबसे ताकतवर देश कहने वाले अमेरिका में आज कोविड के सबसे ज्यादा मरीज हैं और इस महमारी में जान देने वालों की संख्या भी सबसे ज्यादा है. वैसे तो बहुत से लोग ट्रंप प्रशासन पर यह जिम्मेदारी जड़कर आगे निकलने की कोशिश करते हैं लेकिन यह इतना आसान और सीधा मामला नहीं है. अमेरिका में प्रांतीय और शहरी प्रशासन की अलग व्यवस्था है और ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इन सभी पर ट्रंप का सीधा दखल था. अमेरिका की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था ने अमेरिका की कमजोरियों को उजागर किया है. शायद अमेरिकी लोगों को अब यूरोपीय सरकारों की सोशल डेमोक्रेटिक व्यवस्था की अच्छी बातें भी समझ में आने लगें.
अगर कोविड-19 जैसी बदहाली का आलम चीन और रूस में या दक्षिणपूर्व एशिया के किसी देश में होता तो अमेरिकी मीडिया किस तरह की रिपोर्टें पेश कर रहा होता. इन सभी के मद्देनजर चीनी राष्ट्रपति की बात आश्चर्यजनक तो लगती है लेकिन झूठी और बेमानी नहीं है. और अमेरिका के हालात एक सरकार के बदलने से बदल जाएंगे, ऐसा समझना बचपना होगा.
अमेरिका की अगली सरकार और चीन
चीन इस बात से भी वाकिफ है कि जो बाइडेन प्रशासन से भिड़ना ट्रंप के मुकाबले ज्यादा कठिन होगा क्योंकि अब दबाव सिर्फ आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर ही नहीं, पर्यावरण और मानवाधिकारों पर भी होगा. ये वो मुद्दे हैं जिन पर ट्रंप गलतियां पर गलतियां करते रहे. वह शायद भूल ही गए थे कि इन दोनों ही मुद्दों पर चीन बहुत कमजोर स्थिति में है.
हुआवे और 5जी तकनीक को लेकर शायद बाइडेन और ट्रंप में कोई अंतर नहीं होगा. यह बात भी चीन को परेशान कर रही है. और इसी की एक झलक शी के भाषण में दिखी जब उन्होंने यह घोषणा की कि अगले साल शी चोंगक्विंग में चीन-एससीओ डिजिटल इकोनॉमी फोरम की मेजबानी करेंगे. रूस के डिजिटल इकोनॉमी और 5जी के मुद्दे पर चीन को समर्थन से यह भी साफ है कि तकनीक के वर्चस्व की लड़ाई में चीन और रूस अमेरिका और यूरोप के विरुद्ध साथ-साथ खड़े होंगे.
ट्रंप के दौर में चीन और अमेरिक में खूब तनाव रहातस्वीर: UNTV/AP/picture alliance
भारत और चीन का टकराव
इस शिखर वार्ता में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी भाग लिया. शी के बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के विचार को थोड़ा सा खींच कर भारत के पाले में लाते हुए मोदी ने कहा कि विश्व व्यवस्था में सुधार लाने के लिए परिमार्जित बहुध्रुवीय व्यवस्था की तरफ दुनिया को बढ़ना ही पड़ेगा. इस संदर्भ में भारत का 1 जनवरी 2021 से संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में सदस्य बनना खास मायने रखता है. अपने भाषण में मोदी ने एससीओ सदस्य देशों को आपसी सौहार्द्र बनाए रखने और एक दूसरे की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करने की सलाह दी.
भारत और चीन के बीच महीनों से चल रहे सीमा विवाद के बीच यह बयान महत्वपूर्ण है. पिछले कुछ महीनों में भारत और चीन के बीच सीमा संबंधी विवाद सुलझाने के लिए कई विफल दौर चले हैं. आशा की जा रही है कि इस बार दोनों देशों की सेना एक आम सहमति बना पाएंगी. भारत को समझ आ चुका है कि पड़ोसी देश से ताकत के बल पर जीत नहीं पाई जा सकती. चीन भी शायद इस बात को धीरे-धीरे समझ रहा है. भारत, चीन और एससीओ, सभी के लिए यह एक राहत भरी खबर होगी.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
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इन देशों के बीच छिड़ा हुआ है सीमा विवाद
एक तरफ पाकिस्तान तो दूसरी ओर चीन - दशकों से भारत सीमा विवाद में उलझा हुआ है. भारत की ही तरह दुनिया में और भी कई देश सीमा विवाद का सामना कर रहे हैं.
अर्मेनिया और अजरबाइजान
इन दोनों देशों के बीच नागोर्नो काराबाख नाम के इलाके को ले कर विवाद है. यह इलाका यूं तो अजरबाइजान की सीमा में आता है और अंतरराष्ट्रीय तौर पर इसे अजरबाइजान का हिस्सा माना जाता है. लेकिन अर्मेनियाई बहुमत वाले इस इलाके में 1988 से स्वतंत्र शासन है लेकिन इसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली है.
तुर्की और ग्रीस
इन दोनों देशों के बीच तनाव की वजह जमीन नहीं, बल्कि पानी है. ग्रीस और तुर्की के बीच भूमध्यसागर है. माना जाता है कि इस सागर के पूर्वी हिस्से में दो अरब बैरल तेल और चार हजार अरब क्यूबिक मीटर गैस के भंडार हैं. दोनों देश इन पर अपना अधिकार चाहते हैं.
इस्राएल और सीरिया
1948 में इस्राएल के गठन के बाद से ही इन दोनों देशों में तनाव बना हुआ है. सीमा विवाद के चलते ये दोनों देश तीन बार एक दूसरे के साथ युद्ध लड़ चुके हैं. सीरिया ने आज तक इस्राएल को देश के रूप में स्वीकारा ही नहीं है.
चीन और जापान
इन दोनों देशों के बीच भी सागर है जहां कुछ ऐसे द्वीप हैं जिन पर कोई आबादी नहीं रहती है. पूर्वी चीन सागर में मौजूद सेनकाकू द्वीप समूह, दियाऊ द्वीप समूह और तियायुताई द्वीप समूह दोनों देशों के बीच विवाद की वजह हैं. दोनों देश इन पर अपना अधिकार जताते हैं.
तस्वीर: DW
रूस और यूक्रेन
वैसे तो इन दोनों देशों का विवाद सौ साल से भी पुराना है लेकिन 2014 से यह सीमा विवाद काफी बढ़ गया है. यूक्रेन सीमा पर दीवार बना रहा है ताकि रूस के साथ आवाजाही पूरी तरह नियंत्रित की जा सके. इस दीवार के 2025 में पूरा होने की उम्मीद है.
चीन और भूटान
भूटान की सीमा तिब्बत से लगती थी लेकिन 1950 के दशक के अंत में जब चीन ने इसे अपना हिस्सा घोषित कर लिया, तब से चीन भूटान का पड़ोसी देश बन गया. चीन भूटान के 764 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर अपना अधिकार बताता है.
चीन और भारत
भारत और चीन के बीच 3,440 किलोमीटर लंबी सीमा है जिस पर कई झीलें और पहाड़ हैं. इस वजह से नियंत्रण रेखा को ठीक से परिभाषित करना भी मुश्किल है. हाल में गलवान घाटी में दोनों देशों के बीच जो झड़प हुई वह पिछले कई दशकों में इस सीमा विवाद का सबसे बुरा रूप रहा.
पाकिस्तान और भारत
1947 में आजादी के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर विवाद की वजह बना हुआ है. इतने साल बीत जाते के बाद भी दोनों देश इस मसले को सुलझा नहीं पाए हैं. भारत इसे द्विपक्षीय मामला बताता है और वह किसी भी तरह का अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप नहीं चाहता है.