चीन को लेकर सख्त रुख अपनाते हुए नाटो नेताओं ने कहा है कि चीन की चुनौती वास्तविक है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी अपनी पहली नाटो बैठक में चीन को एक गंभीर खतरे के रूप में पेश किया.
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शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ से यूरोप की रक्षा करने के लिए बनाए गए गठबंधन के रवैये में यह एक बड़ा बदलाव है, कि अब वह चीन को अपनी मुख्य चुनौती मान रहा है. शिखर वार्ता के बाद जारी किए गए विस्तृत बयान में चीन के रवैये की ही आलोचना की गई है. नाटो नेताओं ने कहा, "चीन की जगजाहिर महत्वाकांक्षाएं और दबंग रवैया नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, और गठजोड़ से जुड़े क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए वास्वितक खतरा हैं.”
एक दिन पहले ही जी-7 ने भी अपने बयान में चीन पर हमला बोला था और मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर उसकी तीखी आलोनचा की थी. नाटो बैठक के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने यूरोपीय सहयोगियों को बताया कि एक-दूसरे की रक्षा का समझौता एक ‘पवित्र जिम्मेदारी' है. अमेरिका के रुख में भी यह बदलाव जैसा है क्योंकि पिछले राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का नाटो को लेकर काफी नकारात्मक रुख रहा था और उन्होंने यूरोपीय सहयोगियों पर अपनी रक्षा में बहुत कम योगदान करने का आरोप लगाया था.
ट्रंप-युग खत्म
इस स्थिति को बदलते हुए जो बाइडेन ने कहा, "मैं पूरे यूरोप को बताना चाहता हूं कि अमेरिका उनके लिए मौजूद है. नाटो हमारे लिए बेहद जरूरी है.” बाइडेन ने 11 सितंबर 2001 के आतंकी हमले की याद में नाटो मुख्यालय में बनाए गए स्मारक पर भी कुछ वक्त बिताया. बाद में मीडिया से बातचीत में बाइडे ने कहा कि चीन और रूस नाटो गठबंधन को बांटने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने कहा, "रूस और चीन दोनों हमारी एकता को तोड़ना चाह रहे हैं.”
कैसे अमेरिका को चुनौती देने वाली महाशक्ति बन गया चीन
सोवियत संघ के विघटन के बाद से अमेरिका अब तक दुनिया की अकेली महाशक्ति बना रहा. लेकिन अब चीन इस दबदबे को चुनौती दे रहा है. एक नजर बीते 20 साल में चीन के इस सफर पर.
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मील का पत्थर, 2008
2008 में जब दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था आर्थिक मंदी से खस्ताहाल हो रही थी, तभी चीन अपने यहां भव्य तरीके ओलंपिक खेलों का आयोजन कर रहा था. ओलंपिक के जरिए बीजिंग ने दुनिया को दिखा दिया कि वह अपने बलबूते क्या क्या कर सकता है.
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मंदी के बाद की दुनिया
आर्थिक मंदी के बाद चीन और भारत जैसे देशों से वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की उम्मीद की जाने लगी. चीन ने इस मौके को बखूबी भुनाया. उसके आर्थिक विकास और सरकारी बैंकों ने मंदी को संभाल लिया.
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ग्लोबल ब्रांड “मेड इन चाइना”
लोकतांत्रिक अधिकारों से चिढ़ने वाले चीन ने कई दशकों तक बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में खूब संसाधन झोंके. इन योजनाओं की बदौलत बीजिंग ने खुद को दुनिया का प्रोडक्शन हाउस साबित कर दिया. प्रोडक्शन स्टैंडर्ड के नाम पर वह पश्चिमी उत्पादों को टक्कर देने लगा.
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मध्य वर्ग की ताकत
बीते दशकों में जहां, दुनिया के समृद्ध देशों में अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ती गई, वहीं चीन अपने मध्य वर्ग को लगातार बढ़ाता गया. अमीर होते नागरिकों ने चीन को ऐसा बाजार बना दिया जिसकी जरूरत दुनिया के हर देश को पड़ने लगी.
चीन के आर्थिक विकास का फायदा उठाने के लिए सारे देशों में होड़ सी छिड़ गई. अमेरिका, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और ब्रिटेन समेत तमाम अमीर देशों को चीन में अपने लिए संभावनाएं दिखने लगीं. वहीं चीन के लिए यह अपने राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को विश्वव्यापी बनाने का अच्छा मौका था.
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पश्चिम के दोहरे मापदंड
एक अरसे तक पश्चिमी देश मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चीन की आलोचना करते रहे. लेकिन चीनी बाजार में उनकी कंपनियों के निवेश, चीन से आने वाली मांग और बीजिंग के दबाव ने इन आलोचनाओं को दबा दिया.
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शी का चाइनीज ड्रीम
आर्थिक रूप से बेहद ताकतवर हो चुके चीन से बाकी दुनिया को कोई परेशानी नहीं थी. लेकिन 2013 में शी जिनपिंग के चीन का राष्ट्रपति बनने के बाद नजारा बिल्कुल बदल गया. शी जिनपिंग ने पहली बार चीनी स्वप्न को साकार करने का आह्वान किया.
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शुरू हुई चीन से चुभन
आर्थिक विकास के कारण बेहद मजबूत हुई चीनी सेना अब तक अपनी सीमा के बाहर विवादों में उलझने से बचती थी. लेकिन शी के राष्ट्रपति बनने के बाद चीन ने सेना के जरिए अपने पड़ोसी देशों को आँखें दिखाना शुरू कर दिया. इसकी शुरुआत दक्षिण चीन सागर विवाद से हुई.
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लुक्का छिप्पी की रणनीति
एक तरफ शी और दूसरी तरफ अमेरिका में बराक ओबामा. इस दौरान प्रभुत्व को लेकर दोनों के विवाद खुलकर सामने नहीं आए. दक्षिण चीन सागर में सैन्य अड्डे को लेकर अमेरिकी नौसेना और चीन एक दूसरे चेतावनी देते रहे. लेकिन व्यापारिक सहयोग के कारण विवाद ज्यादा नहीं भड़के.
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कमजोर पड़ता अमेरिका
इराक और अफगानिस्तान युद्ध और फिर आर्थिक मंदी, अमेरिका आर्थिक रूप से कमजोर पड़ चुका था. चीन पर आर्थिक निर्भरता ने ओबामा प्रशासन के पैरों में बेड़ियों का काम किया. चीन के बढ़ते आक्रामक रुख के बावजूद वॉशिंगटन कई बार पैर पीछे खींचता दिखा.
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संघर्ष में पश्चिम और एकाग्र चीन
एक तरफ जहां चीन दक्षिण चीन सागर में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा था, वहीं यूरोप में रूस और यूरोपीय संघ बार बार टकरा रहे थे. 2014 में रूस ने क्रीमिया को अलग कर दिया. इसके बाद अमेरिका और उसके यूरोपीय साझेदार रूस के साथ उलझ गए. चीन इस दौरान अफ्रीका में अपना विस्तार करता गया.
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इस्लामिक स्टेट का उदय
2011-12 के अरब वसंत के कुछ साल बाद अरब देशों में इस्लामिक स्टेट नाम के नए आतंकवादी गुट का उदय हुआ. अरब जगत के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष ने पश्चिम को सैन्य और मानवीय मोर्चे पर उलझा दिया. पश्चिम को आईएस और रिफ्यूजी संकट से दो चार होना पड़ा.
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वन बेल्ट, वन रोड
2016 चीन ने वन बेल्ट वन रोड परियोजना शुरू की. जिन गरीब देशों को अपने आर्थिक विकास के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कड़ी शर्तों के साथ कर्ज लेना पड़ता था, चीन ने उन्हें रिझाया. चीन ने लीज के बदले उन्हें अरबों डॉलर दिए और अपने विशेषज्ञ भी.
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हर जगह चीन ही चीन
चीन बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट सहारे अफ्रीका, दक्षिण अमेरका, पूर्वी एशिया और खाड़ी के देशों तक पहुचना चाहता है. इससे उसकी सीधी पहुंच पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक भी होगी और अफ्रीका में हिंद और अटलांटिक महासागर के तटों पर भी.
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सीन में ट्रंप की एंट्री
जनवरी 2017 में अरबपति कारोबारी डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका के नए राष्ट्रपति का पद संभाला. दक्षिणपंथी झुकाव रखने वाले ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट का नारा दिया. ट्रंप ने लुक्का छिप्पी की रणनीति छोड़ते हुए सीधे चीन टकराने की नीति अपनाई. ट्रंप ने आते ही चीन के साथ कारोबारी युद्ध छेड़ दिया.
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पड़ोसी मुश्किल में
जिन जिन पड़ोसी देशों या स्वायत्त इलाकों से चीन का विवाद है, चीन ने वहाँ तक तेजी से सेना पहुंचाने के लिए पूरा ढांचा बैठा दिया. विएतनाम, ताइवान और जापान देशों के लिए वह दक्षिण चीन सागर में है. और भारत के लिए नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका में.
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सहयोगियों में खट पट
चीन की बढ़ते वर्चस्व को रोकने के लिए ट्रंप को अपने यूरोपीय सहयोगियों से मदद की उम्मीद थी, लेकिन रक्षा के नाम पर अमेरिका पर निर्भर यूरोप से ट्रंप को निराशा हाथ लगी. नाटो के फंड और कारोबारियों नीतियों को लेकर मतभेद बढ़ने लगे.
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दूर बसे साझेदार
अब वॉशिंगटन के पास चीन के खिलाफ भारत, ब्रेक्जिट के बाद का ब्रिटेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे साझेदार हैं. अब अमेरिका और चीन इन देशों को लेकर एक दूसरे से टकराव की राह पर हैं.
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कोरोना का असर
चीन के वुहान शहर ने निकले कोरोना वायरस ने दुनिया भर में जान माल को भारी नुकसान पहुंचाया. कोरोना ने अर्थव्यवस्थाओं को भी चौपट कर दिया है. अब इसकी जिम्मेदारी को लेकर विवाद हो रहा है. यह विवाद जल्द थमने वाला नहीं है.
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चीन पर निर्भरता कम करने की शुरुआत
अमेरिका समेत कई देश यह जान चुके हैं कि चीन को शक्ति अपनी अर्थव्यवस्था से मिल रही है. इसके साथ ही कोरोना वायरस ने दिखा दिया है कि चीन ऐसी निर्भरता के क्या परिणाम हो सकते हैं. अब कई देश प्रोडक्शन के मामले में दूसरे पर निर्भरता कम करने की राह पर हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति ने व्लादीमीर पुतिन को सख्त और होनहार बताया. उन्होंने कहा कि वह रूस से कोई विवाद नहीं चाहते लेकिन मॉस्को ने यदि ‘खतरनाक गतिवाधियां' जारी रखीं, तो नाटो जवाब देगा. उन्होंने रूस के साथ विवाद में यूक्रेन का साथ देने का वादा भी किया. हालांकि उन्होंने इस बात पर कोई ठोस जवाब नहीं दिया कि यूक्रेन को नाटो की सदस्यता मिल सकती है या नहीं.
बाइडेन ने कहा, "हम यूक्रेन को इतना मजबूत बनाना चाहते हैं कि वे अपनी भौतिक सुरक्षा कर सकें.” लेकिन ऐसा कैसे होगा, इस बारे में उन्होंने कोई विस्तृत जानकारी नहीं दी.
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यूरोप का नपा-तुला रुख
जर्मनी की चांसलर अंगेला मैर्केल की यह सितंबर में पद छोड़ने से पहले आखिरी नाटो बैठक थी. उन्होंने राष्ट्रपति बाइडेन के आगमन को एक नए अध्याय की शुरुआत बताया. मैर्केल ने भी चीन के खतरे को लेकर गंभीरता जताई लेकिन उनके शब्द नपे-तुले थे. उन्होंने कहा, "अगर आप साइबर और अन्य मिले-जुले खतरों को देखें, और रूस और चीन के बीच चल रहे सहयोग को देखें तो आप चीन को नजरअंदाज नहीं कर सकते. लेकिन इसे जरूरत से ज्यादा अहमियत भी नहीं दी जानी चाहिए. हमें सही संतुलन खोजना होगा.”
नाटो के महासचिव येंस स्टोल्टेनबर्ग ने कहा कि बाल्टिक से अफ्रीका तक चीन की बढ़ती सैन्य मौजूदगी का अर्थ यह है कि परमाणु-शक्ति संपन्न नाटो को तैयार रहना होगा. उन्होंने कहा, "चीन हमारे करीब आता जा रहा है. हम उसे साइबरस्पेस में देख रहे हैं, अफ्रीका में देख रहे हैं, और हम देख रहे हैं कि वह अपने अहम बुनियादी ढांचे में निवेश कर रहा है.”
लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का रुख भी नपा-तुला था. उन्होंने कहा कि चीन के नुकसान भी हैं और फायदे भी. जॉनसन ने कहा, "मुझे नहीं लगता कि कोई भी चीन के साथ एक नया शीत युद्ध चाहता है.”
वीकेएए (रॉयटर्स, डीपीए)
रूस-अमेरिका में युद्ध हो जाए तो
शीत युद्ध के बाद रूस अमेरिका के रिश्ते एक बार फिर खराब दौर से गुजर रहे हैं. यहां तक कि युद्ध की बात भी होने लगी है. मिलिट्री टाइम्स ने दोनों की सैन्य शक्ति की तुलना की है. देखिए...
तस्वीर: Reuters/Sputnik/Kremlin/A. Druzhinin
डिफेंस बजट
रूस का रक्षा बजट है 60 अरब डॉलर. अमेरिका का 560 अरब डॉलर.