बाइडेन को सामने देख इलाके में दोस्ती बढ़ाने चला चीन
१५ जनवरी २०२१
कोविड-19 महामारी के दौरान ही एक बार फिर चीनी विदेश मंत्री वांग यी दक्षिणपूर्व एशिया के चार देशों के दौरे पर निकल गये हैं. इंडोनेशिया, फिलीपींस, ब्रुनेई से पहले वह म्यांमार पहुंचे.
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वैसे तो दक्षिणपूर्व एशिया के इन तमाम देशों के साथ संबंधों को मजबूत करना अपने आप में एक बड़ा काम है लेकिन बाइडेन प्रशासन के 20 जनवरी को अमेरिकी प्रशासन की बागडोर संभालने और उसके चलते पैदा होने वाली संभावनाओं को कम कर के नहीं आंका जा सकता. चीन के लिए दक्षिणपूर्व एशिया की वही महत्ता है जो भारत के लिए दक्षिण एशिया की है या रूस के लिए सेंट्रल एशिया की. लिहाजा चीन का अपने कूटनीतिक किले को अभेद्य बनाने की कवायद लाजमी लगती है. हालांकि बात इतनी भी सीधी नहीं है.
कोविड-19 वैक्सीन को लेकर दुनिया के बड़े देशों के बीच एक नयी होड़ सी लगती दिख रही है. हर देश और उसकी बड़ी फार्मा कंपनियों ने दावे ठोकने चालू कर कर दिए हैं कि उनकी बनाई वैक्सीन सबसे कारगर है. इस बात पर ध्यान कम दिया जा रहा है कि ब्रिटेन और जापान जैसे देशों में कोविड-19 के वायरस के नए स्ट्रेन मिल गए हैं और पर्यावरण के मुताबिक रूपांतरित होने या म्यूटेट होने की क्षमता रखने वाले कोविड को हराने के लिए वैक्सीन खुराकों में भी तेजी से बदलाव लाने होंगे. बहरहाल, वांग यी ने 3 लाख वैक्सीन खुराकें देने की घोषणा की, जिसे म्यांमार ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था से जूझ रहे म्यांमार के लिए यही काफी है. गौरतलब है कि म्यांमार ने सबसे पहले भारत से वैक्सीन भेजने का अनुरोध किया था. चीन इसे व्यापारिक और सॉफ्ट पावर चुनौती मान कर भारत से पहले वैक्सीन पहुंचाना चाहता है. लगता है कि वह ऐसा कर भी लेगा.
चीनी विदेश नीति की एक खास बात है उसका ट्रांजेक्शनल रूप. दोस्ती और धंधे के बीच चीन हमेशा धंधे को वरीयता देता है. यह दुनिया के अधिकांश देशों की विदेश नीतियों से काफी अलग है जहां मूल्यपरक और नियम्बद्ध विदेशनीति के कड़े मानदंड हैं. भारत, जापान, जर्मनी जैसे देशों में विदेशनीति के निर्धारण के पीछे व्यापार, सामरिक सहयोग, मानव और तकनीकी संसाधन विकास के अलावा दूरगामी मानवीय और सामाजिक मूल्यों और सिद्धांतों को मजबूती देने पर भी जोर दिया जाता रहा है. दूसरी तरफ चीन अक्सर अच्छे सम्बंधों के बहाने अपने व्यापारिक हितों को आड़े तिरछे तरीके से साध ले जाता है. यही वजह है कि जब डॉनल्ड ट्रंप जैसा उद्योगपति नेता चीन से धंधे की बात करने पर आया तो चीन के होश उड़ गए और ट्रेड युद्ध की नौबत आ गई.
बहरहाल, धंधे की बात करें तो चीन की बेल्ट ऐंड रोड परियोजना पर दोनों पक्षों के बीच चर्चा हुई. वांग यी की यात्रा से ठीक पहले दोनों देशों के बीच एक मसौदे पर सहमति हुई थी जिसके तहत म्यांमार के दूसरे सबसे बड़े शहर मांडले और पोर्ट सिटी क्याकफू के बीच एक रेलवे लिंक की स्थापना होगी. फिलहाल इस संदर्भ में व्यावहारिकता का अध्ययन करने पर सहमति हुई है. चीन की मांडले में रेलवे ट्रैक बनाने और उसे क्याकफू से जोड़ने की इच्छा किसी परोपकारी विचार का नतीजा नहीं हैं. वजह यह है कि क्याकफू में चीन ने करोड़ों डालर का निवेश कर रखा है. चीन वहां पर गहरे समुद्री पोर्ट प्रोजेक्ट को अंजाम देने में पिछले एक दशक से अधिक से जुटा है. क्याकफू को व्यापार संबंधी जरूरतों से जोड़ने के लिए मांडले एक बड़ी मदद कर सकता है लेकिन दोनों के बीच दूरी 650 किलोमीटर से ज्यादा है और रास्ता दुर्गम नहीं तो सुगम तो बिल्कुल नहीं है. यही वजह है कि दोनों शहरों के बीच रेलवे लाइन बिछाने की जरूरत चीन को आन पड़ी.
कैसे अमेरिका को चुनौती देने वाली महाशक्ति बन गया चीन
सोवियत संघ के विघटन के बाद से अमेरिका अब तक दुनिया की अकेली महाशक्ति बना रहा. लेकिन अब चीन इस दबदबे को चुनौती दे रहा है. एक नजर बीते 20 साल में चीन के इस सफर पर.
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मील का पत्थर, 2008
2008 में जब दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था आर्थिक मंदी से खस्ताहाल हो रही थी, तभी चीन अपने यहां भव्य तरीके ओलंपिक खेलों का आयोजन कर रहा था. ओलंपिक के जरिए बीजिंग ने दुनिया को दिखा दिया कि वह अपने बलबूते क्या क्या कर सकता है.
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मंदी के बाद की दुनिया
आर्थिक मंदी के बाद चीन और भारत जैसे देशों से वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की उम्मीद की जाने लगी. चीन ने इस मौके को बखूबी भुनाया. उसके आर्थिक विकास और सरकारी बैंकों ने मंदी को संभाल लिया.
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ग्लोबल ब्रांड “मेड इन चाइना”
लोकतांत्रिक अधिकारों से चिढ़ने वाले चीन ने कई दशकों तक बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में खूब संसाधन झोंके. इन योजनाओं की बदौलत बीजिंग ने खुद को दुनिया का प्रोडक्शन हाउस साबित कर दिया. प्रोडक्शन स्टैंडर्ड के नाम पर वह पश्चिमी उत्पादों को टक्कर देने लगा.
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मध्य वर्ग की ताकत
बीते दशकों में जहां, दुनिया के समृद्ध देशों में अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ती गई, वहीं चीन अपने मध्य वर्ग को लगातार बढ़ाता गया. अमीर होते नागरिकों ने चीन को ऐसा बाजार बना दिया जिसकी जरूरत दुनिया के हर देश को पड़ने लगी.
चीन के आर्थिक विकास का फायदा उठाने के लिए सारे देशों में होड़ सी छिड़ गई. अमेरिका, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और ब्रिटेन समेत तमाम अमीर देशों को चीन में अपने लिए संभावनाएं दिखने लगीं. वहीं चीन के लिए यह अपने राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को विश्वव्यापी बनाने का अच्छा मौका था.
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पश्चिम के दोहरे मापदंड
एक अरसे तक पश्चिमी देश मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चीन की आलोचना करते रहे. लेकिन चीनी बाजार में उनकी कंपनियों के निवेश, चीन से आने वाली मांग और बीजिंग के दबाव ने इन आलोचनाओं को दबा दिया.
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शी का चाइनीज ड्रीम
आर्थिक रूप से बेहद ताकतवर हो चुके चीन से बाकी दुनिया को कोई परेशानी नहीं थी. लेकिन 2013 में शी जिनपिंग के चीन का राष्ट्रपति बनने के बाद नजारा बिल्कुल बदल गया. शी जिनपिंग ने पहली बार चीनी स्वप्न को साकार करने का आह्वान किया.
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शुरू हुई चीन से चुभन
आर्थिक विकास के कारण बेहद मजबूत हुई चीनी सेना अब तक अपनी सीमा के बाहर विवादों में उलझने से बचती थी. लेकिन शी के राष्ट्रपति बनने के बाद चीन ने सेना के जरिए अपने पड़ोसी देशों को आँखें दिखाना शुरू कर दिया. इसकी शुरुआत दक्षिण चीन सागर विवाद से हुई.
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लुक्का छिप्पी की रणनीति
एक तरफ शी और दूसरी तरफ अमेरिका में बराक ओबामा. इस दौरान प्रभुत्व को लेकर दोनों के विवाद खुलकर सामने नहीं आए. दक्षिण चीन सागर में सैन्य अड्डे को लेकर अमेरिकी नौसेना और चीन एक दूसरे चेतावनी देते रहे. लेकिन व्यापारिक सहयोग के कारण विवाद ज्यादा नहीं भड़के.
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कमजोर पड़ता अमेरिका
इराक और अफगानिस्तान युद्ध और फिर आर्थिक मंदी, अमेरिका आर्थिक रूप से कमजोर पड़ चुका था. चीन पर आर्थिक निर्भरता ने ओबामा प्रशासन के पैरों में बेड़ियों का काम किया. चीन के बढ़ते आक्रामक रुख के बावजूद वॉशिंगटन कई बार पैर पीछे खींचता दिखा.
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संघर्ष में पश्चिम और एकाग्र चीन
एक तरफ जहां चीन दक्षिण चीन सागर में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा था, वहीं यूरोप में रूस और यूरोपीय संघ बार बार टकरा रहे थे. 2014 में रूस ने क्रीमिया को अलग कर दिया. इसके बाद अमेरिका और उसके यूरोपीय साझेदार रूस के साथ उलझ गए. चीन इस दौरान अफ्रीका में अपना विस्तार करता गया.
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इस्लामिक स्टेट का उदय
2011-12 के अरब वसंत के कुछ साल बाद अरब देशों में इस्लामिक स्टेट नाम के नए आतंकवादी गुट का उदय हुआ. अरब जगत के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष ने पश्चिम को सैन्य और मानवीय मोर्चे पर उलझा दिया. पश्चिम को आईएस और रिफ्यूजी संकट से दो चार होना पड़ा.
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वन बेल्ट, वन रोड
2016 चीन ने वन बेल्ट वन रोड परियोजना शुरू की. जिन गरीब देशों को अपने आर्थिक विकास के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कड़ी शर्तों के साथ कर्ज लेना पड़ता था, चीन ने उन्हें रिझाया. चीन ने लीज के बदले उन्हें अरबों डॉलर दिए और अपने विशेषज्ञ भी.
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हर जगह चीन ही चीन
चीन बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट सहारे अफ्रीका, दक्षिण अमेरका, पूर्वी एशिया और खाड़ी के देशों तक पहुचना चाहता है. इससे उसकी सीधी पहुंच पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक भी होगी और अफ्रीका में हिंद और अटलांटिक महासागर के तटों पर भी.
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सीन में ट्रंप की एंट्री
जनवरी 2017 में अरबपति कारोबारी डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका के नए राष्ट्रपति का पद संभाला. दक्षिणपंथी झुकाव रखने वाले ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट का नारा दिया. ट्रंप ने लुक्का छिप्पी की रणनीति छोड़ते हुए सीधे चीन टकराने की नीति अपनाई. ट्रंप ने आते ही चीन के साथ कारोबारी युद्ध छेड़ दिया.
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पड़ोसी मुश्किल में
जिन जिन पड़ोसी देशों या स्वायत्त इलाकों से चीन का विवाद है, चीन ने वहाँ तक तेजी से सेना पहुंचाने के लिए पूरा ढांचा बैठा दिया. विएतनाम, ताइवान और जापान देशों के लिए वह दक्षिण चीन सागर में है. और भारत के लिए नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका में.
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सहयोगियों में खट पट
चीन की बढ़ते वर्चस्व को रोकने के लिए ट्रंप को अपने यूरोपीय सहयोगियों से मदद की उम्मीद थी, लेकिन रक्षा के नाम पर अमेरिका पर निर्भर यूरोप से ट्रंप को निराशा हाथ लगी. नाटो के फंड और कारोबारियों नीतियों को लेकर मतभेद बढ़ने लगे.
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दूर बसे साझेदार
अब वॉशिंगटन के पास चीन के खिलाफ भारत, ब्रेक्जिट के बाद का ब्रिटेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे साझेदार हैं. अब अमेरिका और चीन इन देशों को लेकर एक दूसरे से टकराव की राह पर हैं.
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कोरोना का असर
चीन के वुहान शहर ने निकले कोरोना वायरस ने दुनिया भर में जान माल को भारी नुकसान पहुंचाया. कोरोना ने अर्थव्यवस्थाओं को भी चौपट कर दिया है. अब इसकी जिम्मेदारी को लेकर विवाद हो रहा है. यह विवाद जल्द थमने वाला नहीं है.
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चीन पर निर्भरता कम करने की शुरुआत
अमेरिका समेत कई देश यह जान चुके हैं कि चीन को शक्ति अपनी अर्थव्यवस्था से मिल रही है. इसके साथ ही कोरोना वायरस ने दिखा दिया है कि चीन ऐसी निर्भरता के क्या परिणाम हो सकते हैं. अब कई देश प्रोडक्शन के मामले में दूसरे पर निर्भरता कम करने की राह पर हैं.
चीन की दूरगामी योजना है कि क्याकफू को मांडले के रास्ते चीन के सुदूर दक्षिणी प्रान्त युन्नान से जोड़ा जाय. युन्नान और क्याकफू के बीच पहले से ही गैस पाइपलाइन चल रही है. ऐसे में रेल लिंक बनाने की योजना चीन को म्यांमार के रास्ते हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी तक सीधा रास्ता देगी. सिर्फ संसाधन ही नहीं लोगों का भी आना जाना हो सकेगा. चीन इस काम को अंजाम देने के लिए किसी भी हद तक जाएगा क्योंकि उसे मालूम है कि भारत और अमेरिका दोनों से निपटने के लिए हिंद महासागर में सीधी दखल और पकड़ बनाना जरूरी है.
अपनी यात्रा के दौरान चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने रोहिंग्या मसले पर म्यांमार की मदद करने का वादा भी किया. और हो भी क्यों ना? दोनों ही देश अल्पसंख्यक समुदायों के मानवाधिकारों के हनन के मामलों को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की आलोचनाओं का शिकार हुए हैं. ऐसे में वांग यी का म्यांमार को समर्थन राष्ट्रपति विन म्यिन्त, आंग सान सू ची और उनके समर्थकों के लिए एक बड़ी राहत की वजह है.
दरअसल, अमेरिका में जो बाइडेन प्रशासन के आने की खबर से म्यांमार समेत तमाम मानवाधिकारों के मुद्दे पर लचर रिकार्ड रखने वाले देशों में खलबली का माहौल है. माना जा रहा है कि एक डेमोक्रेट होने के नाते बाइडेन प्रशासन और उसके तमाम उच्चाधिकारियों का ध्यान मानवाधिकार हनन, पर्यावरण संरक्षण, मुक्त व्यापार, लोकतांत्रिक मूल्यों, नियमबद्ध क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मुद्दों पर ज्यादा होगा. डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान म्यांमार और कंबोडिया जैसे देशों की पौ बारह हो गयी थी क्योंकि ट्रंप ने उदारवादी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के तीनों मूलभूत पहलुओं पर से सिर्फ ध्यान ही नहीं हटाया था बल्कि एक समय पर तो वह इन तीनों के विरोध में ही खड़े दिख रहे थे. ये तीन मूलभूत पहलू हैं, खुली और उदारवादी अंतरराष्ट्रीय बाजार व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय संगठनों का समर्थन, और लोकतांत्रिक मूल्यों को समर्थन.
भारत से कितना डरते हैं चीनी
चीन के सरकारी अखबार 'ग्लोबल टाइम्स' के सर्वे से पता चला है कि चीनी लोगों को भारत की सैन्य या आर्थिक कार्रवाई से कितना डर लगता है. देखिए चीन के दस बड़े शहरों के लगभग 2,000 लोगों की सोच के आधार पर क्या सामने आया.
तस्वीर: picture-alliance/ZUMA Press/I. Abbas
क्या चीन पर आर्थिक रूप से बहुत ज्यादा निर्भर है भारत?
सर्वे में शामिल लगभग आधे लोगों को लगता है कि भारत की चीन पर बहुत अधिक आर्थिक निर्भरता है. वहीं 27 फीसदी को लगता है कि ऐसा नहीं है.
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क्या भारतीय सेना चीन के लिए खतरा पैदा कर सकती है?
एक तिहाई से भी कम लोगों को लगता है कि भारतीय सेना चीन के लिए खतरा बन सकती है. वहीं 57 फीसदी से भी अधिक का मानना है कि कोई खतरा नहीं.
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क्या जरूरत से ज्यादा चीन-विरोधी भावनाएं फैली हैं?
लगभग 71 फीसदी चीनी लोगों का मानना है कि भारत में फिलहाल चीन को लेकर कुछ ज्यादा ही विरोध है. वहीं 15 फीसदी ऐसे हैं जिन्हें यह ठीक लगता है.
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चीनी उत्पादों के बहिष्कार वाले अभियान को कैसे देखते हैं?
35 फीसदी से अधिक चीनी इस पर बहुत गुस्सा हुए. वहीं लगभग 30 फीसदी को लगा कि भारत इसे लेकर गंभीर नहीं है और इसे नजरअंदाज कर देना चाहिए.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. Maqbool
चीन और भारत के संबंधों में सबसे बड़ी रुकावट क्या है?
30 फीसदी का मानना है कि ऐसा देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर है. वहीं लगभग एक चौथाई का मानना है कि भारत अमेरिका के असर में आकर ऐसा कर रहा है.
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अगर फिर से भारत के साथ सीमा विवाद छिड़े तो?
लगभग 90 फीसदी लोग आत्मरक्षा में चीनी सेना की भारत के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का समर्थन करते हैं. 7 फीसदी से भी कम लोग बलप्रयोग के खिलाफ हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Z. Zhengju
भविष्य में किस तरफ जा सकते हैं चीन-भारत संबंध?
25 फीसदी को लगता है कि कभी अच्छे तो कभी बुरे दौर आएंगे. वहीं 25 फीसदी का मानना है कि लंबे समय में सुधार दिखेगा. 20 फीसदी को जल्दी सुधार की उम्मीद नहीं है.
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ट्रंप के जाने से ऊहापोह की स्थिति म्यांमार में तो है ही चीन का मन भी बाइडेन प्रशासन के नित नये चुने जा रहे मंत्रिमंडल सदस्यों और उच्चाधिकारियों का नाम सुन कर खट्टा हो रहा है. ओबामा प्रशासन के दौरान अमेरिका की एशिया पिवट नीति में खासा योगदान देने वाले कर्ट कैंपबल जैसे लोगों के बाइडन प्रशासन में एशिया की जिम्मेदारी से कम से कम यह तो साफ है कि चीन के अच्छे दिन तो फिलहाल आने से रहे. ऐसे में एक ही नाव में सवार देशों को इकट्ठा करने में कोई बुराई नहीं हैं. और इस लिहाज से वांग यी की म्यांमार यात्रा का बहुत सामरिक महत्व है.
दिलचस्प बात यह है कि चीन का मयांमार को रोहिंग्या मुद्दे पर समर्थन एक तरफ दोस्ताना कदम नहीं था. बदले में म्यांमार के राष्ट्रपति को भी चाहे अनचाहे कहना ही पड़ा कि म्यांमार चीन को तिब्बत, ताइवान, और शिनजियांग के मुद्दे पर अपना समर्थन देता है.
दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों के साथ ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले' की चीन की ट्रांजेक्शनल नीति फिलहाल तो कारगर है पर मूल्यविहीन नितियां काठ की वो हांडियां हैं जो शायद ज्यादा दिन अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की भट्ठियों का ताप झेल नहीं पायेंगी.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)