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समाज

बाढ़ के साथ ही बिहार में बढ़ जाता है बाल तस्करी का खतरा

मनीष कुमार, पटना
२१ अगस्त २०२०

बिहार के कई जिलों में विनाशकारी बाढ़ के साथ ही बाल तस्करी का घिनौना खेल शुरू हो जाता है. प्रलयंकारी बाढ़ में सब कुछ गंवा चुके परिवारों पर मानव तस्करों की गिद्ध दृष्टि लगी होती है.

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तस्वीर: DW/M. Kumar

सहानुभूति व आर्थिक मदद की आड़ में मानव तस्कर बच्चों के माता-पिता को यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि उनका बेटा या बेटी पूरे परिवार को भुखमरी से बचाने में कामयाब हो सकता है, बशर्ते बच्चों को उन्हें सौंप दिया जाए. जीवन की चाह में परिवार अपने कलेजे के टुकड़े को उन दलालों के हाथों सौंप देता है. घर से निकलने के बाद फिर उन बच्चे-बच्चियों के साथ जो गुजरता है उसकी कल्पना भर से रूह कांप जाती हैं.
इस साल भी बाढ़ के साथ ही ऐसी घटनाएं समाचार पत्रों की सुर्खियां बनने लगीं हैं. बच्चों के कल्याणार्थ काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था बचपन बचाओ आंदोलन की सूचना पर मंगलवार की रात पटना जिले के मोकामा में रेलवे पुलिस जीआरपी व रेलवे सुरक्षा बल आरपीएफ की संयुक्त कार्रवाई में महानंदा एक्सप्रेस से दिल्ली ले जाए जा रहे सात बच्चों को दलालों के चंगुल से मुक्त कराया गया. पुलिस ने एक मानव तस्कर को भी गिरफ्तार किया. इन बच्चों को तीन हजार रूपये मासिक की पगार का प्रलोभन दिया गया था जबकि पेशगी के तौर पर उनके मां-बाप को एक हजार रुपये दिए गए थे.

ऐसा ही एक मामला बुधवार की शाम को सामने आया जब गया जिले की शेरघाटी से गुजरात से ले जाए जा रहे मजदूरों व बाल मजदूरों से भरी बस को डेहरी में पकड़ा गया. पुलिस ने तीन दलालों को भी पकड़ा है. बस में भेड़-बकरी की तरह ठूंसकर इन मजदूरों को सूरत की कपड़ा मिल में काम करने के लिए ले जाया जा रहा था. रोहतास जिले में बाल तस्करी रोकने का काम कर रही संस्था सेंटर डायरेक्ट, पटना की सदस्य सविता पांडेय कहती हैं, "इधर फिर दलालों की सक्रियता बढ़ गई है. वे तरह-तरह के दांव-पेंच अपना रहे हैं. प्रलोभन में फंसकर इन बच्चों के मां-बाप उन्हें दलालों के साथ गुजरात के सूरत व राजस्थान के जयपुर भेज देते हैं."

उत्तरी बिहार से बच्चों की तस्करी

वाकई यह सच है कि वैसे तो संपूर्ण बिहार किंतु खासकर सीमांचल व कोसी बेल्ट यथा किशनगंज, पूर्णिया, अररिया, सहरसा, मधेपुरा, कटिहार व खगड़िया से सस्ते श्रम, मानव अंग, देह व्यापार एवं झूठी शादी के नाम पर बालक-बालिकाओं की तस्करी की जाती है. जाहिर है बाढ़ जैसी भयंकर आपदा के बाद पहले से ही गरीबी की मार झेल रहे परिवारों को गंभीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है. गरीबी के कारण उनमें आर्थिक असुरक्षा का भाव आता है. स्लीपर सेल की तरह काम करने वाले दलालों की नजर ऐसे परिवारों पर रहती है. कई बच्चे ऐसे होते हैं जो बाढ़ के दौरान जान बचाने की जद्दोजहद के बीच अपने मां-बाप से बिछुड़ जाते हैं. राहत शिविरों में रह रहे इन बच्चों पर भी मानव तस्करों की पैनी निगाह रहती है.

तस्वीर: DW/M. Kumar

स्थानीय अपराधियों से मिले ये दलाल दूर-दराज के गांवों में पहुंच जाते हैं. अपने नेटवर्क से मिले इनपुट के आधार पर ये बच्चे-बच्चियों के माता-पिता को बेहतर जिंदगी का सपना दिखाते हैं और एडवांस के तौर पर उनको अच्छी-खासी रकम दे देते हैं. इन तस्करों की सक्रियता पर पुलिस-प्रशासन भी ध्यान नहीं दे पाता है क्योंकि आपदा के समय में उनकी पहली प्राथमिकता लोगों की जान बचाने की होती है. बच्चे या बच्चियां जैसे ही मां-बाप द्वारा उनके हवाले कर दिए जाते हैं, वे उन्हें महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान,पंजाब, कोलकाता ले जाते हैं जहां उनकी मासूमियत को दरकिनार कर उन्हें घरेलू कामगार, ढाबों, ईंट उद्योग, कशीदाकारी, लोहा, चूड़ी या कालीन फैक्ट्री में झोंक दिया जाता है. कुछ दिनों तक तो मां-बाप से संपर्क बना रहता है लेकिन बाद में वह भी टूट जाता है.

दलाल के वादे के अनुसार मां-बाप को तो दूर, बच्चों को भी पगार नहीं दी जाती है. अब वहां वे बंधुआ मजदूर की तरह काम करते हैं. बच्चियों को तो इससे भी त्रासद स्थिति झेलनी पड़ती है. उन्हें देह व्यापार के धंधे में धकेल दिया जाता है. पूर्णिया जिले के बायसी में एक बच्चे को माता-पिता ने मानव तस्कर के हवाले कर दिया. उसने हर महीने पैसे भेजने का आश्वासन दिया था. कुछ दिनों बाद बच्चे का मां-बाप से संपर्क खत्म हो गया. काफी अरसे बाद जब पुलिस ने राजस्थान से कुछ बच्चों को मुक्त कराया तो उनमें बायसी का वह बच्चा भी था. इसी तरह 2018 में जब पुलिस ने सीमांचल एक्सप्रेस से बारह बच्चों को रेस्क्यू किया तो उस समय एक बच्चे ने बताया कि वह उसके गांव से आने वाले एक चाचा के साथ जा रहा था लेकिन जैसे ही पुलिस की गतिविधियां दिखी, चाचा गायब हो गया.

लॉकडाउन के बाद बाल तस्करी बढ़ने की आशंका

आंकड़ों के मुताबिक 2019 में सीमांचल के इलाके पूर्णिया से तीन, कटिहार से पांच, अररिया से चार, किशनगंज से तीन बच्चे लापता हो गए जबकि 2018 में 17 और 2017 में 24 बच्चों के गुम होने का मामला विभिन्न थानों में दर्ज हुआ. यही वजह है कि इस साल स्वयंसेवी संस्था बचपन बचाओ आंदोलन ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दखिल कर कहा है, "लॉकडाउन के बाद बाल तस्करी के मामलों में काफी वृद्धि की संभावना है. कोरोना के कारण आर्थिक संकट गहरा गया है. मानव तस्कर सक्रिय हो गए हैं और वे संभावित पीड़ित परिवारों को एडवांस पेमेंट भी कर रहे हैं. इस दिशा में गंभीर प्रयास करने की जरूरत हैं."

कोसी के इलाके में गरीब लोगों की बच्चियों को शादी के नाम पर गुमराह किया जाता है. उत्तरी बिहार के विभिन्न जिलों के कई थानों में ऐसे मामले दर्ज हैं. यहां ब्राइड ट्रैफिकिंग एक बड़ा मुद्दा है. जिन इलाकों में लिंगानुपात कम है वहां बच्चियां आसानी से मानव तस्करों की शिकार हो जातीं हैं. यहां मांग व आपूर्ति के हिसाब से झूठी शादियां होती हैं. इसके नाम पर यहां की अधिकतर बच्चियों को तथाकथित विवाह के बाद उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली व पंजाब भेज दिया जाता है. जहां उन्हें विवाह के नाम पर कई बार बेचा जाता है या फिर देह व्यापार के दलदल में धकेल दिया जाता है. जहां से जीवनभर वे घर वापसी की सोच भी नहीं सकती. सूत्रों के मुताबिक दस से पंद्रह ऐसे पुरुष व महिला मानव तस्कर हैं जो कई बरसों से कोसी व सीमांचल के इलाके में सक्रिय हैं.

तस्वीर: DW/M. Kumar

अगर कभी किसी बच्ची की वापसी हो भी जाती है तो तस्करों व स्थानीय अपराधियों के दहशत के मारे उसके मां-बाप आगे की कार्रवाई से हिचक जाते हैं जिससे गुनाहगारों को सजा नहीं मिल पाती है. बाल अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकारी तंत्र को ज्यादा सक्रिय होने की जरूरत है. खासकर राहत शिविरों का सर्वे किया जाना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि कहीं बच्चे गायब तो नहीं हो रहे. बाल मजदूरी विरोधी अभियान (सीएसीएल) के बिहार चैप्टर के राज्य संयोजक नवलेश कुमार कहते हैं, "बाढ़ के कारण विस्थापन की अवस्था में मानव तस्कर सक्रिय हो जाते हैं. मानव तस्करी रोकने के लिए राज्य में दिसंबर, 2008 से ही अस्तित्व नाम की योजना लागू है. किंतु इसके असर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे राज्य में नौ से चौदह साल की आयु के बाल श्रमिकों की संख्या दस लाख थी. चूंकि बाल तस्करी सीधे तौर पर बालश्रम से जुड़ा है इसलिए इस पर तो नियंत्रण पाना ही होगा."

बच्चों की तस्करी को रोकने के लिए सामाजिक चेतना

बच्चों के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था बचपन बचाओ आंदोलन के बिहार-झारखंड के राज्य संयोजक मुख्तारुल हक कहते हैं, "बिहार के करीब 11 लाख बच्चे देशभर में बतौर श्रमिक काम कर रहे हैं. अशिक्षा इसलिए है कि बच्चे स्कूल नहीं जा रहे. तो ये कहां जाएंगे. वे काम करने चले जाते हैं." कोविड व लॉकडाउन के कारण जो परिवार घर लौट आए थे, दलाल उन्हें प्रलोभन दे बस भेजकर काम पर बुलाने की व्यवस्था कर रहे हैं. जो श्रमिक लौट रहे हैं वे अपने बच्चों को भी ले जा रहे हैं. नेपाल के जो सात जिले बिहार के सीमांचल से लगते हैं, बाल तस्करी के लिए वे बड़े संवेदनशील है. हालांकि तस्करी रोकने को सरकार ने तमाम उपाय कर रखे हैं.

बिहार देश का पहला ऐसा राज्य है जहां 2009 में बालश्रम उन्मूलन, पुनर्वास व विमुक्ति के लिए कार्य योजना बनाई गई जिसमें सत्रह विभागों की हिस्सेदारी है. सभी की अपनी-अपनी जिम्मेदारी तय की गई है. जैसे शिक्षा विभाग रेस्क्यू किए गए बच्चों का स्कूल में नामांकन कराता है और फिर उसकी ट्रैकिंग की जाती है. वैसे भी बच्चों के पुनर्वास की सबसे अच्छी जगह स्कूल है. इसी तरह समाज कल्याण विभाग अनाथ बच्चों का लालन-पोषण करने वाले परिवार को परवरिश योजना के तहत एक हजार रुपये प्रतिमाह का भुगतान करता है. कुसहा त्रासदी के बाद रोकथाम के लिए अस्तित्व योजना को लागू किया गया जबकि पुलिस ने एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट (एएचटीयू) का गठन किया जिसका नोडल अफसर डीएसपी स्तर के अधिकारी को बनाया गया. मुख्तारुल हक कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि इसे रोकने के प्रावधान नहीं बनाए गए हैं. किंतु बगैर सामाजिक चेतना व व्यावहारिक परिवर्तन के स्थिति को बदला नहीं जा सकता."  
बाल तस्करी रोकने की सरकारी व्यवस्थाएं जितनी हों लेकिन यह भी सच है पुलिस-प्रशासन की नाक के नीचे तस्करों का खेल बदस्तूर जारी है. बात भले ही बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की की जाती हो लेकिन आज भी मुनिया का सौदा हो रहा है. यह कटु सत्य है कि जब तक यह राजनीतिक दलों का मुद्दा नहीं बनेगा तब तक गरीबी, अंतरराज्यीय समन्वय में कमी, कमजोर अभियोजन के कारण मासूमों की सौदेबाजी होती रहेगी.

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