भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म आज से 150 साल पहले हुआ था. कभी सोचा है कि अगर कोई फोटोग्राफर ऐसी शख्सियत के पैरों के निशान खोजने निकले तो नतीजा क्या होगा? जर्मन फोटो कलाकार आन्या बोनहोफ ने यही किया.
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इसका नतीजा बड़ी तस्वीरों वाली एक किताब के रूप में सामने आया है जिसका नाम है ट्रैकिंग गांधी. यह किताब गांधी जयंती के ठीक पहले आई है. यह प्रोजेक्ट गांधी जी की जिंदगी को फिर से जीने का प्रोजेक्ट था, उन्हीं ठिकानों पर जहां उनकी जिंदगी बीती थी. किताब में दफ्तरों, सोने के कमरों, जेल की काल कोठरियों की तस्वीरें तो हैं ही जहां गांधीजी रहे थे, उन सड़कों, स्टेशनों या मैदानों की भी तस्वीरें हैं जिनकी गांधीजी की जिंदगी में अहम भूमिका रही है. आन्या बोनहोफ की खासियत ये है कि उन्हें तस्वीरों के माध्यम से गांधीजी की जीवनी के विभिन्न पन्नों को उकेरने का मौका मिला है.
आन्या बोनहोफ का भारत से निकट का रिश्ता रहा है. उन्होंने पिछले दस सालों में भारत से संबंधित कई किताबों और फोटो प्रदर्शनियों पर काम किया है. वह खासकर पूर्वी शहर कोलकाता से करीबी रूप से जुड़ी रही हैं. 2012 में कोलकाता के मजदूरों पर एक फोटो सिरीज छपी थी जिसका नाम था बहक. 2018 में प्रकाशित कृषक बंगाल के चावल उगाने वाले किसानों की कथा थी. 2015 में उन्हें भारत जर्मन संबंधों में योगदान के लिए गिजेला बॉन पुरस्कार से सम्मानित किया गया. ट्रैकिंग गांधी प्रोजेक्ट भी कई प्रदर्शनियों का स्रोत बना है. इस समय ये प्रदर्शनी 15 अक्टूबर से भारत में गांधी संग्रहालय में दिखाई जा रही है.
प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए आन्या बोनहोफ भारत में थीं. गांधीजी की 150वीं जयंती के मौके पर उनकी तस्वीरों की प्रदर्शनी उनके लिए भावनात्मक मौका था. वे कहती हैं, "पिछले साल ट्रैकिंग गांधी किताब पर शोध के लिए बहुत सारा समय यहां गुजारने के बाद प्रदर्शनी के मौके पर यहां होना भावुक करने वाला था." नई दिल्ली में चल रही प्रदर्शनी के दौरान गांधीजी की 1937 में दिल की धड़कनें सुनी जा सकती हैं. इसके लिए 1937 में कोलकाता में हुए गांधीजी के इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम टेस्ट की मदद ली गई है.
आन्या बोनहोफ ने गांधीजी की जीवनी को तस्वीरों के माध्यम से कहने का प्रोजेक्ट 2014 में शुरू किया और इस साल गर्मियों में किताब छपकर बाजार में आई. वे बताती हैं, "तस्वीरों के लिए कुछ जगहों की यात्रा करने के अलावा सतर्कता से शोध करना जरूरी था. साथ ही वहां के लोगों के साथ बातचीत भी ताकि गांधीजी की जिंदगी के महत्वपूर्ण ठिकानों और उसके राजनीतिक असर का पता लग सके."
बंटवारे से पहले का भारत, दक्षिण अफ्रीका और ब्रिटेन महात्मा गांधी की कर्मभूमि था. सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के अपने सिद्धांतों के कारण वे अपने जीवनकाल में ही दुनिया की प्रमुख हस्ती बन गए थे. आन्या बोनहोफ ने अपने कैमरे से तीन तरह के जगहों की तस्वीरें ली हैं. ऐसी जगहें जहां गांधीजी को आज भी याद किया जाता है, ऐसी जगहें जो आज भी नहीं बदली हैं, मसलन दक्षिण अफ्रीका और भारत की जेलें जहां गांधीजी कैद रहे थे और ऐसी जगहें जहां कोई भी स्मारक नहीं बचा है. डॉयचे वेले को एक इंटरव्यू में आन्या बोनहोफ ने कहा, "मेरा मकसद उन जगहों पर गांधीजी के प्रभामंडल को खोजना नहीं था, लेकिन तस्वीरों में उनकी कहानी कहने का यही एकमात्र रास्ता था."
गांधीजी के जीवनपथ पर चलते हुए 1974 में हागेन शहर में पैदा हुई जर्मन फोटो कलाकार को भारत में क्या समानताएं दिखीं. आन्या बोनहोफ बताती हैं, "पिछले दशक में भी मैंने भारत में बहुत से बदलाव देखे हैं. कोलकाता में मेरे दोस्त महिलाओं की बराबरी के लिए और प्लास्टिक के इस्तेमाल के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं." आन्या बोनहोफ को मलाल इस बात का है कि भारत में भी जीवन बहुत तेज हो गया है और पश्चिम से ली गई कुछ जीवनशैली ने भारतीय अस्मिता को दबा दिया है या ढक दिया है. इस समय आन्या बोनहोफ पुरुलिया में पानी के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं जो खासकर निचले तबके के लोगों के लिए बड़ी समस्या बनता जा रहा है. वे कहती हैं कि उन्हें भारत में काम करना बहुत पसंद है. "यहां बहुत सी ऐसी चीजें सघन रूप में मौजूद हैं जिनका हम पूरी दुनिया में अलग अलग पैमाने पर सामना कर रहे हैं." उनमें ऐसी समस्याएं भी हैं जिनके खिलाफ गांधीजी भी लड़ रहे थे.
महात्मा गांधी जहां भी रहे, आम लोगों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. भारत की आजादी के लिए अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया. आज उनकी 150वीं जयंती पर जर्मन फोटोग्राफर आन्या बोनहोफ अपनी तस्वीरों के माध्यम से श्रद्धाजलि दी.
तस्वीर: Anja Bohnhof
1893: दक्षिण अफ्रीका के नताल स्थित पीटरमारित्सबर्ग स्टेशन का वेटिंग हॉल
महात्मा गांधी को दक्षिण अफ्रीका आए कुछ ही दिए हुए थे. 7 जून 1893 को ट्रेन से डरबन से प्रिटोरिया जाते वक्त 'गोरा न होने' की वजह से उन्हें धक्का देकर फर्स्ट क्लास से बाहर निकाल दिया गया था. वह रात उन्होंने पीटरमारित्सबर्ग स्टेशन के इसी वेटिंग रूम बिताई थी, जिसके बाद उनकी जिंदगी बदल गई. गांधी एक शर्मीले वकील से दक्षिण अफ्रीका में भारतीय प्रवासी मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले एक्टिविस्ट बन गए.
तस्वीर: Anja Bohnhof
1913: दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिया के केंद्रीय कारागार का कम्युनिटी सेल
महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा के लिए अपनी जिंदगी के छह साल भारत और दक्षिण अफ्रीका की जेल में बिताए. उन्होंने इस वक्त का उपयोग रचनात्मक कार्यों में किया. जेल के अंदर रहते हुए पढ़ाई की और कई लेख लिखे. 18 दिसंबर 1913 को प्रिटोरिया जेल से छूटने के बाद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत के लिए निकल पड़े.
तस्वीर: Anja Bohnhof
1917: बिहार का मोतिहारी स्टेशन
वर्ष 1917 में महात्मा गांधी ने बिहार से 'चंपारण सत्याग्रह' की शुरुआत की. यहां उन्होंने उन किसानों की मदद की जिनसे अंग्रेजी सरकार जबरन नील की खेती करवा रही थी. दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद यह महात्मा गांधी का पहला अहिंसा आंदोलन था.
तस्वीर: Anja Bohnhof
1917/18: गांधी आदर्श माध्यमिक विद्यालय, बिहार
चंपारण में नील की खेती के विरोध में किसानों के समर्थन में आंदोलन करते हुए गांधी जी ने इस क्षेत्र को विकसित करने की मांग की. बड़हरवा लखनसेन के छोटे से गांव का यह स्कूल इस क्षेत्र में 1917 और 1918 के बीच स्थापित किया गया पहला विद्यालय था. गांधी अशिक्षा से लड़ते हुए लोगों का आत्मसम्मान को बढ़ाना चाहते थे.
तस्वीर: Anja Bohnhof
1919: नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद, गुजरात
गांधी जी ने अपने प्रयासों में मीडिया की शक्ति पर भरोसा किया. गांधी जी साप्ताहिक पत्रिका 'इंडियन ओपिनियन' का प्रकाशन करते थे. दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के खिलाफ होने वाले भेदभाव से लड़ने के लिए यह उनका एक प्रमुख मुखपत्र था. 1919 में भारत में उन्होंने गुजराती भाषा में नवजीवन पत्रिका की शुरुआत की.
तस्वीर: Anja Bohnhof
1936: सेवाग्राम आश्रम, वर्धा, महाराष्ट्र
साल 1936 से 1946 तक महात्मा गांधी महाराष्ट्र राज्य में वर्धा के समीप सेवाग्राम आश्रम में रहे. यहां वे भारत और पूरी दुनिया के नेताओं तथा मेहमानों से मिलते थे. उनकी झोपड़ी आज भी लगभग उसी हालात में है और महात्मा गांधी के सादगी भरे जीवन को दिखाता है. गांधी का आदर्श वाक्य था, 'मेरी जिंदगी ही मेरा संदेश है.'
तस्वीर: Anja Bohnhof
1927: सोदीपुर आश्रम, बैरकपुर, पश्चिम बंगाल
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के बैरकपुर स्थित सोदीपुर आश्रम की स्थापना 1921 में हुई थी. 1927 से 1947 के बीच महात्मा गांधी यहां लंबे समय तक ठहरे और कई नेताओं से मुलाकात की. वे मुसलमानों और हिंदुओं के बीच दंगों को शांत करने के लिए 6 नवंबर, 1946 को नोआखली के लिए रवाना हुए, लेकिन भारत के विभाजन को अब टाला नहीं जा सकता था.
नवंबर 1946 में गांधी जी नोआखली पहुंचे ताकि क्षेत्र में हो रहे दंगों को शांत करवाया जा सके. यह जगह आज के बांग्लादेश में है. यह दंगा हिंदू और मुस्लिम क्षेत्र के आधार पर भारत के संभावित विभाजन को लेकर शुरू हुआ था. 77 साल की उम्र में गांधी जी ने गंगा के डेल्टा वाले क्षेत्र में कठिन परिस्थितियों में मार्च निकाला था.
तस्वीर: Anja Bohnhof
1948: त्रिवेणी संगम, उत्तर प्रदेश
30 जनवरी को महात्मा गांधी की दिल्ली में हत्या कर दी गई. अंतिम संस्कार के बाद अधिकांश राख यमुना नदी और पौराणिक सरस्वती नदी के साथ गंगा के संगम पर प्रवाहित कर दिया गया. हिंदू मान्यता के अनुसार यहां प्रवाहित करने से आत्मा को मुक्ति मिल जाती है. साथ ही राख के कुछ हिस्से को भारत के कई गांवों व शहरों में पूजा के लिए ले जाया गया था.
तस्वीर: Anja Bohnhof
2019: पांच साल गांधी पर रखी नजर
"ट्रैकिंग गांधी," के लिए अपने शोध के दौरान डॉर्टमुंड की फोटोग्राफर आन्या बॉनहोफ ने भारत में महिला आश्रम का दौरा किया, जहां युवा महिलाएं शिक्षा ले रही हैं और सिलाई-बुनाई सीख रही हैं. बॉनहोफ ने महात्मा गांधी के चित्रों वाली एक पुस्तक तैयार की है. नई दिल्ली में स्थित राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय में 15 अक्टूबर, 2019 से उनके कार्यों का प्रदर्शन होगा. (रिपोर्टः स्टेफान डेगे)