मालदीव के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी और डॉनल्ड ट्रंप की बातचीत में राजनैतिक संकट पर चिंता तो चीन की मालदीव के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करने की नसीहत. मालदीव के मुद्दे पर आखिर भारत और चीन इतने जज्बाती क्यों हो रहे हैं?
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भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के बीच मालदीव के मुद्दे पर बातचीत के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय ने एक बयान जारी किया, "दोनों नेताओं ने मालदीव के राजनैतिक संकट पर चिंता जताई, साथ ही लोकतांत्रिक संस्थाओं व कानून के प्रति सम्मान की अहमियत का जिक्र किया."
इस मुद्दे पर भारत, अमेरिका, ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र एक तरफ खड़े हैं. वे मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करने की मांग कर रहे हैं. वहीं चीन दूसरे देशों को मालदीव में दखल न देने की नसीहत दे रहा है. वह यामीन के साथ खड़ा है. लेकिन मालदीव के राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अपनी राजनैतिक कब्र के तौर पर देख रहे हैं.
पांच फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए विपक्ष के कई बड़े नेताओं को रिहा करने का आदेश दिया था. कैद किए गए नेताओं पर देशद्रोह और आतंकवाद जैसे आरोप हैं. सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक इन आरोपों में कोई दम नहीं है, कोर्ट ने इन मामलों को राजनीति से प्रेरित भी बताया. अदालत के फैसले के बाद राष्ट्रपति अब्दुला यामीन पर इस्तीफे का दबाव पड़ने लगा. और यामीन ने इससे बचने के लिए देश में 15 दिन की इमरजेंसी लगा दी. इमरजेंसी लगाते ही सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस समेत दो जजों को गिरफ्तार किया गया. फिर विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हुई.
दक्षिण भारत के तट से 400 किलोमीटर दूर बसा मालदीव भारत का पापंरिक मित्र रहा है. भारत के समर्थन से वहां लोकतंत्र शुरू हुआ. बीते 20 साल में मालदीव दुनिया के टूरिज्म मैप पर बड़ा ठिकाना बनकर उभरा है. वहां दुनिया भर के अमीर लोग छुट्टियां मनाते हैं. देश की अर्थव्यवस्था पर्यटन से ही चल रही है. बीते दो दशकों में चीन में मध्य वर्ग का विस्तार हुआ है. चीन के लोग अब दुनिया भर में घूम रहे हैं. उनकी जेब में पैसा है और वह उसे खूब खर्च भी कर रहे हैं.
इस तरह बढ़ा रहा है चीन अपना रुतबा
दुनिया में चीन का बढ़ता दखल किसी से छिपा नहीं है. देश ने अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए तमाम नीतियों को कई स्तर पर लागू किया है. विदेश नीति और कूटनीति के अलावा देश अब संस्कृति और चीनी मूल्यों का भी प्रसार कर रहा है.
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मेड इन चाइना
"मेड इन चाइना" पहले वस्तुओं पर लगा एक लेबल हुआ करता था लेकिन चीन ने दुनिया में अब इसे एक ब्रांड के रूप में पेश करना शुरू कर दिया है. अब इस ब्रांड के जरिए देश न सिर्फ अपना कारोबार बढ़ा रहा है बल्कि चीनी संस्कृति और मूल्यों का प्रसार भी कर रहा है.
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सॉफ्ट पावर स्ट्रैटिजी
देश अपनी सॉफ्ट पावर स्ट्रैटिजी के तहत मुख्य रूप से संस्कृति पर जोर दे रहा है. इकॉनोमिक एंड पॉलिटिक्ल वीकली की एक रिपोर्ट मुताबिक साल 2004 से लेकर अब तक चीन ने दुनिया के 140 देशों में 500 कन्फ्यूशियस संस्थानों की स्थापना की. कन्फ्यूशियस चीन के एक बड़े सुधारक माने जाता हैं और इनकी शिक्षाओं को मानने वाले कन्फ्यूशियस धर्म का पालन करते हैं.
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भाषा का प्रभाव
चीन ने न सिर्फ देश की मंडारिन भाषा के लिए बल्कि मीडिया में भारी निवेश किया है. चीन की सरकारी समाचार एजेंसी ने दुनिया के 40 स्थानों पर अपने समाचार ब्यूरो खोले हैं. इसके साथ ही इसने रिपोर्टर्स की संख्या को भी बढ़ाया है. चीन ने अपनी अंतरराष्ट्रीय मीडिया सर्विस, चीन ग्लोबल टेलीविजन नेटवर्क को ऐसे पेश किया है कि वह अन्य वैश्विक सेवाओं मसलन बीबीसी, सीएनएन, अल जजीरा और डॉयचे वेले आदि से मुकाबला कर सकें.
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रेडियो का प्रसार
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि चीन की सरकारी रेडियो कंपनी दुनिया के 14 देशों में किसी न किसी के साथ मिलकर करीब 33 रेडियो स्टेशन चला रही है. इनमें अमेरिका प्रमुख है. रॉयटर्स के मुताबिक ये स्टेशन चीन के नकारात्मक पक्ष पर कभी चर्चा नहीं करते.
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इंटरनेट और ई-कॉमर्स
चीन की सरकार अपनी ऑनलाइन पहुंच बढ़ाने के लिए भी लगातार काम कर रही है. पिछले साल सरकारी मीडिया समूह ने अंग्रेजी की मुफ्त बेवसाइट को लॉन्च किया. ये बेवसाइट कई बार हल्की टिप्पणी करती है तो कभी कड़ी आलोचना भी करती है. वहीं चीन की सबसे बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी अलीबाबा की लोकप्रियता भी दुनिया भर में बढ़ रही है.
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बीते एक दशक में चीन का बढ़ता प्रभाव मालदीव तक भी पहुंचा है. मालदीव में चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश किया. पोर्ट और आधारभूत ढांचा बनाने में चीन अब एक्सपर्ट हो चुका है. उसकी इस क्षमता का इस्तेमाल कई देश करना चाहते हैं. पश्चिम के मुकाबले चीन की सेवाएं सस्ती हैं. इन सेवाओं के चलते चीन को दूसरे देशों के बाजार तक पहुंच भी मिलती है. निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था वाले चीन को नए बाजारों की हर वक्त भूख रहती है.
दूसरी तरफ भारत अपनी आर्थिक समृद्धि को पड़ोसी देशों के साथ बांटने में नाकाम रहा है. इंजीनियरिंग और रिसर्च एंड डेवलमेंट के मामले में भी चीन के मुकाबले भारत काफी पिछड़ा हुआ है. ऊपर से नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से नई दिल्ली के संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं. नेपाल जैसे छोटे देश में कभी भारत से आने वाले तेल की सप्लाई बंद हो जाती है तो श्रीलंका के साथ चाय, टूरिज्म और जल संसाधनों को लेकर खींचतान लगी रहती है. पाकिस्तान से तल्खी तो जगजाहिर ही है.
सुरक्षा का मुद्दा इन समीकरणों और जटिल बना देता है. बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान और जिबूती जैसे देशों में बड़े बंदरगाह बनाकर चीन ने अपने कारोबारी और सैन्य हित साध लिए हैं. भारत अब भी अपने ही भीतर उलझा हुआ है. इसका साफ उदाहरण इस बात से भी मिल जाता है कि 1947 में भारत के पास चीन से कहीं ज्यादा बड़ा रेल नेटवर्क था. लेकिन 70 साल बाद अब चीन भारत से बहुत ही आगे निकल चुका है. उसके पास वर्ल्ड क्लास ट्रेन नेटवर्क है, सबसे बड़े पोर्ट हैं, सैकड़ों एयरपोर्ट हैं. इंजीनियरिंग में तो वह आगे है ही.
लेकिन इस बढ़त का इस्तेमाल चीन अपने सामरिक हितों की रक्षा से ज्यादा दूसरों को दबाने के लिए भी करने लगा है. और बीजिंग का यही रुख पडोसी देश भारत, जापान और आसियान को खटक रहा है. पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और म्यामांर में भारी निवेश के बाद चीन अब हिंद महासागर में भी अपनी पैठ काफी गहरी कर चुका है. भारतीय रक्षा विशेषज्ञों को लगता है कि चीन भारत को जमीन और पानी दोनों तरफ से घेर रहा है. इसके जवाब में भारत वियतनाम, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ मिलकर चीन के विस्तार को रोकना चाह रहा है. मालदीव, जैसे देश तो बस इस शतरंज के पैदल मोहरे हैं, लेकिन वक्त आने मोहरे भी राजा को खतरे में डाल सकते हैं.
क्या है चीन का "वन बेल्ट, वन रोड" प्रोजेक्ट
900 अरब डॉलर की लागत से चीन कई नए अंतरराष्ट्रीय रूट बनाना चाहता है. वन बेल्ट, वन रोड नाम के अभियान के तहत बीजिंग ये सब करेगा.
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चीन-मंगोलिया-रूस
जून 2016 में इस प्रोजेक्ट पर चीन, मंगोलिया और रूस ने हस्ताक्षर किये. जिनइंग से शुरू होने वाला यह हाइवे मध्य पूर्वी मंगोलिया को पार करता हुआ मध्य रूस पहुंचेगा.
न्यू यूरेशियन लैंड ब्रिज
इस योजना के तहत चीन यूरोप से रेल के जरिये जुड़ चुका है. लेकिन सड़क मार्ग की संभावनाएं भी बेहतर की जाएंगी. 10,000 किलोमीटर से लंबा रास्ता कजाखस्तान और रूस से होता हुआ यूरोप तक पहुंचेगा.
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चाइना-पाकिस्तान कॉरिडोर
56 अरब डॉलर वाला यह प्रोजेक्ट चीन के पश्चिमी शिनजियांग प्रांत को कश्मीर और पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से जोड़ेगा.
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चाइना-सेंट्रल एंड वेस्ट एशिया कॉरिडोर
सदियों पुराने असली सिल्क रूट वाले इस रास्ते को अब रेल और सड़क मार्ग में तब्दील करने की योजना है. कॉरिडोर कजाखस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान, ईरान, सऊदी अरब और तुर्की को जो़ड़ेगा.
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दक्षिण पूर्वी एशियाई कॉरिडोर
इस कॉरिडोर के तहत चीन की परियोजना म्यांमार, वियतनाम, लाओस, थाइलैंड से गुजरती हुई इंडोनेशिया तक पहुंचेगी.
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चाइना-बांग्लादेश-इंडिया-म्यांमार कॉरिडोर
इस परियोजना के तहत इन चार देशों को सड़क के जरिये जोड़ा जाना था. लेकिन भारत की आपत्तियों को चलते यह ठंडे बस्ते में जा चुकी है. अब चीन बांग्लादेश और म्यांमार को जोड़ेगा.
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चाइना-नेपाल-इंडिया कॉरिडोर
म्यांमार के अलावा चीन नेपाल के रास्ते भी भारत से संपर्क जोड़ना चाहता है. इसी को ध्यान में रखते हुए चीन ने नेपाल को भी वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट में शामिल किया है.
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प्रोजेक्ट का मकसद
वन बेल्ट, वन रूट जैसी योजनाओं की बदौलत चीन करीब 60 देशों तक सीधी पहुंच बनाना चाहता है. परियोजना के तहत पुल, सुरंग और आधारभूत ढांचे पर तेजी से काम किया जा रहा है. निर्यात पर निर्भर चीन को नए बाजार चाहिए. बीजिंग को लगता है कि ये सड़कें उसकी अर्थव्यवस्था के लिए जीवनधारा बनेंगी.
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अमेरिका नहीं, चीन
डॉनल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों के चलते दुनिया भर के देशों को अमेरिका से मोहभंग हो रहा है. चीन इस स्थिति का फायदा उठाना चाहता है. बीजिंग खुद को अंतरराष्ट्रीय व्यापार की धुरी बनाने का सपना देख रहा है. इसी वजह से इन परियोजनाओं पर तेजी से काम हो रहा है.