बालिग होता नवाबों का शहर
१२ फ़रवरी २०१३ओके टाटा बाई बाई नाम के नाटक में जैसे डायलॉग हैं, वे अगर बंबईया फिल्मों में होते, तो सिर्फ फर्स्ट क्लास के दर्शकों से सीटी और हूटिंग का सामना करना पड़ता. लेकिन नजाकत और नफासत की परंपरा वाले लखनऊ के संजीदा दर्शकों ने बारीकी से इस ड्रामे को समझने की कोशिश की. इप्टा के रंगकर्मी राकेश कहते हैं कि दर्शक समझदार हो रहा है और नाटक इसमें अहम भूमिका निभा रहे हैं, "रंगमंच हमेशा से परिपक्वता का परिचय देता है."
सिर्फ वयस्कों के लिए इस नाटक में मध्य प्रदेश के बांछड़ा जनजाति की कहानी है. लंबे वक्त से इस जनजाति की लड़कियां देह व्यापार में लगी हैं. ड्रामे की कहानी में एक महिला फिल्मकार उन लड़कियों को समझाने निकलती है, जो इस पेशे में लगी हैं. लेकिन उनके जीवन को जानने समझने के बाद वह अपना मिशन बीच में छोड़ देती है. ड्रामे में रूढ़िवादी समाज और परंपरा की मुश्किलों को खूबसूरती से दिखाया गया है. लखनऊ के दर्शक इसे देखते हुए खामोश बैठे रहे और जब जब तालियां बजीं, कहानी की गंभीरता समझ में आई.
शहर की शान
लखनऊ के सबसे मशहूर नवाब वाजिद अली शाह के घराने के मीर जाफर अब्दुल्लाह इसे लखनवी तहजीब बताते हैं, "यह शहर अपने वजूद से ही संगीत और सांस्कृतिक तहजीब का बहुत बड़ा केंद्र रहा है. कथक जैसा नृत्य लखनऊ की देन है. यहां कभी संकुचित विचार वालों को जगह नहीं मिली और ऐसे में इस शहर के लोगों से इतनी परिपक्वता की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए." ड्रामे को प्रतिष्ठित रॉयल कोर्ट ऑफ लंदन 2013 में दिखाया जाना है, जबकि इस साल यह लाडली मीडिया पुरस्कार जीतने की होड़ में भी शामिल है.
ओके टाटा बाई बाई से पहले वयस्कों का नाटक वजाइना मोनोलॉग भी लखनऊ में दिखाया गया, जो इतना कामयाब रहा कि अंग्रेजी के बाद इसे हिन्दी में दिखाया गया. इस नाटक के आयोजक भौमिक रॉय तो इस कामयाबी से हैरान हैं, "आयोजन में 25 लाख रुपये लगे थे और हमें कोई घाटा नहीं हुआ. सारे टिकट दो दिन पहले ही बिक गए." नाटकों के विषय को देखते हुए मायावती की पुरानी सरकार ने इनके प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी. लगभग दो साल की मेहनत के बाद इन्हें लखनऊ में दिखाया जा सका.
समझ बढ़ाते दर्शक
भारत के कई शहरों में प्रतिबंधित वजाइना मोनोलॉग अंतरराष्ट्रीय ड्रामा है, जिसमें औरतों के जननांगों के बारे में नाटककर्मी खुल कर बात करते हैं. इसके सह निर्माता कायजाद कोतवाल का कहना है, "अमेरिका में ओप्रा विंफ्री और जूलिया रॉबर्ट्स जैसी अभिनेत्रियां यह नाटक करती हैं और हम चाहते थे कि मशहूर अभिनेत्रियां इसमें काम करें." निर्देशक माहबानो कोतवाल बताती हैं कि वर्जना से भरे समाज में मशहूर अभिनेत्रियों ने इतनी हिम्मत नहीं दिखाई, "एक अभिनेत्री ने कहा कि मेरे गुरुजी नाटक देखने आएंगे, तो मैं उनके सामने वजाइना शब्द कैसे कह पाऊंगी."
लेकिन कम मशहूर अदाकारों के साथ भी नाटक ने लखनऊ में रिकॉर्डतोड़ कामयाबी हासिल की. आम तौर पर फिल्मों की सीटें खाली रह जाती हैं, पर इन दोनों नाटकों को खड़े होकर देखने वालों की भी कमी नहीं थी. हालांकि विरोध के कुछ स्वर भी उठे. भारतेंदु नाट्य अकादमी के चित्रमोहन इस ड्रामे को देख कर बेहद नाराज हैं, "इसके बाद तो पोर्नोग्राफी को भी मंच पर दिखाने की इजाजत दे दी जानी चाहिए." इसी तरह ओके टाटा बाई बाई को देखने आए कुछ "सभ्य" लोगों को जब ड्रामा पसंद नहीं आया, तो वे बीच में ही चले गए. पर उनकी कुर्सियां खाली नहीं रहीं. खचाखच भरे हॉल में इन पर कब्जा करने वाले लोगों की कतार लगी थी.
रिपोर्टः सुहेल वहीद, लखनऊ
संपादनः अनवर जे अशरफ