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बाल मजदूरी में पिसता बचपन

१२ जून २०१३

दुनिया के कई देशों में आज भी बच्चों को बचपन नसीब नहीं है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 12 जून बाल मजदूरी के विरोध का दिन है. अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन आईएलओ 2002 से हर साल इसे मना रहा है.

तस्वीर: AP

दुनिया भर में बड़ी संख्या में बच्चे मजदूरी कर कर रहे हैं. इनका आसानी से शोषण हो सकता है. उनसे काम दबा छिपा के करवाया जाता है. वे परिवार से दूर अकेले इस शोषण का शिकार होते हैं. घरों में काम करने वाले बच्चों के साथ बुरा व्यवहार बहुत आम बात है.

बाल मजदूरी की समस्या तो विकराल है लेकिन कुछ अच्छी कोशिशें नजर आ रही हैं. कर्मचारी संघों और नियोक्ता संगठनों के बाल मजदूरी के खिलाफ कदम उठाने के कुछ उदाहरण सामने आ रहे है, खासकर ग्रामीण इलाकों में. संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर लिखा है, "तमिलनाडु और मध्यप्रदेश के कर्मचारी संघों में ग्रामीण सदस्य कोशिश कर रहे हैं कि उनका गांव बाल श्रमिकहीन गांव बने. कई लोग बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए एक साथ काम कर रहे हैं." भारत में बाल मजदूरी की क्या स्थिति है ये जानने के लिए डॉयचे वेले हिन्दी ने सोहा मोइत्रा से बात की. सोहा बच्चों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन क्राय की निदेशक(उत्तर) हैं.

तस्वीर: AP

डॉयचे वेलेः भारत में बाल मजदूरी की क्या स्थिति है?

सोहा मोइत्राः पहले मैं आपको थोड़ी पृष्ठभूमि बताना चाहूंगी. 1992 में भारत ने कहा था कि भारत की आर्थिक व्यवस्था देखते हुए हम बाल मजदूरी हटाने का काम रुक रुक कर करेंगे क्योंकि हम यह एकदम से रोक नहीं पाएंगे. दुख की बात यह है कि आज 21 साल बाद भी हम बाल मजदूरी खत्म नहीं कर पाए हैं और आज भी पूरी तरह से इसके खात्मे की बात बहुत दूर लग रही है. अगर हम बालश्रम मंत्रालय के ही आंकड़े ले लें तो वो एक करोड़ बच्चों की बात करते हैं. साफ है कि यह संख्या कम है. इनमें से 50 फीसदी बच्चे लड़कियां हैं. जिनमें से कई तस्करी का भी शिकार होती हैं.

लक्ष्य पूरा नहीं होने के क्या कारण आपको दिखाई पड़ते हैं?

कई कारण हैं. हमारे देश में बच्चों के लिए काफी सारे अधिनियम हैं. हर एक्ट में बच्चे की उम्र का पैमाना अलग अलग है. इससे कंपनी को या उन लोगों को फायदा हो जाता है जो मजदूरों को रखते हैं. जैसे चाइल्ड लेबर एक्ट में 14 साल से कम उम्र के बच्चे को काम पर रखना गैरकानूनी है. जबकि शादी के लिए कम से कम उम्र की सीमा 21 साल है तो वोटिंग के लिए 18. 15 साल का बच्चा भी बड़ा नहीं होता. वह चाइल्ड लेबर एक्ट में जा सकता है. बच्चे की कॉमन परिभाषा नहीं है. दूसरा मुद्दा यह है कि भारत में बच्चों के लिए काम करने वाली स्वास्थ्य, श्रम जैसे अलग अलग विभागों के बीच आपस में कोई सामंजस्य नहीं है.

अगर सिर्फ चाइल्ड लेबर एक्ट की बात करें तो उसमें क्या क्या कमियां हैं?

कई ऐसी बाते हैं जो चाइल्ड लेबर एक्ट में ली ही नहीं जा रही. जैसे पारिवारिक धंधे में बच्चे होते हैं. खेती में या फिर मछली पालन उद्योग में. या फिर छोटे मोटे कामों में लगे हुए बच्चों की संख्या आंकड़ों में नहीं आ रही है. मान लिया जाता है कि जो घरेलू स्तर पर काम कर रहे हैं वो सुरक्षित ही होंगे. जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है. यहां भी शोषण की कई खबरें सामने आती हैं. अगर आप यूएन सीआरसी की परिभाषा देखें तो वो कहती हैं कि जो भी बच्चे ऐसे कामों से जुड़े हैं वो अपने बचपन से वंचित हो गए हैं. अपने सामर्थ्य और गौरव से वंचित हैं और उनके मानसिक और शारीरिक विकास के लिए जो भी काम हानिकारक है वो भी बाल मजदूरी कहलाती है.

दूसरी एक बात यह भी है कि अगर एक्ट को भी अच्छी तरह से लागू कर दे तो भी बहुत कुछ हो जाएगा लेकिन वो भी नहीं होता. मजदूरी कराने वालों के हिसाब से काम होता है. बच्चों से मजदूरी करवाने की जो सजा है वो बिलकुल सख्त नहीं है. या तो तीन महीने की सजा होगी या फिर 20 हजार का जुर्माना. दोनों में से एक ही सजा मिलती है तो अधिकतर लोग जुर्माना दे कर छूट जाते हैं. फिर ऐसे मामलों की जल्द सुनवाई भी नहीं होती. बच्चे पुनर्वास केंद्रों में फंसे रहते हैं. वहां की हालत कैसी है ये सभी जानते हैं.

तस्वीर: Roberto Schmidt/AFP/GettyImages

भारत के किस राज्य में बाल मजदूरी के आंकड़े सबसे बुरे हैं

उम्र के हिसाब से अगर बात करें तो 10 से 14 साल की उम्र के बच्चों से मजदूरी के मामले में उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, असम, कर्नाटक, का हाल बहुत बुरा है. क्राय ने 2009-10 का विश्लेषण किया था. जिसमें देखा गया कि 10 से 18 साल के बच्चों में 42 फीसदी बच्चे असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं और इतने ही बिना किसी मजदूरी के काम कर रहे हैं. याद रखिए कि ये आंकड़े सरकारी हैं. दिल्ली की अगर बात करें तो यहां सबसे ज्यादा समस्या गायब होते बच्चों की है. यहां हर दिन कम से कम 14 बच्चे गायब हो जाते हैं. ये फिर या तो बाल मजदूरी का शिकार होते हैं या फिर तस्करी का. (बच्चों के लिए डरावनी दिल्ली)

इंटरव्यूः आभा मोंढे

संपादनः एन रंजन

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