बाहरी जानवरों से संरक्षण
२५ जुलाई २०१३पर्यावरण संरक्षकों को बाहरी जानवरों को किसी भी नए इलाके में लाने से सबसे ज्यादा नफरत है. ऐसे जानवरों का स्वागत नहीं होता जो या तो जानबूझकर या गलती से लाए गए हों और बेरोकटोक अपनी आबादी बढ़ा रहे हों और स्थानीय जीवों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हों. अक्सर उनसे पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता. इसकी एक बड़ी मिसाल पूर्वोत्तर ऑस्ट्रेलिया का मरीन मेढक. 1930 के दशक में गन्ने के खेतों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों पर काबू पाने के लिए इसे बाहर से लाया गया, लेकिन उसने खुद प्लेग का रूप ले लिया है और जैव विविधता को प्रभावित कर रहा है.
लेकिन अब इकोसिस्टम में बाहरी जीव जंतुओं को लाने पर नजरिया बदल रहा है. मॉरीशस के तट से कुछ ही दूरी पर स्थित छोटे से द्वीप इल ओ एगरेट पर कुछ ऐसे जानवरों को लाया जा रहा है जो उन जीवों की जगह लेंगे और उनका काम करेंगे जो इस बीच समाप्त हो चुके हैं. मॉरीशस वाइल्डलाइफ फाउंडेशन के विकाश तताया कहते हैं, "निश्चित तौर पर आम धारणा यह है कि बाहरी जीवों को इकोसिस्टम से बाहर रखा जाए. लेकिन हम यहां कह रहे हैं, उन्हें लाओ."
मनचाहे मेहमान
पिछले तीन दशकों से पर्यावरण संरक्षक इल ओ एगरेट द्वीप पर मॉरीशस के मूल इकोसिस्टम को फिर से बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने वहां से अधिकांश बाहरी पेड़ पौधों और चूहों, खरगोश और बकरी जैसे जानवरों को हटा दिया है, मॉरीशस के मूल जंगलों को फिर से लगाया है और लुप्त हो रहे स्थानीय पक्षियों, सरीसृप (रेंगने वाले जानवर) और पौधों को वापस लाया है, जो सिर्फ मॉरीशस में ही होते हैं. लेकिन इल ओ एगरेट में लाए गए सारे जीव मॉरीशस के मूलवासी नहीं हैं. तताया और उनकी टीम हाल ही में पड़ोसी देश के विशालकाय कछुओं को लाए हैं. द्वीप पर घूमते हुए ऐसे 23 बड़े कछुओं को अक्सर देखा जा सकता है. वे अंडे देते हैं और नई पीढ़ी पैदा कर रहे हैं.
हिंद महासागर में बसा 13 लाख की आबादी वाला छोटा सा देश मॉरीशस आबादी और भारी ट्रैफिक के बोझ तले दबता दिख रहा है. इसका असर वहां के पर्यावरण पर भी पड़ रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि जब से वहां इंसानों ने बसना शुरू किया है, स्थानीय पेड़ पौधों और जीव जंतुओं की करीब सौ प्रजातियां लुप्त हो गई हैं. पहले वहां विशाल कछुओं की दो प्रजातियां हुआ करती थीं, लेकिन इस बीच उनका नामोनिशान नहीं रहा. कछुए जब फल खाते हैं तो उनके बीज पेट में चले जाते हैं और जब वे मल के साथ बाहर निकलते हैं तो वे अंकुरित होते हैं. तताया कहते हैं, "बाहर से लाए गए कछुए वह काम कर रहे हैं जो स्थानीय कछुए करते."
धीमा परिवर्तन
गायब हो गए कछुओं की जगह नए कछुओं को लाना इल ओ एगरेट द्वीप के लिए नई बात नहीं है. मॉरीशस के दूसरे हिस्सों के अलावा गालापागोस में ऐसा किया जा चुका है. लेकिन कुछ रिसर्चरों ने इस बात की चेतावनी दी है कि इस परीक्षण के नतीजे गलत साबित हो सकते हैं. गालापागोस के पिंटा द्वीप पर न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी की एलिजाबेथ हंटर और उनकी साथियों ने पाया कि बाहर से लाए गए कछुओं की प्रजातियों ने द्वीप पर लुप्त हुए कछुओं के मुकाबले रहने के लिए एकदम अलग इलाका चुना और इसलिए दूसरे प्रकार के पौधों को अपना आहार बनाया.
जर्मन शहर ड्रेसडेन में सेंकेनबर्ग जैविक म्यूजियम के रिसर्चर ऊवे फ्रित्स मानते हैं कि बाहरी प्रजातियां कुछ अनचाहे नतीजे पैदा कर सकती हैं. लेकिन विशालकाय कछुओं के मामले में इस तरह के खतरे नियंत्रण में लाने लायक हैं. उन्होंने डॉयचे वेले को बताया कि कछुए अंडे देने में बहुत समय लेते हैं, इसलिए "इसकी संभावना नहीं है कि मॉरीशस में बड़े कछुओं का प्लेग फैल जाएगा." इसके अलावा जरूरत पड़ने पर उन्हें वहां से हटाया भी जा सकता है.
वैश्विक विचार
जानवरों की प्रजातियों को किसी नए इलाके में लाने का विचार सिर्फ कछुओं तक ही सीमित नहीं है. जर्मनी और केंद्रीय यूरोप में 17वीं सदी में लुप्त हो गए पुराने घरेलू मवेशियों की जगह पर नए सींगों वाले सांड और गायों की नस्लें तैयार की गईं. लुप्त होने से पहले ये मवेशी यूरोप, एशिया और उत्तरी अफ्रीका में पाए जाते थे. जर्मनी के म्यूनिख और बर्लिन चिड़ियाघर के निदेशकों लुत्स हेक और हाइन्त्स हेक ने करीब सौ साल पहले उन्हें फिर से आधुनिक मवेशियों की मदद से ब्रीड किया था.
हेक के नाम से जाने जाने वाले मवेशी प्राचीन मवेशियों की तुलना में फिर भी अलग हैं. वे उनसे छोटे और भारी हैं. लेकिन फ्रित्स बताते हैं कि वे वही काम करते हैं. चरने के दौरान वे लैंडस्केप को खुला रखते हैं और झाड़ियों और पेड़ों को अंधाधुंध बढ़ने से रोकते हैं. लेकिन आलोचकों का कहना है कि लुप्त हो गए जानवर इस काम को बेहतर तरीके से किया करते थे.
इल ओ एगरेट टापू पर नई प्रजातियों को लाना विकाश तताया के अनुसार बहुत बड़ी सफलता रही है. अब वे सेशल्स के निचले इलाके के जंगलों से फ्लाइटलेस रेल पक्षियों को लाना चाहते हैं. मॉरीशस की रेल पक्षियां भी वहां के विख्यात डोडो पक्षी की तरह बहुत पहले ही खत्म हो गईं हैं.
रिपोर्ट: ब्रिगिटे ओस्टरराथ/एमजे
संपादन: ए जमाल