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बिना कैमरे के होगी अब पत्रकारिता

२३ जून २०१७

जर्मनी के शहर बॉन में अंतरराष्ट्रीय मीडिया सम्मेलन "ग्लोबल मीडिया फोरम" का आयोजन हुआ. थीम थी, यूनिटी इन डॉयवर्सिटी. दुनिया भर के लोग आये और फोरम बन गया आकांक्षाओं और उम्मीदों का फोरम.

Impressions / Global Media Forum 2017 / Wednesday, June 21
तस्वीर: DW/H. W. Lamberz

अंतरराष्ट्रीय स्तर के किसी ऐसे कार्यक्रम में शामिल होना मेरे लिये बेहद ही रोमांचक अनुभव था. कार्यक्रम में न सिर्फ पत्रकार, फोटोग्राफर, ब्लॉगर, राजनीतिज्ञ शामिल हुए बल्कि वो हस्तियां भी आईं जिनके बोलने से, जिनके कुछ कहने से या जिनकी समझ लोगों को प्रभावित कर सकती है. इस श्रेणी में गायक, मौलवी, उद्यमी, स्टूडेंट्स सभी आते हैं. कार्यक्रम में वैश्विक सहयोग पर बात हुई और सभी प्रतिनिधियों ने इसकी पुरजोर वकालत भी की. लेकिन फोरम के तमाम सेशन में जिन मुद्दों को उठाया गया और जिन पर बहस की गई उन सबमें एक बात सामने आयी कि सहयोग अब सिर्फ बहसों तक सीमित रह गया है. और संघर्ष सिर्फ वैचारिक नहीं रह गया है व्यावहारिक रूप से उभर कर सामने आ गया है. संघर्ष का स्तर इतना बढ़ गया है कि आपसी विश्वास की कमी महसूस होने लगी है. विश्वास की इस कमी ने मीडिया को भी मोटे तौर पर जकड़ लिया है और शायद यही कारण था कि फोरम में सभी मुद्दे इसी अविश्वास के इर्द गिर्द घूमते रहे.

अरब देशों से लेकर अफ्रीकी महीद्वीप तक और एशिया से लेकर यूरोप तक जिस मुद्दे को सभी पक्षों ने उठाया वह था, फेक न्यूज का मुद्दा. इंटरनेट की सहज उपलब्धता ने बेशक लोगों को डिजिटल रूप से सक्षम बना दिया है लेकिन आज पत्रकारों के लिये आम पाठक को यह विश्वास दिला पाना कठिन हो गया है कि क्या सही है और क्या गलत. पोलैंड के एक वरिष्ठ पत्रकार ने पॉपुलिज्म का शिकार हो रही मीडिया पर बेबाक बात की और न सिर्फ पोलैंड के आंतरिक हालातों से बल्कि वहां पत्रकारों की स्थिति पर भी चर्चा की.

मिस्र से ताल्लुक रखने वाले डॉयचे वैले के एक वरिष्ठ पत्रकार ने नेपोलियन और बिस्मार्क का उदाहरण देते हुए कहा कि दुनिया के लिये फेक न्यूज का मुद्दा कोई नहीं है लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने जिस बखूबी से इसका इस्तेमाल किया है वह नया है. उन्होंने कहा कि ये उनके आकर्षक व्यक्तित्व का असर है कि आज हम इस पर बात कर रहे हैं.

तस्वीर: DW/S. Niloy

विविधताओं में जिस एकता की बात की जा रही थी, वह आज के दौर में बिल्कुल नजर नहीं आती. एमनेस्टी इंटरनेशनल के प्रतिनिधि ने एकता की इस कमी को "मी वर्सेज देम" की लड़ाई बताया. उन्होंने दुनिया में बढ़ रहे संघर्ष पर तो चर्चा की लेकिन सऊदी अरब के रुख पर वह कुछ खास बोलते नजर नहीं आये.

मिस्र की एक सिंगर ने भी इस कार्यक्रम में शिरकत कर अरब देशों में महिला अधिकारों के लिये क्रांति की आवाज बुलंद की. हालांकि मेरे लिये सबसे हैरानी वाला सेशन भी यही रहा जहां इस उभरती हुई सिंगर के विरोध में बोल रही एक अरब महिला ने औरतों के अधिकारों को सरे से नकार दिया. इनका तर्क था कि महिलाओं को परदे में इसलिये रहना चाहिए क्योंकि वे लॉलीपॉप हैं अगर खुलेंगी तो उनपर हमला हो जायेगा. एक अन्य सेशन में पत्रकारिता जगत में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने की बात की गई. यूरोप में बैठकर महिलाओं को प्रोत्साहन देने के लिए आरक्षण जैसे विषयों पर विमर्श करना मेरे लिये बेहद ही असहज था लेकिन कुछ देर बाद अहसास हुआ कि बेशक आज दुनिया से उपनिवेश का दौर खत्म हो चुका है लेकिन अब भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां महिलाएं अब भी उपनिवेश बनी हुई हैं.

खैर, यहां एक सेशन भी था जिसमें दुनिया भर से आई इस पढ़ी-लिखी जनता ने स्मार्ट होने पर चर्चा की. चर्चा थी स्मार्ट फोन, स्मार्ट डिवाइसेज के साथ स्मार्ट पत्रकारिता की. टेक्नोलॉजी ने पत्रकारों की कलम को पहले ही काफी राहत दे दी थी लेकिन यहां टेक चर्चा सुनने के बाद समझ आया कि अब वो दौर दूर नहीं जहां कैमरों की भी जरूरत नहीं पड़ेगी.

अपूर्वा अग्रवाल

सलिल शेट्टीतस्वीर: DW/K. Danetzki
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