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समाज

गले की फांस बन रहा सूचना मांगने का अधिकार

मनीष कुमार
२२ जनवरी २०२१

आरटीआई के तहत सूचना मांगने का अधिकार तो मिल गया, किंतु वास्तविकता यह है कि विभागों से जानकारी मांगना बिहार में गले की फांस बनता जा रहा है. इनके उत्पीड़न का मामले लगातार बढ़ रहे हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/imageBROKER/C. Ohde

सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के जरिए लोगों को किसी भी सरकारी विभाग से उससे संबंधित क्रियाकलापों के संबंध में अद्यतन जानकारी मांगने का अधिकार तो मिल गया, किंतु इसके साथ-साथ सूचना मांगने वालों को संबंधित अधिकारियों या कर्मचारियों का कोपभाजन भी बनना पड़ रहा है. ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमें आरटीआई कार्यकर्ता के खिलाफ तरह-तरह के आरोप लगाते हुए मुकदमे दर्ज करा दिए गए. आमजन के लिए प्राथमिकी दर्ज कराना जहां टेढ़ी खीर है, वहीं पुलिस अफसरों या बाबुओं की तरफ से एफआइआर दर्ज करने में उदार रवैया अपनाती है.

आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमे

पिछले दशक में करीब 206 आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ रंगदारी मांगने, अपहरण के प्रयास, एससी-एसटी एक्ट के तहत उत्पीड़न, धमकी देने या छेड़खानी जैसे मामले दर्ज कराए गए. सूचना मांगने वाले ये सभी लोग मुकदमेबाजी में उलझे हैं. गृह विभाग द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार इन लोगों ने अब राज्य सरकार व राज्य सूचना आयोग से न्याय की गुहार लगाई है. दरअसल लोक कल्याण से संबंधित सरकारी योजनाओं में अनियमितता या लापरवाही जैसी करतूत को छिपाने वाले अधिकारी या कर्मचारी आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ प्रतिशोधात्मक कार्रवाई करते हुए फर्जी मुकदमा दर्ज कराते हैं.

आरटीआई के अधिकतर मामले पंचायती राज, नगर निगम, ग्रामीण व नगर विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, भूमि सुधार, राजस्व तथा पुलिस से जुड़े होते हैं. यह देखा गया है कि अगर संबंधित अफसर अनुसूचित जाति या जनजाति का पदाधिकारी है तो वह एससीएसटी एक्ट के तहत उत्पीड़न का मामला दर्ज कराता है और वहीं अगर महिला अफसर है तो छेड़खानी का आरोप लगाते हुए फर्जी एफआइआर दर्ज कराने से गुरेज नहीं करती है.

दिलचस्प यह है कि ये फर्जी मुकदमे पुलिस द्वारा आसानी से दर्ज कर लिए जाते हैं. और अगर मामला पुलिस अधिकारी या कर्मचारी से जुड़ा हो तो फिर पूछिए ही मत. वैसे भी अधिसंख्य मामलों में सरकारी कर्मचारी या अधिकारी आरटीआई की अर्जियों पर गौर फरमाना ही लाजिमी नहीं समझते और अगर कहीं से मामला उनके कृत्यों को उजागर करने वाला होता है तो प्रथमदृष्टया आवेदक को डराते-धमकाते हैं और अगर दबाव बढ़ा तो फिर झूठा मुकदमा दर्ज करा देते हैं.

नागरिक अधिकार मंच के संयोजक व जाने-माने आरटीआई कार्यकर्ता शिव प्रकाश राय कहते हैं, ‘‘मेरे जैसे लोगों को रंगदारी मांगने जैसे अपराध के मुकदमे की पीड़ा झेलनी पड़ रही है. मेरा कसूर यही था कि मैंने बक्सर के एसपी से जिला पुलिस में व्याप्त अनियमितताओं से संबंधित सूचना मांगी थी. इस मामले में मैंने बक्सर के तत्कालीन एसपी के खिलाफ दुर्व्यवहार का केस दर्ज कराया है, लेकिन पुलिस महानिदेशक तक मामला पहुंचने के बावजूद अबतक कोई कार्रवाई नहीं की गई है.''

बेगूसराय के सत्तर वर्षीय गिरीश गुप्ता कहते हैं, ‘‘मैंने स्थानीय पुलिस वालों से यह सूचना मांगी थी कि अपने-अपने जन्मदिन के मौके पर वे जो विज्ञापन प्रकाशित करवाते हैं, क्या उसका जिक्र वे आयकर रिटर्न फाइल करते वक्त विवरणी में करते हैं. इसका नतीजा यह हुआ कि पिछले साल मई महीने में मुझे घर में घुसकर सरकारी कर्मी द्वारा पीटा गया और मेरे ऊपर लॉकडाउन के उल्लंघन का मुकदमा दर्ज कर दिया गया.'' इसी तरह का एक और दिलचस्प मामला तब सामने आया था जब एक समाचार पत्र ने इसे प्रकाशित किया था. इस मामले में एक आरटीआई कार्यकर्ता के नाबालिग पुत्र को आर्म्स एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज करते हुए रिमांड होम की बजाए जेल भेज दिया गया था. उसके पिता ने आठ वर्षों में पैक्स के द्वारा धान की खरीद का ब्योरा मांगा था.

उत्पीड़न की जांच पर ध्यान नहीं

ऐसा नहीं है कि सूचना मांगने वालों के हो रहे उत्पीड़न पर सरकार का ध्यान नहीं है. सरकार भी यह समझती है कि आरटीआई एक्टिविस्टों के खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज कराए जा रहे हैं और ऐसे मामलों की संख्या में लगातार वृद्धि ही दर्ज हो रही है. जानकारी के मुताबिक फर्जी मुकदमों के इन मामलों की जांच के लिए सरकार ने डीजीपी तथा गृह सचिव के नेतृत्व में 2010 में एक कमिटी बनाई थी. समिति को इन मामलों के त्वरित निष्पादन का निर्देश दिया गया था, किंतु परिणाम वही ढाक के तीन पात.

कई मामलों में तो जांच का जिम्मा उन अफसरों को ही दे दिया गया जिनके खिलाफ आरटीआई कार्यकर्ता को प्रताड़ित करने का आरोप लगाया गया है. जबकि प्रावधान यह है कि आरटीआई एक्टिविस्ट की प्रताड़ना से संबंधित मामलों को शिकायत दर्ज होने के एक माह के अंदर निष्पादित कर दिया जाए. पुलिस अधीक्षक (एसपी) इन मामलों की निगरानी करें और यदि आरोप एसपी पर ही है तो उसे पुलिस महानिरीक्षक (आइजी) देखें.

वहीं शिकायतों की जांच की स्थिति पर शिव प्रकाश राय कहते हैं, ‘‘जब मैंने इससे संबंधित जानकारी मांगी तो मुझे बताया गया कि 184 मामलों का निपटारा कर दिया गया, किंतु यह नहीं बताया गया कि आरोपित अधिकारियों-कर्मचारियों या उत्पीड़न के जिम्मेदार व्यक्ति विशेष के खिलाफ कार्रवाई क्या की गई.'' हालांकि इस संबंध में गृह विभाग के एडिशनल सेक्रेटरी आमिर सुबहानी कहते हैं, ‘‘मामला संज्ञान में आया है. इस मामले को विभाग देखेगा.'' वहीं नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर राज्य सूचना आयोग के एक अधिकारी ने बताया, ‘‘आरटीआई एक्टिविस्टों की प्रताड़ना के मामलों के प्रति आयोग गंभीर है. आरोपित 54 अधिकारियों-कर्मचारियों को दंडित करते हुए उनके खिलाफ जुर्माना लगाया गया है.''

सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत यह प्रावधान है कि आवेदक को 30 दिन अंदर संबंधित विभागीय अधिकारी द्वारा उपलब्ध करा दी जाए. इसके लिए लोक सूचना अधिकारी नियुक्त किए गए हैं, किंतु कई मामलों में वांछित जानकारी के लिए लोगों को सालभर से अधिक इंतजार करना पड़ता है. और जब लोग अपनी शिकायत लेकर राज्य सूचना आयोग पहुंचते हैं तो वहां भी तय की गई तीस दिन की अवधि में कोई सुनवाई नहीं होती. सीतामढ़ी के अशोक चौधरी कहते हैं, "मामलों में सुनवाई साल-दो साल बाद होती है. सूचना आयोग में भी पारदर्शिता नहीं है. वहीं सूचना आयोग के एक अधिकारी के अनुसार एक-एक दिन में सौ से अधिक मामले अपील में आते है और उनमें करीब 90 से अधिक मामलों की सुनवाई की जा रही है. कुछ लोग इस कानून का दुरुपयोग भी कर रहे हैं."

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