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समाज

बिहार में आखिर बार-बार क्यों आती है बाढ़

मनीष कुमार, पटना
१४ अगस्त २०२०

बिहार करीब चालीस साल से ज्यादा समय से हर साल बाढ़ की त्रासदी झेल रहा है. हर नई सरकार के दावे के बावजूद तमाम व्यवस्थाएं प्रत्येक साल ध्वस्त हो जाती हैं और लाखों की आबादी इसका दंश झेलने को विवश होती है.

Indien | Überschwemmungen in Bihar
तस्वीर: Reuters/Stringer

बाढ़ से बचने को जैसे-जैसे बांधों-तटबंधों की लंबाई बढ़ती गई वैसे-वैसे बाढ़ प्रभावित इलाके का क्षेत्रफल भी बढ़ता गया. सब कुछ लील लेने को पानी की रफ्तार भी उतनी ही तेजी से बढ़ती गई और विनाश की कहानियों के नए अध्याय जुड़ते चले गए. ऐसा नहीं कि हर साल की इस विनाशलीला से निपटने के उपाय सोचे व ढूंढे नहीं गए. सरकार के नुमाइंदों की एक बड़ी फौज ने इसे रोकने के हरसंभव जतन किए लेकिन प्रकृति के इस कोप को टालने में कामयाब नहीं हुए. जल संसाधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक बिहार का करीब 68,800 वर्ग किलोमीटर का इलाका हर साल बाढ़ में डूब जाता है. 1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने कोसी परियोजना का शिलान्यास करते हुए कहा था कि अगले पंद्रह सालों में बिहार की बाढ़ की समस्या पर नियंत्रण कर लिया जाएगा, किंतु 67 साल बाद स्थिति जस की तस है.
यक्ष प्रश्न यह है कि आखिर हर साल बिहार में बाढ़ आती क्यों है? इस प्रश्न के जवाब में वरिष्ठ इंजीनियर व प्रख्यात बाढ़ विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, "हमारी भौगोलिक स्थिति ही ऐसी है कि हमारे यहां पानी आएगा, बाढ़ आएगी. इसको कम किया जा सकता है, रोका नहीं जा सकता है. भूगर्भीय प्रक्रिया के तहत पानी आएगा, मिट्टी आएगी. सच यह है कि पानी का क्या किया जाना है, यह हम जानते हैं किंतु मिट्टी का क्या करेंगे, यह हमें नहीं मालूम है." करीब नौ हजार साल पहले जब खेती की शुरूआत हुई तो कालक्रम में पानी का प्राचुर्य, नदी के जरिए आने-जाने की सुविधा और उपजाऊ जमीन के कारण हमारे पुरखों ने नदी किनारे बसना शुरू किया. जाहिर है, नदी ने इंसानी जिंदगी में दखलंदाजी नहीं की बल्कि इंसान ने नदी के क्षेत्र में दखल किया.

बह जाती हैं सड़केंतस्वीर: Getty Images/AFP/D. Dutta

नेपाल से आता है बाढ़ का पानी

दरअसल बिहार में बाढ़ की वजह नेपाल से आने वाला पानी है. बिहार के सात जिले यथा पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, सीतामढ़ी, मधुबनी, सुपौल, अररिया व किशनगंज नेपाल से सटे हैं. नेपाल एक पहाड़ी देश है. यहां जैसे ही भारी बारिश होती है वहां की नदियों का पानी बिहार में आने लगता है. नेपाल की सात बड़ी नदियां कोसी नदी में मिलती है. कोसी को बिहार का शोक कहा जाता है. कोसी भारत व नेपाल के बहुत बड़े भूभाग पर फैली हुई है. इसका जलग्रहण क्षेत्र 95,656 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. जो माउंट एवरेस्ट एवं कंचनजंघा होते हुए गंगा नदी तक जाता है. गंगा में मिलने से पहले कोसी बिहार की कई प्रमुख नदियों को अपने से समेट लेती है. गंगा में मिलने तक कोसी द्वारा तय की गई 729 किलोमीटर है जिसमें करीब 260 किमी का इलाका भारत में है.

नेपाल में पत्थरों के उत्खनन व खेती के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई की गई. इसलिए जल अधिग्रहण क्षेत्र में कमी आने से बारिश का पानी रूकने की बजाए तेजी से बहकर नीचे चला आता है. इससे बिहार में कोसी, गंगा, महानंदा, बागमती, बूढ़ीगंडक, परमान, कनकई व अधवारा समूह की नदियों में पानी खतरे के निशान के ऊपर चला आता है. कोसी, नारायणी, कर्माली, महाकाली व राप्ती ऐसी नदियां है जो नेपाल के बाद बिहार में बहती है.1954 में बनी कोसी परियोजना बाढ़ को रोकने की पहली परियोजना थी. बिहार में फरक्का बराज को भी बाढ़ की वजह माना जाता है. गंगा व अन्य सहायक नदियां अपने साथ गाद (सिल्ट) लाती हैं, इससे नदी का स्वाभाविक जलप्रवाह बाधित होता है और गाद मुहाने पर जमा होने लगता है. पहले भी गाद आती थी जो पानी के साथ बह जाती थी. तटबंधों व बराज के कारण ये गाद अब बह नहीं पाते. जाहिर है यह गाद नदी को उथला बना देती है. इसलिए नदियां दिनोंदिन आक्रामक होती जा रहीं हैं.

डूब जाते हैं घरतस्वीर: CARE

गाद की समस्या
बाढ़ विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, "बिहार में बाढ़ की समस्या की मूल वजह पानी की निकासी न होना और उसके साथ आने वाला गाद है. कोसी पहले अलग-अलग पंद्रह धाराओं में बहती थी किंतु 1950 के दशक में कोसी पर बांध बना दिया गया. उसे बांधने की कोशिश नाकाम रही और कोसी पहले से और ताकतवर हो गई. तटबंध समस्या को बढ़ाते हैं, उसका समाधान नहीं करते." वे कहते हैं, "जो तटबंध के अंदर बसते हैं वे भी और जो बाहर बसते हैं वे भी, प्रभावित होते हैं. बचाव के क्रम में जैसे-जैसे बांध ऊंचा किया गया, लोग असुरक्षित होते चले गए. मिट्टी के बने बांध को तो टूटना ही है और इस स्थिति में जब टूटेगा तो पानी ज्यादा खतरनाक साबित होगा. पहले भी पानी आता था लेकिन निकल जाता था. किंतु हमने बांध बनाकर इसे प्रलंयकारी बना दिया. बिल्ली का क्या करेंगे यह हम जानते थे किंतु बाघ का क्या होगा, यह हमें नहीं पता."

आशय यह है कि कितना भी मजबूत बांध बनाया जाए, यदि वह नहीं टूटा तो अंदरवाले और अगर टूट गया तो बाहर वाले प्रभावित होंगे. दोनों ही स्थिति में जानमाल का एवं आर्थिक नुकसान होता है. अंग्रेजों ने शायद इसे समझ लिया था इसलिए 1850 के दशक में बनाया गया बांध उन्होंने 1860 के दशक में तोड़ दिया. समाधान के संबंध में दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, "तय हुआ कि नेपाल में बराज क्षेत्र में बांध बनाया जाए. 1937 में प्रस्ताव आया और तब से इसके लिए वार्ता चल रही है. नेपाल और भारत, दोनों के लिए यह फायदेमंद है तो 83 साल में यह क्यों नहीं बना. चार जगहों पर यह बांध नेपाल प्रक्षेत्र में बनना है. राजनीतिक कारणों से यह बन नहीं पा रहा. वैसे भी टेक्नॉलाजी की मर्यादा है. उसके साथ प्राइस टैग लगा है जिसके आर्थिक पहलू हैं. नेपाल के भरोसे नहीं, हमें अपनी जमीन पर अपने संसाधनों से समाधान ढूंढना होगा. जो पानी आ रहा है उसे नदियों की विभिन्न धाराओं में बहने देना होगा ताकि उसका वेग कम हो सके. इसके साथ ही एक लोक शिक्षण का कार्यक्रम चलाना होगा. लोगों को समझाना होगा कि कई कारणों से बाढ़ के बिना हमारा जीवन नहीं चल सकता, पानी हमारे लिए जरूरी है. साथ ही जो भी योजना बने वह जिनके लिए बनाई जा रही उनसे बात करके कार्यान्वित की जाए."

सड़कों पर रहने को बेवश लोगतस्वीर: picture alliance/AP/dpa/A. A. Siddiqui

दशकों से टूटते रहे हैं तटबंध

कोसी पर बने तटबंध 1963 के बाद से ही विभिन्न स्थानों पर टूटते रहे हैं. लेकिन इनकी वजहों से किसी सरकार ने कोई सबक नहीं लिया. खराब योजना, गलत क्रियान्वयन एवं जलनिकासी के अवैज्ञानिक कारण बाढ़ का कारण बनते रहे. गाद अब इतनी बड़ी समस्या बन गई है कि जिसका कोई उपाय नहीं सूझ रहा. गंगा के मुहाने पर इतनी गाद जमा है कि फरक्का बराज को तोड़ने की चर्चा शुरू हो रही है. नदी के स्वाभाविक बहाव को रोका गया तब गाद समस्या बन गई अन्यथा नदियां तो गाद प्रबंधन खुद कर रही थीं. हर साल तटबंध का टूटना यह चेतावनी देता है कि यह अल्पकालीन समाधान भी नहीं है. किंतु राजनीतिज्ञ, अफसर व ठेकेदारों का नापाक गठबंधन बाढ़ को एक अवसर के रूप में देखता है जिसके तहत अवैध कमाई की जा सके. पानी को रोकने, राहत पहुंचाने तथा पुनर्वास के नाम पर होने वाली सलाना लूट जगजाहिर है तभी तो बाढ़ घोटाला सामने आया. 2008 में जब कुसहा तटबंध टूटा था तो करीब 35 लाख की आबादी इससे प्रभावित हुई थी और करीब चार लाख मकान तबाह हो गए थे. इस घटना से भी कोई सबक नहीं लिया गया.

आज भी तटबंध के अंदर रहने वाले बारिश के मौसम में जब घर छोड़कर बाहर जाते हैं तो उन्हें यह नहीं पता होता कि लौटने पर उनका घर-द्वार पानी में विलीन हो चुका होगा या उनके गांव का ही अस्तित्व ही मिट गया होगा. जबतक अधिकारियों और ठेकेदारों की जिम्मेदारी तय कर सजा का प्रावधान नहीं किया जाएगा, कोई न कोई तटबंध टूटता रहेगा और बाढ़ व राहत नेताओं, अफसरों, ठेकेदारों एवं बिचौलियों के लिए एक उद्योग बना रहेगा. मुजफ्फरपुर का उदाहरण लीजिए, वहां 19 दिन में 17 स्थानों पर तटबंध टूटा. जबकि पिछले एक साल में इन तटबंधों की मरम्मत पर 200 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे. नेपाल भी बिहार के लिए समस्याएं खड़ी कर रहा है. नेपाल समझौते के तहत सीमावर्ती इलाके में बिहार सरकार का जलसंसाधन विभाग बाढ़ प्रबंधन का काम करता है जिसमें कुछ वर्षों से नेपाल सहयोग नहीं कर रहा. इस साल भी मधेपुरा जिले में बांध की मरम्मत तथा मधुबनी जिले में नो मेंस लैंड पर बने बांध की मरम्मत में नेपाल ने सहयोग नहीं किया. इस आशय की शिकायत बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते दिनों बाढ़ की स्थिति पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी की है.
पर्यावरण में आ रहे बदलाव से नदी का व्यवहार बदल रहा है. अतीत की गलतियों से सबक लेते हुए अपनी जमीन पर अपने संसाधनों से उपाय सुनिश्चित करना होगा. सरकार की अनदेखी, दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, नियंत्रण की पुरानी नीति और भ्रष्टाचार का अर्थतंत्र जब तक हावी रहेगा तब तक लोग बाढ़ का दंश झेलने को विवश होते रहेंगे.

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