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बिहार में धुरंधरों का चुनावी दंगल

२० अप्रैल २००९

राजनीतिक रूप से यूपी बिहार इतने उपजाऊ रहे हैं कि यहां से उठे आंदोलन भारतीय राजनीति को एक दिशा देते रहे हैं. इस बार भी इन राज्यों पर सबकी नज़रें हैं, जहां लोकसभा की कुल 120 सीटें हैं. यूपी के बाद बात करते हैं बिहार की.

पासवान, मुलायम और लालू का गठबंधनतस्वीर: UNI

शायद आपने यह जुमला सुना हो, ''समोसे में जब तक आलू रहेगा, बिहार में लालू रहेगा.'' लेकिन कुछ चुनावी पंडित कह रहे हैं कि इस बार बिहार में रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की आरजेडी कोई ज़्यादा अच्छी हालत में नहीं है. लोग मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के काम से ख़ुश बताए जाते हैं और विकास के नाम पर वोट देना चाहते हैं. हालांकि यूपीए सरकार में रेल मंत्री रहते लालू ने न सिर्फ़ रेल मंत्रालय को फ़ायदे में पहुंचाया बल्कि बहुत सी नई रेल गाड़ियों का इंजन बिहार की तरफ़ भी मोड़ा है. शायद रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के पांच साल पर बिहार में आरजेडी का 15 साल का शासन भारी पड़ रहा है और इसीलिए लोगों को नीतिश की बात ज़्यादा समझ में आ रही है. बावजूद इसके जातिगत समीकरण चुनाव में हमेशा की तरह बड़ी भूमिका अदा करेंगे.

नीतिश के काम से 'ख़ुश' लोगतस्वीर: UNI

पिछली बार आरजेडी बिहार में 22 सीटें जीतकर केंद्र में किंगमेकर की भूमिका में उभरी थी. लेकिन 2005 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद लालू को बदले हालात का अंदाज़ा है. इसलिए वह रामविलास पासवान और मुलायम सिंह का साथ लेकर चुनाव मैदान में उतरे हैं. लंबी चली बातचीत के बाद कांग्रेस से बात नहीं बन पाई और बिहार में यूपीए बिखर गया. यूपीए के तीन घटक आरजेडी, एलजेपी और समाजवादी पार्टी मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं और कांग्रेस अकेले. हालांकि पिछली बार आरजेडी के सहयोग से 3 सीटें जीतने वाली कांग्रेस के लिए बिहार में खोने के लिए ज़्यादा कुछ है भी नहीं.

पटना साहिब से बीजेपी के उम्मीदवार हैं अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हातस्वीर: UNI

पिछले आम चुनाव ने एनडीए को बिहार में अच्छे नतीजे नहीं दिए. जेडी (यू) को छह जबकि बीजेपी को पांच सीटों पर संतोष करना पड़ा. लेकिन इस बार संभावनाएं बेहतर बताई जा रही है. कह सकते हैं कि दिल्ली की गद्दी तक पहुंचने के लिए एनडीए जो दावे कर रहा है उसमें बिहार पर भी खासी उम्मीदें टिकी हैं. हालांकि आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव यह मानने को तैयार नहीं कि बिहार में उनका जादू फीका पड़ा है. वह तर्क देते हैं कि विधानसभा चुनाव आरजेडी, एलजेपी और समाजवादी पार्टी ने अलग अलग लड़ा था और तकरीबन 100 सीटों पर हार का अंतर 500 से हज़ार के बीच था. इसीलिए नीतिश कुमार का राजनीतिक जन्म हुआ. इस बार तीनों पार्टियों एक साथ हैं, तो नतीजे उनके ही हक में जाएंगे.

पिछली बार चार सीटें जीतने वाली लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान बिहार में दलित राजनीति के अहम स्तंभ है. वह हाल के वर्षों में बनी हर सरकार का हिस्सा रहे हैं. सरकार चाहे तीसरे मोर्चे की हो, एनडीए हो या फिर यूपीए की, वह सभी सरकारों में मंत्री रहे हैं. एनडीए से गुजरात दंगों के मुद्दों पर अलग हुए थे, वरना गठबंधन धर्म को उन्होंने पूरी तरह निभाया है. अब भी निभा रहे हैं. कांग्रेस से गठबंधन भले ही नहीं हो पाया हो लेकिन पासवान और उनके साथी लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह कह रहे हैं कि वे यूपीए का ही हिस्सा है.

राबड़ी देवी भी बढ़ चढ़कर कर रही हैं चुनाव प्रचारतस्वीर: UNI

बीजेपी और जेडी यू में भी सीटों को लेकर खींचतान तो हुई थी, लेकिन बाद में बात बन गई. दोनों पार्टियां जानती है कि गठबंधन किसी एक की नहीं, बल्कि दोनों की ज़रूरत है. जनबल, धनबल और बाहुबल से लैस बिहार की राजनीतिक व्यवस्था में मतदाताओं पर सबकी नज़रें हैं. उनके वोट से तय होगी लोकसभा की 40 सीटें जिनसे कहीं न कहीं तय होगा दिल्ली में केंद्र की सरकार का स्वरूप भी.

-अशोक कुमार

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