बीड़ी बनाने में राख हो रही हैं सैकड़ों जिंदगियां
७ मई २०२१औरतें ही नहीं, बच्चे भी इस काम में लगे दिख जाएंगे. लेकिन यह काम खतरनाक है. और मेहनताना बेहद कम. इसलिए सामाजिक कार्यकर्ता चाहते हैं कि इन बीड़ी बनाने वाले कामगारों को सुरक्षा और अधिकार मिलें.
बीड़ी बनाना मुर्शिदाबाद में घरेलू उद्योग है. कुछ मजदूर दिन में एक हजार बीड़ी बनाकर सौ रुपये कमाते हैं. मुर्शिदाबाद में काम करने वालीं सामाजिक कार्यकर्ता जीनत रेहाना इस्लाम बताती हैं कि पेशे में काफी महिलाएं हैं जो आर्थिक कारणों से यह काम करती हैं.
वह कहती हैं, "बीड़ी में जो चीजें डलती हैं वे सांस के जरिए बनाने वालों के भीतर भी जाती हैं, जिनसे गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं जैसे कि कमर दर्द, बांझपन और अंधापन भी. लेकिन इनसे भी बड़ी समस्या है इन महिलाओं का आर्थिक शोषण."
इस्लाम कहती हैं कि पेशे में लगे कई बच्चे और काम करती अपनी मां के पास रहने वाले बच्चे भी बीड़ी से प्रभावित हो रहे हैं.
मंजुरी देबनाथ के झुर्रियों से भरे चेहरे को देखकर लगता नहीं कि उनकी उम्र अभी सिर्फ 40 हुई है. तीस साल से बीड़ी बना रही मंजुरी की आंखों की रोशनी काफी कम हो गई है. हानिकारक रसायनों के बीच सांस लेते रहने के कारण अब अक्सर उन्हें चक्कर आते हैं.
वह कहती हैं, "मैंने अपना घर चलाने के लिए बीड़ी बनाना शुरू किया था. ये ना करूं तो एक वक्त का खाना भी खरीदना मुश्किल हो जाएगा."
मंजुरी देबनाथ को इस बात का अफसोस है कि बीड़ी मजदूरों के लिए सरकार को कल्याणकारी योजनाएं चलाती है, उसका लाभ उन्हें नहीं मिलता. इस योजना के तहत हर बीड़ी मजदूर को 20,000 रुपये की सब्सिडी मिलती है. लेकिन ज्यादातर महिलाएं इस योजना का लाभ नहीं उठा पातीं.
28 साल की रिंपा बीबी की शादी बचपन में ही हो गई थी. इसलिए वह अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाईं. 14 साल की उम्र में उन्हें पहला बच्चा हुआ और 16 साल की होते होते वह दो बच्चों की मां थीं. वह लुधियाना में एक टायर फैक्ट्री में काम करती थीं जो पिछले साल लॉकडाउन में बंद हो गई. उसके बाद रिंपा गांव लौट आईं और बीड़ी बनाने लगीं.
अपने बच्चों का जिक्र करते हुए वह कहती हैं, "अभी तो इतना पैसा कमाना है कि बच्चों को ठीक से पढ़ा-लिखा सकें ताकि इन्हें मेरे जैसा काम ना करना पड़े." रिंपा के ही गांव की अर्जीना अपनी मां को बीड़ी बनाते देखते हुए बड़ी हुईं. मां के काम का असर उनकी सेहत पर भी हुआ जो तीस की उम्र होने से पहले ही दिखने लगा.
वह बताती हैं कि पिछली प्रेग्नेंसी में उनकी जान जाते जाते बची. डॉयचे वेले को उन्होंने बताया, "एक दिन मैं बेहोश हो गई और जब आंख खुली तो अस्पताल में थी. डॉक्टर बोले कि वे या तो मुझे बचा सकते हैं या मेरे बच्चे को. मेरा बहुत खून बह रहा था." रिंपा और अर्जीना अब बीड़ी बनाने वालों के लिए बेहतर परिस्थितयां जुटाने के वास्ते काम करती हैं.
मंजुरी देबनाथ और रिंपा बीबी एक संगठित कामगार समूह का हिस्सा हैं और अपने अधिकारों के बारे में सामान्य जानकारी रखती हैं. लेकिन लालबाग प्रभाग के लालगोला गांव में हालात एकदम अलग हैं.
सकीना (बदला हुआ नाम) किसी संगठित समूह का हिस्सा नहीं हैं वह कहतीं कि बीड़ी बनाना उनके लिए बच्चों की जिम्मेदारी से जुड़ा है जिससे वह मुंह नहीं मोड़ सकतीं. सकीना को एक दिन में एक हजार बीड़ी बनाने पर सिर्फ 80 रुपये मिलते हैं.
वह कहती हैं, "हमारी पड़ोसन बताती है कि कई बार पेंशन के पैसे कट जाते हैं. पेंशन क्या होता है मुझे नहीं पता." सकीना यह भी नहीं जानतीं कि वह एक बीड़ी कंपनी के लिए काम करती हैं. वह तो बस 'महाजन' को जानती हैं जो रोज बीड़ी लेने आता है.
इसी गांव की 12 साल की अर्शिया ने भी अब बीड़ी बनाना शुरू कर दिया है. लॉकडाउन के कारण उसका स्कूल बंद हो गया तो पढ़ाई छूट गई. वह कहती है कि उसे काम में मजा आता है. डॉयचे वेले से बातचीत में अर्शिया कहती हैं, "मजा आता है. जल्दी से जल्दी बीड़ी लपेटनी होती है. उम्मीद है कि एक दिन हम अपनी शादी के लिए पैसा जमा कर लेंगी और अपना खर्चा खुद उठाएंगी."
स्थानीय कार्यकर्ता निहारूल इस्लाम कहती हैं कि अब कई लड़कियां दूसरे पेशों के बारे में भी सोचने लगी हैं. उन्होंने बताया, "अगर टीएमसी सरकार की योजना जारी रहती है तो बीड़ी बनाना पुरानी बात हो जाएगी. कन्याश्री प्रकल्पा योजना के तहत लड़कियों को सालाना वजीफा और एकमुश्त 25 हजार रुपये मिलते हैं." इसलिए काफी माता-पिता अपनी लड़कियों को बीड़ी बनाने के खतरनाक पेशे में लगाने की बजाय स्कूल भेज रहे हैं.