सिंधु घाटी सभ्यता पर हुए एक ताजा अध्ययन में पता चला है कि उस समय के लोगों के भोजन में मांस का वर्चस्व था, जिसमें गो-मांस भी शामिल था. यह जानकारी उस समय के बर्तनों में बचे लिपिड अवशेषों के अध्ययन से मिली है.
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नए अध्ययन के नतीजे 'जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस' में छपे हैं. इसे अध्ययन का नेतृत्व कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पीएचडी स्कॉलर अक्षयेता सूर्यनारायण कर रही थीं. इसके लेखकों में पुणे के डेक्कन कॉलेज के पूर्व उप-कुलपति और जाने-माने पुरातत्वविद प्रोफेसर वसंत शिंडे और बीएचयू के प्रोफेसर रविंद्र एन सिंह भी शामिल हैं.
अध्ययन के लिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश में हड़प्पा से जुड़े स्थलों पर मिले मिट्टी के बर्तनों में वसा के अवशेषों का विश्लेषण किया गया. विश्लेषण में सूअरों, गाय-बैलों, भैंसों, भेंड़-बकरियों जैसे पशु उत्पाद और डेरी उत्पादों के अवशेष मिले. अध्ययन के अनुसार अवशेषों में पालतू जानवरों में से 50 से 60 प्रतिशत हड्डियां गाय, बैलों और भैंसों की मिली हैं और केवल 10 प्रतिशत हड्डियां भेड़ों और बकरियों की थीं.
उनके अनुसार यह इस बात का संकेत है कि सिंधु घाटी की सभ्यताओं में सांस्कृतिक तौर पर भोजन में बीफ खाने में पसंद की वस्तु रही होगी. हड़प्पा में 90 प्रतिशत गाय-बैलों को तीन, साढ़े तीन साल तक की उम्र तक जिन्दा रखा जाता था. मादा पशुओं को डेरी उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जाता था और नर पशुओं को सामान खींचने के लिए.
कई स्थानों पर बर्तनों में कम मात्रा में हिरन, खरगोश, पक्षी और जलचरों के भी अवशेष मिले हैं. कुछ विशेष किस्म के मर्तबानों की समीक्षा में वाइन और तेल के भंडारण के भी संकेत मिले हैं. सिंधु घाटी सभ्यता आधुनिक पाकिस्तान, उत्तर-पश्चिमी और पश्चिमी भारत अफगानिस्तान में फैली हुई थी.
इस अध्ययन में पांच गांवों और दो कस्बों पर ध्यान केंद्रित किया गया है. गांवों में आलमगीरपुर (मेरठ, उत्तर प्रदेश), मसूदपुर (हिसार, हरियाणा) में दो गांव, लोहारी राघो (हिसार) और खनक (भिवानी, हरियाणा) शामिल हैं. कस्बों में फरमाना (जिला रोहतक, हरियाणा) और राखीगढ़ी (हिसार) शामिल हैं.
बहुत ही कम लोग जानते हैं कि सऊदी अरब में मक्का मदीना और तेल के साथ ही बहुत समृद्ध धरोहरें भी हैं. इन धरोहरों तक जाने की अब तक विदेशियों को अनुमति नहीं थी.
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पौराणिक सभ्यता
सऊदी अरब का दक्षिण पश्चिमी शहर अल उला प्राचीन काल में अहम कारोबारी ठिकाना हुआ करता था. यह शहर पुरातत्व संबंधी अवशेषों से भरा पड़ा है. ऐसी ही धरोहरों में यह गुंबद भी शामिल हैं.
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111 कब्रें
अल उला के पास ही मदा इन में भी एक आर्कियोलॉजिकल साइट है. यह 2008 से यूनेस्को विश्व धरोहर है. सन 2000 में यहां प्राचीन काल की 111 कब्रें मिलीं. कब्रों को चट्टान काटकर उसके भीतर बनाया गया था.
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हैरतंगेज इंजीनियरिंग
रेगिस्तान के बीच में हरा भरा इलाका. करीब 2000 साल पहले यहां रहने वाले लोग सिंचाई और खेती के एक्सपर्ट थे. नबातेन लोगों को हाइड्रॉलिक्स और फव्वारे बनाने का विशेषज्ञ माना जाता है. आज कई सदियों बाद भी यह बाग हरा भरा है.
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संदेश छोड़ गए
यहां रहने वाला समुदाय चट्टानों पर अपना संदेश भी छोड़ गया है. अभी तक यह किसी की समझ में नहीं आया है कि इन संदेशों का अर्थ क्या है.
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विरासत बचाने की कोशिश
2018 में सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने इन विरासतों को बचाने के लिए फ्रांस के साथ समझौता किया. रेतीली हवाओं के चलते ये धरोहरें धीरे धीरे नष्ट होती जा रही हैं.
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ऊपर से नजारा
पूरे इलाके का मुआयना करने के लिए एरियल सर्वे जरूरी था. दो साल तक अब पुरातत्व विज्ञानी इस इलाके की व्यापक समीक्षा करेंगे. हेलिकॉप्टरों, ड्रोनों और सैटेलाइटों का इस्तेमाल किया जा रहा है.
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बर्बाद शहर का वीजा
अब तक बहुत ही कम और हाई प्रोफाइल लोगों को यहां आने का वीजा मिला हैं. इनमें ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स जैसे नाम शामिल हैं. अब सऊदी अरब पहली बार आम लोगों को अल उला के लिए वीजा देने की तैयारी कर रहा है.
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पीआर एक्सरसाइज
मार्च में सऊदी अरब ने पहली बार पत्रकारों के एक ग्रुप को अल उला का दौरा कराया. महिला पत्रकारों के लिए हिजाब पहनने की शर्त भी नहीं थी. हो सकता है कि टूरिस्टों को भी ऐसी छूट दी जाए. यह सऊदी अरब के लिए अपनी छवि बेहतर करने का जरिया है.
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व्यापक संसाधनों की जरूरत
तीन से पांच साल के भीतर अल उला में पर्यटक आने लगेंगे. लेकिन अभी वहां सिर्फ दो ही होटल हैं, जिनमें 120 लोग ही रह सकते हैं. (रिपोर्ट: आर्न्ड रिकमन/ओएसजे)