22 तारीख को अंतरराष्ट्रीय जल दिवस है. युद्ध, हिंसा और आपदा से जूझ रही दुनिया अब जल संकट से भी त्रस्त है. भारत को यूं तो जलसंपन्न देश माना जाता है लेकिन हालात नहीं सुधरे वह वो जल-विपन्न भी हो सकता है.
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पानी के अंतरराष्ट्रीय दिवस की घोषणा ब्राजील के रियो दे जनेरो में 1992 में हुए पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में हुई थी. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 22 मार्च को अंतरराष्ट्रीय जल दिवस के रूप में घोषित किया. 2005-2016 के दशक को संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय जल अभियान का दशक घोषित किया था. इसी दशक के साए में पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीकी शहर केपटाउन में पानी सूख जाने की खबर अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में रही. दुनिया के और देशों में भी हलचल है जिनके कई शहर पानी की कमी से जूझ रहे हैं. भारत भी इनमें से एक है जहां बंगलुरू शहर का नाम जलसंकट में सबसे ऊपर बताया गया है.
भारत के बुरे हालात
पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का 2.6 फीसदी ही साफ पानी है. और इसका एक फीसदी पानी ही मनुष्य इस्तेमाल कर पाते हैं. वैश्विक पैमाने पर इसी पानी का 70 फीसदी कृषि में, 25 फीसदी उद्योगों में और पांच फीसदी घरेलू इस्तेमाल में निकल जाता है. भारत में ये दर क्रमशः 90, सात और तीन है. भारत में साढ़े सात करोड़ से ज़्यादा लोग पीने के साफ पानी के लिए तरस रहे हैं, नदियां प्रदूषित हैं और जल संग्रहण का ढांचा चरमराया हुआ है. ग्रामीण इलाकों मे इस्तेमाल योग्य पानी का संकट हो चुका है.
ऐसा ही चला तो पड़ जाएंगे पीने के पानी के लाले
भले ही अभी आपके घर के नल में पानी आता हो लेकिन हमेशा ऐसे ही चलेगा, यह सोचना गलतफहमी होगी. जनसंख्या के साथ बढ़ती जा रही मांग, खेती और जलवायु परिवर्तन के कारण कई इलाकों में अभी ही पानी की बेहद कमी हो चुकी है.
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पानी बिच मीन पियासी
हमारी धरती के दो-तिहाई हिस्से के पानी से ढके होने के बावजूद पानी की कमी की बात अविश्वसनीय लगती है. कुल मिलाकर धरती पर एक अरब खरब लीटर पानी से भी अधिक है. लेकिन समस्या यह है कि इसका ज्यादातर हिस्सा नमकीन पानी का है और इंसान की प्यास बुझाने के काम नहीं आ सकता.
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बिन पानी सब सून
धरती पर मौजूद कुल जल का केवल ढाई प्रतिशत ही ताजा पानी है. इसमें से भी दो-तिहाई हिस्सा ग्लेशियर और बर्फीली चोटियों के रूप में कैद है. इसका मतलब हुआ कि इंसान के पीने, खाना पकाने, जानवरों को पिलाने या कृषि के लिए उपलब्ध पानी की मात्रा बहुत ही कम है.
पानी का चक्कर
असल में पानी एक नवीकरणीय स्रोत है. प्रकृति में जल चक्र चलता रहता है जिससे हमारे पृथ्वी ग्रह पर जल यानी H2O की मात्रा हमेशा एक समान बनी रहती है. इसलिए पानी के पृथ्वी से खत्म होने का खतरा नहीं हैं. असल खतरा इस बात का है कि भविष्य में हमारे पास सबकी जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त साफ पानी होगा या नहीं.
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पाकिस्तान तो गया
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट दिखाती है कि भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान 2025 तक सूख जाएगा. जर्मनी के एक जल विशेषज्ञ योहानेस श्मीस्टर बताते हैं कि "स्थानीय स्तर पर समस्या बहुत गंभीर है" और "आंकड़ें और अवलोकन यही दिखाते हैं कि हालात और बिगड़ते ही जाएंगे."
सिर उठाता स्थानीय जल संकट
सन 2016 की एक स्टडी के मुताबिक, नीदरलैंड्स की यूनिवर्सिटी ऑफ ट्वेंटे ने पाया है कि चार अरब लोगों को हर साल कम से कम एक महीने के लिए पानी की गंभीर कमी झेलनी पड़ेगी. कुछ इलाकों में लोग आज ही सूखे और जल संकट की चपेट में आ चुके हैं. हॉर्न ऑफ अफ्रीका इलाके में लगातर पड़ते सूखे के कारण भूखमरी और बीमारी का प्रकोप है.
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जलवायु परिवर्तन का बड़ा हाथ
इस पर्यावरणीय घटना के कारण दुनिया भर में मौसमों का चक्र और जल चक्र प्रभावित होगा. इससे भी कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ आयेगी. कही कहीं तापमान के बहुत ज्यादा बढ़ जाने से भी पानी की कमी झेलनी पड़ेगी.
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प्रकृति ही नहीं लापरवाही भी कारण
विशेषज्ञ पानी की कमी को "इकोनॉमिक" संकट भी बताते हैं. इसका मतलब हुआ कि इंसान उपलब्ध पानी का किस तरह से प्रबंधन करता है यह भी अहम है. जैसे कि भूजल का बहुत ज्यादा दोहन करना, नदियों और झीलों को सूखने देना और बचे खुचे साफ पानी के स्रोतों को इतना प्रदूषित कर देना कि उनका पानी इस्तेमाल के लायक ना रहे.
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कैसे करें मुकाबला
वॉटरएड के विंसेंट केसी कहते हैं कि साफ पानी के 'इकोनॉमिक' संकट से निपटने के लिए सरकारों को पानी की सप्लाई और संग्रह के ढांचे में और ज्यादा निवेश करना होगा. इसके अलावा खेती को ऐसा बनाना होगा जिसमें पानी की खपत कम हो. कुल ताजे पानी का करीब 70 फीसदी फिलहाल खेतों में सिंचाई और पशु पालन में खर्च होता है.
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बढ़ चुकी हैं जरूरतें
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, एक इंसान हर दिन केवल खाना पकाने और बुनियादी हाइजीन में औसतन 20 लीटर ताजे पानी का इस्तेमाल करता है. कपड़े धोने और नहाने में लगने वाला पानी इसके ऊपर है. जो देश जितने विकसित हैं उतनी ही ज्यादा उनकी पानी की जरूरतें हैं. जैसे जर्मनी में प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन 140 लीटर पानी का खर्च है, 30 लीटर तो केवल शौचालय के फ्लश में जाता है.
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कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ छिपे हुए खर्चे
आंखों से दिखने वाले पानी की सामान्य खपत के अलावा कई इंसानी गतिविधियों से अप्रत्यक्ष बर्बादी भी होती है. एक डब्बा कॉफी उगाने में 840 लीटर पानी तो एक जींस बनाने में 8,000 लीटर पानी लग जाता है. इन सभी जरूरी कामों में पानी की खपत कम करने के तकनीकी उपाय भी तलाशने होंगे. (काथारीना वेकर/आरपी)
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वॉटरऐड संस्था की 2016 में आई एक रिपोर्ट में भारत को साफ पानी के अभाव से सबसे ज्यादा ग्रस्त लोगों वाले देशों में जगह मिली थी. भारत में पानी की दुर्दशा चौंकाने वाली है, जबकि वह पानी की कमी वाला देश नहीं है. नदियां तो जो हैं सो हैं, 1170 मिलीमीटर औसत सालाना बारिश भी मिलती है. समस्या यही है कि जल संरक्षण, जल स्रोतों के प्रदूषण की रोकथाम और पानी के समुचित इस्तेमाल को लेकर न कोई संवेदनशीलता है न कारगर नीति. यूनिसेफ के मुताबिक भारत में दो तिहाई ग्रामीण जिले अत्यधिक जल ह्रास की चपेट में हैं, इन जिलों में जल स्तर पिछले 20 साल में चार मीटर गिर गया है.
आंकड़े क्या कहते हैं
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल उपयोग का प्रति व्यक्ति आदर्श मानक 100-200 लीटर निर्धारित किया है. विभिन्न देशों में यह मानक बदलते रहते हैं. लेकिन भारत की बात करें तो स्थिति बदहाल ही कही जाएगी, जहां प्रति व्यक्ति जल उपयोग करीब 89 से 90 लीटर प्रतिदिन है. 2050 तक इस दर के प्रति व्यक्ति 167 लीटर प्रतिदिन हो जाने का अनुमान है. अगर जल उपलब्धता की बात करें, तो सरकारी अनुमान कहता है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति 1341 घन मीटर उपलब्ध होगा. 2050 में यह और कम होकर 1140 रह जाएगा.
स्वच्छ पेयजल के लिए छटपटाते देश
दुनिया के छठे सबसे समृद्ध मुल्क में बड़ी आबादी के पीने का साफ पानी नहीं मिलता. भारत विश्व के ऐसे प्यासे देशों में शामिल है, जहां पानी बेहद मंहगा है.
तस्वीर: Reuters/M. Gupta
6. घाना
घाना के बड़े हिस्से में अब भी पानी की सप्लाई के लिए कोई पाइपलाइन सिस्टम नहीं है. वहां लोग अपनी आय का 25 फीसदी हिस्सा पीने के साफ पानी के लिए खर्च करते हैं.
तस्वीर: DW/G. Hilse
5. भारत
भारत में शुद्ध पेयजल 7.5 करोड़ लोगों की पहुंच से बाहर है. गंदे पानी से होने वाली बीमारियों के चलते हर साल भारत में 1,40,000 बच्चे मारे जाते हैं. प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत में लोग 17 फीसदी पैसा पानी पर खर्च करते हैं.
तस्वीर: Reuters/M. Gupta
4. मेडागास्कर
50 लीटर साफ पानी खरीदने के लिए मेडागास्कर के लोगों को 45 फीसदी आय खर्च करनी पड़ती है. जो लोग इतना पैसा खर्च नहीं कर सकते वे नदियों से पानी भरकर लाते हैं.
तस्वीर: Getty Images/D. Kitwood
3. इथियोपिया
अफ्रीकी देश इथियोपिया में लोग अगर खुद पानी ढोयें तो उनकी 15 फीसदी आमदनी खर्च हो. लेकिन अगर वो किसी और से पानी खरीदें तो 150 फीसदी आय स्वाहा हो जाए.
तस्वीर: Reuters/T. Negeri
2. कंबोडिया
बीते 15 साल में कंबोडिया ने स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति के मामले में काफी प्रगति की है. राजधानी नोमपेन्ह में अब हर वक्त पानी मिलता है. लेकिन ग्रामीण इलाकों में रहने वाली देश की 80 फीसदी जनता को साफ पानी नहीं है.
तस्वीर: Getty Images/O.Havana
1. पापुआ न्यू गिनी
हर दिन सप्लाई होने वाले 50 लीटर पानी के लिए प्रति व्यक्ति आय का 54 फीसदी हिस्सा खर्च करना पड़ता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक देश की 60 फीसदी आबादी की पहुंच में पीने का साफ पानी नहीं है.
तस्वीर: Reuters/ASRC/Martin Wurt
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प्रति व्यक्ति 1000 से 1700 घन मीटर पानी की उपलब्धता को 'स्ट्रेस' का दर्जा दिया जाता है. अगर यह प्रति व्यक्ति 1000 घन मीटर या उससे कम हो जाए, तो पानी की कमी मान ली जाती है. भारत के हालात और वर्षाजल के औसत, भूजल के स्तर को देखते हुए माना जाता है कि 2020 तक भारत जल दबाव की स्थिति में होगा और 2025 तक पानी की कमी की चपेट में. पानी की संभावित कमी का असर, खाद्यान्न उत्पादन, बाल विकास और कुल वृद्धि के अन्य संसाधनों और उपायों पर पड़ेगा.
किसी को चिंता नहीं
अच्छी खासी मात्रा में बारिश होने के बावजूद भारत सिर्फ छह फीसदी वर्षा जल का ही संग्रहण कर पाता है, जबकि दुनिया के कई देशों में यह दर 250 फीसदी की है. रेनवॉटर हारवेस्टिंग को लेकर कुछ जागरूकता तो इधर दिखी है, चुनिंदा आवास परियोजनाएं इस ओर ध्यान दे रही हैं लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर मुस्तैदी का अभाव है. और तो छोड़िए घरों में साफ और संक्रमण रहित पानी के लिए जो आरओ सिस्टम लगे हैं, उनसे भी बहुत सा पानी बेकार चला जाता है. उस पानी का उपयोग भी संभव है लेकिन इसे लेकर आमतौर पर कोई जागरूकता बहुत से मध्यमवर्गीय शहरी परिवारों में नहीं है. तो न सरकार को चिंता है, न नौकरीपेशा मध्यवर्ग, न बिजनेस क्लास, न जल संरक्षण परियोजनाएं चलाने वालों को.
जल परियां नहीं ये हैं "जल पत्नियां"
सूखाग्रस्त इलाकों में जीवन इतना कठिन है कि रोज की जरूरत के लिए पानी जुटाना बेहद मुश्किल है. महाराष्ट्र के कुछ गावों में लोग गैरकानूनी होने के बावजूद केवल इसी कारण कई कई शादियां करते हैं. देखें इन "जल पत्नियों" की सच्चाई.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
एक आदमी, तीन पत्नियां
ये हैं 66 साल के सखाराम भगत की तीन बीवियां - साखरी, तुकी और भागी (बाएं से दाएं). सखाराम बताते हैं, "मेरी पहली पत्नी को बच्चों की देखभाल करनी होती है. मेरी दूसरी बीवी बीमार पड़ गई और वो भी पानी नहीं ला सकती थी, फिर मैंने तीसरी शादी की."
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
"जल पत्नियों" का है सम्मान
भगत अपने साथ तीसरी पत्नी भागी और पहली पत्नी साखरी को अपने देंगानमाल गांव के बाहर स्थित झरने तक ले जाते हैं. गांव में "जल पत्नियों" को लंबा रास्ता तय कर अपने परिवारों के लिए पानी जुटाने के कारण सम्मान का पात्र समझा जाता है.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
कड़ा शारीरिक श्रम
गांव की एक महिला झरने से पानी भरती हुई. सरकारी अनुमान दिखाते हैं कि भारत के तीसरे सबसे बड़े राज्य महाराष्ट्र के करीब 19,000 गांवों में लोगों को पीने का पानी उपलब्ध नहीं है.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
पानी का संचय
राज्य के भीषण सूखे के कारण भगत और उनका परिवार पीने के पानी की कमी से जूझते रहे हैं. इससे निपटने के लिए भगत ने खुद ही इन धातु के घड़ों में जरूरत के पानी को संचित रखने का इंतजाम किया है.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
बहुविवाह की नहीं है अनुमति
नियमों की बात करें तो भारत में बहुविवाह गैरकानूनी है. इसके बावजूद, देंगानमाल जैसे गांवों में "जल पत्नियों" का खूब चलन है. नामदेव जैसे कुछ मामलों में सभी जल-पत्नियों के साथ पुरुष पत्नी वाले संबंध नहीं रखता. जैसे कि उनकी दो बीवियों शिवआरती (बाएं) और बागाबाई (दाएं) का मामला.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
विधवा या अकेली मांएं
दूर से पानी भरके घर लौटते हुए नामदेव की दूसरी पत्नी शिवआरती के सिर पर पानी से भरा घड़ा तो कमर पर उनका पोता होता है. कई सारी जल पत्नियां विधवाएं या अकेली मांएं हैं.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
सब साफ करती ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर
नामदेव की पहली पत्नी बागाबाई ने अपने घर की मुख्य दीवार पर पति के साथ एक पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर सजाई हुई है. इसके अलावा किसी बीवी के साथ कोई तस्वीर नहीं लगी है जिससे साफ संकेत जाता है कि शादी के रिश्ते में दूसरी या तीसरी बीवी का दर्जा उसके जैसा नहीं है.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
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भूजल का बड़े पैमाने पर दोहन घरों से लेकर उद्योगों तक, विभिन्न वजहों से किया जा रहा है. हाल के दिनों में केरल और उत्तर प्रदेश में सॉफ्ट ड्रिंक कोला के प्लांटों द्वारा भूजल के दोहन और प्रदूषण को लेकर आंदोलन हो चुके हैं, इस पर कोर्ट के आदेश भी हैं और निगरानी की व्यवस्था है.
लेकिन यह समस्या सिर्फ ऐसे प्लांटों की वजह से ही नहीं है - पहाड़ों और घाटियों में निर्मित और निर्माणाधीन बड़े बांध, नदियों के जलस्तर में कमी या बदलाव, बेहिसाब खनन और खुदाई, जंगलों की आग, सूखा, अनियंत्रित बाढ़, भीषण औद्योगिकीकरण, शहरी इलाकों में अंधाधुंध निर्माण, प्लॉटों और बाजारों में बदलती खेती की जमीनें, वाहनों की बेशुमार भीड़ और बढ़ता प्रदूषण, अपार्टमेंटों, कॉलोनियों और आबादी का अत्यधिक दबाव - ये सब मानव निर्मित घटनाएं प्राकृतिक संसाधनों को चौपट कर रही हैं. पेड़पौधे मिट रहे हैं, नदियां, तालाब, पोखर आदि विलुप्त हो रहे हैं और भूजल सूख रहा है. ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी घटनाओं ने पहाड़ों से मैदानों तक, शहरों से गांवों तक पारिस्थतिकीय और पर्यावरणीय संतुलनों को उलटपुलट कर दिया है.
बढ़ रहे हैं रेगिस्तान
मिट्टी की उर्वरता घट रही है, मरुस्थल बढ़ते जा रहे हैं. फैलते मरुस्थल संयुक्त राष्ट्र के लिए भी चिंता का विषय है.
तस्वीर: DW/Stefan Dege
बंजर धरती
पृथ्वी की सतह का एक तिहाई हिस्सा बंजर हो चुका है, और लगातार मरुस्थलों का विस्तार हो रहा है. तस्वीर में देखा जा सकता है कि अलजीरिया में हॉगर पहाड़ी इलाके में हजारों साल में किस तरह मरुस्थल चट्टानों का रूप ले चुके हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
सूखा
एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में मरुस्थलों का तेजी से विस्तार हो रहा है. 2011 में अमेरिका के टेक्सास में आए सूखे को गेहूं के खेत झेल नहीं सके.
तस्वीर: Getty Images
आबादी पर असर
हर साल करीब 70,000 वर्ग किलोमीटर नए मरुस्थल बन रहे हैं. पर्यावरण परिवर्तन में इंसानों का भी बड़ा योगदान है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
पशुओं से नुकसान
पशुओं की बड़ी आबादी भी जमीन के सूखने का एक कारण है. वे छोटी घास को भी खा जाते हैं जिसके कारण जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है. मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है.
तस्वीर: DANIEL GARCIA/AFP/Getty Images
गैरजिम्मेदाराना खेती
किसानों के लिए भी मरुस्थलों का फैलना बड़ी समस्या है. जैसे कि मेक्सिको में मक्के की खेती बुरी तरह प्रभावित हो रही है. फसल की कटाई के बाद मिट्टी को दोबारा तैयार होने का ठीक समय नहीं दिया जाता और दोबारा बुआई कर दी जाती है. इससे मिट्टी के पोषक तत्व कम होते हैं और समय के साथ मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी घटती जाती है.
तस्वीर: Ofelia Harms
घटते जंगल
तेजी से जंगलों के काटे जाने से पेड़ों की संख्या घटती जा रही है. शहरों और औद्योगीकरण के विस्तार के साथ जंगल सिकुड़ रहे हैं. जंगलों के कटने से खाली होने वाले मैदान को नुकसान पहुंचने का खतरा बढ़ जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
पानी
बढ़ती आबादी के साथ पानी का इस्तेमाल भी बढ़ता जा रहा है. पिछले पचास सालों में पानी का इस्तेमाल दोगुना हो गया है. इस कारण पानी के स्रोत भी घटते जा रहे हैं.
तस्वीर: AFP/Getty Images
चेन रिएक्शन
मरुस्थलीकरण अकेला नहीं आता. इसके साथ और भी नुकसान किसी चेन की तरह होते हैं. पौधों का विकास प्रभावित होता है, पानी का ज्यादा वाष्पीकरण होता है और जमीन सूखती है. मिट्टी में नमक बढ़ता है और वह कठोर होती जाती है. मिट्टी को बचाना मुश्किल हो जाता है.
तस्वीर: AP
दूरगामी प्रभाव
मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है. गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएं हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
जमीन को दोबारा उर्वर बनाना
मिट्टी की उर्वरा शक्ति लौटाई जा सकती है लेकिन यह महंगा काम है. जैसे कि डॉमिनिकन रिपब्लिक में नए पेड़ लगाए जा रहे हैं. दुनिया भर में इस तरह के प्रोजेक्ट्स की विकास दर अभी ज्यादा नहीं है.
तस्वीर: DW / Sascha Quaiser
सबसे बड़ी चुनौती
1996 में यूएन कंवेंशन टू कंबैट डिजरटिफिकेशन ने सामने आकर मोर्चा संभाला. तबसे वे मरुस्थलों के विस्तार को रोकने की मुहिम में लगे हैं.
तस्वीर: DW/Stefan Dege
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क्या बदलेगी स्थिति
और कैसी विडंबना है, सत्ता राजनीति के विमर्शों और समूची राजनीतिक लड़ाइयों से यह मुद्दा गायब है. अभी हाल में किसानों का नासिक से मुंबई का ऐतिहासिक मार्च, सिर्फ खेती-किसानी के संकट को संबोधित नहीं था, वह तमाम प्राकृतिक संसाधनों और गहराते जल संकट पर भी एक स्पष्ट संदेश था. पानी के संकट से निपटने के लिए भारीभरकम मंत्रालय है, सरकारी अमला है, स्वयंसेवी संगठन हैं, संयुक्त राष्ट्र और वर्ल्ड बैंक की वित्तपोषित योजनाएं हैं, नमामि गंगे जैसी विराट बजट वाली नदी सफाई परियोजनाएं हैं, लेकिन इतने भर से तो हालात नहीं सुधरने वाले.
22 मार्च को अंतराष्ट्रीय जल दिवस या 14 अप्रैल को राष्ट्रीय जल दिवस के रूप में मनाते हुए भारत को जल संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण अभियान, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की नीतियों में सुधार या बाढ़ प्रबंधन को दुरुस्त करना ही काफी नहीं है. पानी के उपयोग से जुड़ी सामाजिक रूढ़ियों और जातिगत अंतर्विरोधो से भी निपटने की जरूरत है. पानी का संबंध शक्ति संरचना और सामाजिक संबंधों से नहीं हो सकता, उस पर सबका अधिकार है. वरना दिल्ली जैसी घटनाएं भी रोकी नहीं जा सकेंगी जहां पिछले दिनों एक बस्ती में पानी को लेकर मची छीनाझपटी में दलित वृद्ध को लोकल दबंगो ने पीट पीटकर मार डाला.
सूखे से संघर्ष
गर्मी होने से तालाब और झील सूखने लगते हैं. पीने के पानी की किल्लत होने लगती है. अमेरिकी शहर लॉस एंजेलेस ने पानी बचाने का नायाब तरीका निकाला है, प्लास्टिक के लाखों बॉल वाला तरीका. तरीका अजीब है, लेकिन है गंभीर और असरदार.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Gene Blevins via ZUMA Wire
असामान्य चादर
ये सचमुच लाखों बॉल हैं. ठीक ठीक कहें तो 960 लाख बॉल. उन्हें हॉलीवुड सितारों की नगरी लॉस एंजेलिस शहर से से 40 किलोमीटर दूर स्थित सिलमार जलाशय में छोड़ा जा रहा है. यहां इतने बॉल डाले जा रहे हैं कि उनसे 70 हेक्टर बड़ा जलाशय पूरी तरह ढक जाएगा.
ये अभियान एक से दो दिन में नहीं पूरा हुआ है, बल्कि महीनों चला है. सूरज का राज्य कहे जाने वाले कैलिफोर्निया में हालत लगातार बिगड़ रही है. आम तौर पर पहाड़ों में बर्फ पिघलने से शहर के जलाशय में पर्याप्त पानी रहता है. चूंकि अब बर्फ नहीं गिरती, जलाशय भी खाली रहते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Gene Blevins via ZUMA Wire
खास गोले
लॉस एंजेलेस अब उन पहले अमेरिकी शहरों में है जो पानी की किल्लत के खिलाफ कुछ कर रहे हैं. ये छांव देने वाले बॉल सेव जितने बड़े हैं और अंदर से खोखले हैं. वे पानी को ढककर रखते हैं, उस पर धूप नहीं पड़ने देते और उसे भाप बनने देते और इस तरह अनिच्छित रासायनिक प्रतिक्रिया को रोकते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Gene Blevins via ZUMA Wire
काली सुरक्षा
क्योंकि पानी में होने वाला प्राकृतिक ब्रोमाइड धूप की किरणों के गिरने से ब्रोमैट में बदल जाता है. इसे कैंसर पैदा करने वाला माना जाता है. शेड बॉल धूप की किरणों को सोख लेते हैं और उसे गर्म होकर हवा में उड़ने नहीं देते. बैक्टीरिया मारने के लिए पानी में क्लोरीन भी डाला जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Gene Blevins via ZUMA Wire
साहसिक विचार
जलाशय में अंतिम 20,000 बॉल डाले जाने के लिए एक समारोह हुआ. इसमें भाग लेने लॉस एजेंलिस के मेयर एरिक गारचेटी भी आए. मेयर ने कहा, "कैलिफोर्निया में ऐतिहासिक सूखे के बीच पीने के पानी के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए साहसिक विचारों की जरूरत है."
निश्चित तौर पर साहसिक कदम. क्योंकि जलाशय को बॉल से ढकने पर करीब 3.5 करोड़ डॉलर का खर्च आया है. उनकी जिंदगी दस साल की है. मेयर गारचेटी का अनुमान है कि उनकी मदद से 30 करोड़ डॉलर की बचत होगी. लॉस एंजेलिस ने साथ ही पानी की खपत 13 प्रतिशत कम कर दी है.