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भारतीय शॉर्ट फिल्म को नेटुराले फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार

५ जनवरी २०२१

जर्मनी में होने वाले नेटुराले फिल्म महोत्सव में सर्वोत्तम शॉर्ट फिल्म का पुरस्कार विजय बेदी और अजय बेदी की फिल्म द स्टॉर्क सेवियर्स को मिला है. विजय बेदी और उनके जुड़वां भाई वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफरों के परिवार से आते हैं.

The Stork saviors  Filmemacher Vijay Bedi
तस्वीर: Vijay Bedi

नेचर एंड टूरिज्म फिल्म फेस्टिवल नेटुराले दो साल पर जर्मन शहर वीसबाडेन में आयोजित किया जाता है. इसमें प्रकृति, पर्यावरण, यात्रा और टूरिज्म से जुड़ी फिल्में दिखाई जाती है. इस फिल्म महोत्सव से जुड़े जर्मन फिल्मकार आंद्रेयास एवेल्स कहते हैं कि पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों की भागीदारी तभी होगी जब वह उसे जानेंगे. इलसिए पर्यावरण और पर्यटन से जुड़ी फिल्में संरक्षण में अहम योगदान दे सकती हैं. इस साल इस महोत्सव में सर्वोत्तम शॉर्ट फिल्म का पुरस्कार विजय बेदी और अजय बेदी की फिल्म द स्टॉर्क सेवियर्स को मिला है.

बचपन से ही रही ट्रेनिंग

विजय बेदी और उनके जुड़वां भाई वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफरों के परिवार से आते हैं. वे अपने पिता और दादा को पांच साल की उम्र से ही काम करते देखते रहे हैं और उनके साथ ही कॉर्बेट पार्क में हाथियों के पीछे जाना या बांधवगढ़ में शेरों का पीछा करना सीखा है. स्वाभाविक है कि उनका बचपन से ही जंगली जानवरों से लेना देना रहा है. यही शौक उन्हें भी वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी की ओर लाया. उन्होंने अपनी पहली फिल्म 21 साल की उम्र में बनाई और उसके बाद विभिन्न चैनलों के लिए फिल्में बनाई हैं और अनगिनत पुरस्कार जीते हैं.

बेदी बंधुओं ने 2019 में उभयचरों के ऊपर फिल्म बनाई जिसके लिए भारत के राष्ट्रपति द्वारा दिए जाने वाले तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते. वे अपनी फिल्म के लिए ग्रीन ऑस्कर जीतने वाले सबसे युवा एशियाई फिल्मकार भी हैं. लाल पांडा पर बनाई गई फिल्म के लिए उन्हें एम्मी पुरस्कार के लिए नॉमिनेशन भी मिला है.

फिल्मकार विजय बेदी और अजय बेदीतस्वीर: Vijay Bedi

रिपोर्टों के साथ वे जंगली जीवन के संरक्षण को प्रोत्साहन दे रहे परिवार की तीसरी पीढ़ी में हैं. उनके पिता नरेश बेदी भी मशहूर संरक्षणवादी हैं. उनकी पहली फिल्म लाल पांडा पर थी जबकि दूसरी फिल्म जामुनी मेढ़कों के बारे में. अपनी फिल्मों के जरिए वे और उनके जुड़वां भाई अजय बेदी भारत की जैव विविधता को तो टटोलते ही हैं, लेकिन विजय बेदी ने डॉयचे वेले के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि खुद को वे खुद को फिल्मकार से ज्यादा संरक्षणवादी मानते हैं.

यूरोप का सारसों का गांव

जर्मन पर्यावरण फिल्म महोत्सव नटुराले में जीतने वाली विजय बेदी और अजय बेदी की फिल्म द स्टॉर्क सेवियर्स सारसों को बचाने के लिए हो रहे प्रयासों की कहनी है. विजय बेदी और अजय बेदी ने इस लघु फिल्म में उन्हें बचाने के लिए कंजर्वेशन बायोलॉजिस्ट पूर्णिमा बर्मन की पहलकदमियों को दिखाया है. गुआहाटी में रहने वाली पूर्णिमा बर्मन ने इन सारसों को बचाने के लिए स्थानीय लोगों को इन प्रयासों में शामिल किया है.

जर्मनी में दो तरह के सारस हैं. सारस प्रवासी पक्षी होते हैं. इन्हें पूर्वी और पश्चिमी प्रवासी पक्षियों में बांटा गया है क्योंकि वे पूरब और पश्चिम के रास्ते अपने शीतकालीन प्रवास में जाते हैं. पूर्वी रास्ता उन्हें बालकन होकर अफ्रीका ले जाता है जबकि पश्चिमी रास्ता फ्रांस होकर स्पेन ले जाता है. आमतौर पर जर्मनी के पूर्वी प्रदेशों में रहने वाले सारस पूर्वी रास्ते से अफ्रीका जाते हैं और सर्दियां खत्म होने के बाद मार्च से मई के बीच जर्मनी लौट आते हैं. पश्चिमी प्रातों के सारस अपनी सर्दियां स्पेन में गुजारते हैं. गर्मियों में वे ब्रीडिंग के लिए जर्मनी लौट आते हैं.

जर्मनी में घरों पर घोंसला बनाते हैं सारसतस्वीर: DW/Cheretskiy

बर्लिन के निकट स्थित जर्मनी के ब्रांडेनबुर्ग प्रांत को देश में सारसों का प्रदेश कहा जाता है. यहां जितने सारस ब्रीडिंग करते हैं उतने देश के और किसी प्रांत में नहीं करते. हर साल करीब 1400 जोड़े यहां ब्रीडिंग के लिए आते हैं. ब्रांडेनबुर्ग के स्प्रीवाल्ड इलाके को जर्मनी में सारसों की सबसे घनी आबादी वाला इलाका माना जाता है. प्रांत के पश्चिमोत्तर का गांव रूहस्टेट तो सारसों को इतना पसंद है कि इस गांव को यूरोप का सारसों का गांव कहा जाता है. यहां के नम माहौल में उन्हें पर्याप्त खाने को मिलता है. 1996 रिकॉर्ड वाला साल था, जब सारसों की 44 जोड़ियां यहां ब्रीडिंग के लिए आई थीं. वे गांव की छतों पर अपना घोंसला बनाते हैं. सारसों की ब्रीडिंग वाले ये इलाके इतने लोकप्रिय हैं कि मार्च से मई के महीनों में हजारों टूरिस्ट उन्हें देखने इस इलाके में पहुंचते हैं.

विलुप्त हो रहे हैं हरगिला सारस

जर्मनी के विपरीत पूर्वोत्तर भारत में सारसों की प्रजाति हरगिला विलुप्त होने के खतरे में हैं. हरगिला संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है हड्डियों को निगलने वाला. यह सारस दक्षिण एशिया में व्यापक रूप से पाया जाता है लेकिन इस बीच इसकी ज्यादातर प्रजातियां लुप्त हो गई हैं. असम में ब्रह्मपुत्र घाटी को इस लुप्तप्राय सारसों का अंतिम गढ़ माना जाता है. एक समय में सर्दियों में ये सारस उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में जाते थे, लेकिन इनका प्रजनन क्षेत्र काफी समय तक पता नहीं था. अब तो ये सिर्फ असम में और बिहार के भागलपुर इलाके में बचे हैं.

हरगिला को बचाने के लिए स्कूली छात्रों का साथ लेती पूर्णिमा बर्मनतस्वीर: Vijay Bedi

ये सारस आम तौर पर पेड़ों के ऊपर अपने घोंसले बनाते हैं. ब्रीडिंग के मौसम में नर सारस पेड़ों के ऊपर चढ़कर मादा सारसों को आकर्षित करता है. अंडों को सेने का काम 35 दिनों तक नर और मादा सारस बांट बांट कर करते हैं. बाद में चूजे करीब पांच महीने घोंसलों में रहते हैं और उसके बाद बाहर निकलते हैं. सारस निजी घोंसलों में रहना पसंद करते हैं, लेकिन उनका बसेरा पेड़ों के मालिकों के ऊपर निर्भर करता है. पेड़ अगर काट दिए जाएं तो फिर उनके बसेरे की जगह भी समाप्त हो जाती है. चूंकि ये सारस हड्डियां खाते हैं इसलिए लोग उन्हें अपवित्र मानते हैं और उन्हें रिहायशी इलाकों से भगाने की कोशिश में रहते हैं.

कंजर्वेशन बायोलॉजिस्ट पूर्णिमा बर्मन की अगुआई में अब उन्हें बचाने की शुरूआत हुई है. वे स्थानीय महिलाओं को इस काम में साथ लाई हैं. पूर्णिमा बर्मन ने डॉयचे वेले को बताया कि सारसों से उनका प्रेम पीएचडी के सिलसिले में शुरू हुआ जब वह गुआहाटी के पास स्थित कामरूप जिले में सारसों पर अपने काम के सिलसिले में गईं. इस लुप्त हो रहे पक्षी को बचाने के लिए उन्होंने इलाके की महिलाओं को साथ लिया. हरगिला सारसों को बचाने वाली महिलाओं की सेना को सारस सिस्टर्स या हरगिला बैदो के नाम से जाना जाता है. उनके प्रयासों से पिछले चार साल से घोंसले वाले पेड़ काटे नहीं गए हैं और खासकर ब्रीडिंग के मौसम में महिलाएं अंडों और चूजों को बचाने की कोशिश करती हैं.

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