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बेनज़ीर के बाद का पाकिस्तान

अशोक कुमार२६ दिसम्बर २००८

देखते ही देखते पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की नेता बेनज़ीर भुट्टो की हत्या को एक साल हो गया. पाकिस्तान ने इस साल एक साल में बहुत कुछ देखा है. कई बदलाव, कई दुविधाएं, कई मुश्किलें और कई चुनौतियां. डालते हैं एक नज़र.

हत्या को पूरा हुआ एक सालतस्वीर: AP

बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के बाद एक साल में पाकिस्तान में राजनीतिक सतह पर बड़ा बदलाव हुआ. देश की बागडोर पूरी तरह सैनिक शासक से एक लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार के हाथ में आ गई. यह कहना ग़लत नहीं होगा इसकी बुनियाद ख़ुद बेनज़ीर के रहते ही उस वक़्त रखी जा चुकी थी जब उनके साथ साथ एक और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने निर्वासन की ज़िंदगी छोड़कर पाकिस्तान लौटने का फ़ैसला किया. हालांकि उस वक़्त यह कह पाना थोड़ा सा मुश्किल ज़रूर था कि इस बुनियाद पर इतनी जल्द ऐसी इमारत बनाना संभव होगा जिसमें परवेज़ मुशर्रफ़ के लिए कोई जगह नहीं होगी. कहते हैं कि बेनज़ीर राष्ट्रपति मुशर्रफ़ के साथ एक समझौते के तहत पाकिस्तान आई थी. यही नहीं जिस तरह आठ साल तक "पाकिस्तान मतलब मुशर्रफ़'' का दौर रहा है, उसे देखते हुए यह कह पाना मुश्किल था कि परवेज़ मुशर्रफ़ की विदाई इतनी जल्दी हो जाएगी.

2008 में मुशर्रफ़ की हुई विदाईतस्वीर: AP

लेकिन बेनज़ीर की मौत ने राजनीतिक मंज़र बदल दिया. "शहीद की बेटी शहीद हो गई" के नारे साथ उमड़ी सहानुभूति ने पाकिस्तान पीपल्स पार्टी को चुनावी नतीजों में सबसे आगे लाकर खड़ा कर दिया. मियां नवाज़ शरीफ़ के अलावा कई और पार्टियों ने साथ दिया और इस्लामाबाद में सत्ता चुनी हुई सरकार के हाथ आ गई. इसी के साथ परवेज़ मुशर्रफ़ की उल्टी गिनती भी शुरू हो गई. ख़ासकर नवाज़ शरीफ़ जल्द से जल्द मुशर्रफ़ को सत्ता से बाहर देखने के लिए बेताब थे. प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से ही शरीफ़ शायद 1999 का बदला चुकाना चाहते थे जब मुशर्रफ़ ने उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था.

जल्द ही जुदा हो गए शरीफ़ के रास्तेतस्वीर: AP Photo/Ed Wray

आख़िरकार मुशर्रफ को जाना ही पड़ा. उनके पक्के दोस्त अमेरिका ने भी यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि यह पाकिस्तान का अंदरूनी मामला है. बहुत से लोग ख़ुश हुए कि एक सैनिक शासन से पीछा छूटा. लेकिन इस बीच नए नवेले सत्ताधारी गठबंधन का मियां साहब से भी नाता छूटता रहा. चीफ़ जस्टिस इफ्तिख़ार मुहम्मद चौधरी की बहाली के मुद्दे पर. दरअसल नवाज़ शरीफ़ तुरंत चीफ़ जस्टिस की बहाली चाहते थे, लेकिन ज़रदारी को बहाली के तौर तरीक़ों पर कुछ ऐतराज़ था. कई दौर की बातचीत हुई. कई डेडलाइन भी रखी गईं. लेकिन न तो मतभेद दूर हुए, न डेडलाइन की परवाह की गई और न ही बहाली हुई. इसलिए मियां साहब को अपना रास्ता अलग करना पड़ा.

नए राष्ट्रपति के नाम को लेकर अटकलबाज़ियां शुरू ही हुई थी कि ज़रदारी का नाम सामने आया. मीडिया में कुछ चुटकियां भी लगी कि मिस्टर टेन पर्सेंट होंगे पाकिस्तान के प्रेज़ीडेंट. ख़ैर बहुमत साथ हो तो सब कुछ हो सकता है. ज़रदारी राष्ट्रपति बने. इसके साथ ही उन्हें समझ में आने लगीं उस देश की मुश्किलें जिसका नाम तो इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान है, लेकिन आतंकवाद के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय जंग में उसे साथ अमेरिका का देना पड़ रहा है. पड़ोस में अफ़ग़ानिस्तान है जो बराबर आरोप लगाता है कि पाकिस्तान अपने क़बायली इलाक़ों में तालिबान को क़ाबू करने के लिए ईमानदार कोशिशें नहीं कर रहा है. इन आरोपों के एक एक शब्द को अमेरिका का समर्थन हासिल है.

ज़रदारी के हाथ आई पाकिस्तान की कमानतस्वीर: picture-alliance/ dpa

मुशर्रफ़ सरकार की तरह लोकतांत्रिक सरकार ने भी क़बायली इलाक़ों में अभियान जारी रखा. इसी के साथ देश में जारी रहा धमाकों और आत्मघाती हमलों का सिलसिला भी. हर रोज़ कही ने कहीं से मिलने वाली हिंसा की ख़बरों ने इस साल पाकिस्तान को सुर्ख़ियों में बनाए रखा. क़बायली इलाक़ों में तालिबान और अल क़ायदा इस क़दर जड़ जमा चुके हैं कि उन्हें क़ाबू करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ से आए दिन संदिग्ध अमेरिकी मिसाइल हमले हो रहे हैं. एक तरफ़ सरकार पर अपने ही लोगों को मरवाने के इल्ज़ाम लग रहे है तो वहीं क़बायली इलाक़ों में आतंकवाद पनपने के अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करज़ई के इन आरोपों में शायद ही कोई कमी आई हो.

मुश्किलें सुरक्षा के मोर्चे पर ही नहीं बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी ज़रदारी और उनकी सरकार के लिए कम नहीं रही हैं. अक्टूबर 2007 में विदेशी मुद्रा भंडार में करीब साढ़े सोलह अरब डॉलर की रकम एक साल में घटकर सात अरब डॉलर तक आ गई. ख़ासकर इस बात ने सरकार की चिंता बढ़ा दी कि ख़जाने में बस इतना पैसा है कि चंद हफ़्तों के लिए ही पूरा पड़ेगा. अमेरिका लंबे समय से पाकिस्तान की वित्तीय मदद करता आया है. वित्तीय संकट की सबसे पहली मार उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ी, इसलिए वहां से इस बार मदद की उम्मीद बेमानी थी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई जगह गुहार लगाने के बाद राष्ट्रपति ज़रदारी ने चीन का दौरा किया. इस उम्मीद में कि हर क़दम पर साथ देने वाला दोस्त इस नाज़ुक वक़्त में भी साथ देगा. चीन ने हर संभव मदद का आश्वासन तो दिया लेकिन ज़रदारी के पेइचिंग में तीन दिन रहने के दौरान किसी बड़ी मदद का ऐलान नहीं किया गया.

बहरहाल आर्थिक रूप से पाकिस्तान के दिवालिया होने की आशंकाओं के बीच अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पाकिस्तान को 7.6 अरब डॉलर का कर्ज़ देने के लिए राज़ी हुआ है. सरकार और कारोबारी दुनिया से जुड़े लोगों ने इस कर्ज़ का स्वागत किया, लेकिन कुछ जानकार यह भी मान रहे हैं कि इस जो ब्याज़ की दर लगाई लगी है, उसके कारण आगे चलकर पाकिस्तानी जनता पर ख़ासा बोझ पड़ सकता है. पाकिस्तानी वित्त सलाहकार शौक़त तरीन बताते हैं इस कर्ज़ पर ब्याज़ की दर 3.51 से 4.51 प्रतिशत होगी और इसका भुगतान 2011 से शुरू होने वाले अगले पांच सालों में किया जाना है.

आख़िरकार मुद्रा कोष ने दिया पाकिस्तान को सहारा

आर्थिक मोर्चे पर सरकार ने राहत की कुछ सांस ली लेकिन एक चुनौती अभी और उसका इंतजार कर रही थी. यह चुनौती थी भारत के साथ रिश्तों को लेकर. हालांकि ज़रदारी ने राष्ट्रपति बनते ही भारत के साथ दोस्ती के रास्ते पर चलने की कही. यहां तक कि उन्होंने जम्मू कश्मीर में लड़ रहे उग्रवादियों को आतंकवादी तक कह दिया. जिस देश में बहुत से लोग कश्मीर के उग्रवाद को आज़ादी की लड़ाई मानते हैं, उसके राष्ट्रपति द्वारा दिए गए इस बयान को ख़ासी अहमियत दी गई.

चंद दिनों बाद दोस्ती की यह फिज़ा ग़ायब हो गई और इसकी वजह रहे बेशक मुंबई के आतंकवादी हमले जिनमें कई विदेशियों सहित 172 लोगों की जानें गईं. भारत ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन को इसके लिए ज़िम्मेदार बताया. अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों के साथ साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी भारत की बात पर मुहर लगाई और प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े एक और संगठन जमात उद दावा को आतंकवादी संगठन घोषित करके प्रतिबंध लगाया. हालांकि पाकिस्तान को अभी इस संगठन के खिलाफ़ सबूतों का इंतजार है.

मुंबई हमले ने बढ़ाया तनावतस्वीर: AP

दोनों देशो के संबंध फिर उसी मोड़ पर खड़े हैं, जो आज़ादी के साठ सालों में ज़्यादातर उनका मुक़द्दर रहा है. दोनों तरफ़ से तीखे बयानों की झड़ी लगी है. कोई सभी विकल्प खुले रखने की बात कह रहा है, कोई हमला होने पर मुंहतोड़ जबाव देने के दम भर रहा है, कहीं अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिकों कोशिशें हो रही है, कहीं परमाणु हथियारों से लैस पड़ोसियों के बीच जंग की गर्म आशंकाओं पर ठंडा पानी डालने की कोशिश हो रही है.

बेनज़ीर के जाने के एक साल के भीतर पाकिस्तान में बहुत कुछ हुआ और हो रहा है.

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