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समाज

बेरोजगारों के बोझ तले दबा मनरेगा

१४ सितम्बर २०२०

ओंकार राठौड़ जब लॉकडाउन के बीच शहर छोड़कर अपने गांव के लिए निकले तो बड़े खुश थे कि वह अकेले नहीं हैं. बहुत सारे लोग उनके साथ हैं. लेकिन उन्हें क्या पता था कि गांव पहुंचने पर यही लोग उनके लिए मुसीबत बन जाएंगे.

Indien Wanderarbeiter
तस्वीर: DW/M. Kumar

लॉकडाउन में जब शहरों में काम ठप्प हो गया तो करोड़ों प्रवासी मजदूरों ने पैदल ही अपने गांवों का रुख किया. उन्हें आसरा था कि कहीं ना सही तो कम से कम मनरेगा में काम मिल ही जाएगा. राठौड़ मार्च से अपने गांव में हैं जो उत्तर प्रदेश के नवाबगंज जिले में पड़ता है. अब उन्हें मनरेगा में भी ज्यादा काम नहीं मिल रहा है. वह कहते हैं, "पहले अगर काम करने वाले 15 लोग थे तो अब 200 हैं. आठ दिन के काम को एक ही दिन में पूरा कर लिया जा रहा है."

45 साल के राठौड़ कहते हैं, "यह स्कीम गांव में हमारे लिए काम की अकेली उम्मीद थी. मई में मुझे इस स्कीम के तहत 15 दिन काम मिला, लेकिन उसके बाद से कोई काम नहीं है."  महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत आवेदन करने वाले 9.8 करोड़ लोगों में से 8.2 करोड़ को अप्रैल से काम मिला है. लेकिन अरबों डॉलर से चलने वाली यह स्कीम भारत के 10 करोड़ प्रवासी मजदूरों में सबकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पा रही है.

सरकार ने पहले ही मनरेगा के आवंटन को बढ़ा दिया है लेकिन अधिकारी कहते हैं कि फंड खत्म होने के कगार पर है. मानव विकास संस्थान में रोजगार अध्ययन केंद्र के निदेशक रवि श्रीवास्तव कहते हैं, "इससे सितंबर तक की मांग को पूरा किया जा सकता है. लेकिन यह पर्याप्त नहीं है." इस बारे में टिप्पणी के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. लेकिन जिन पांच राज्यों में मनरेगा में काम के लिए सबसे ज्यादा आवेदन आए, वहां के अधिकारियों का कहना है कि लगभग सभी लोगों को काम मुहैया कराया गया है.

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कहां जाएं?

इस योजना को गांव में रहने वाले लोगों के लिए सतत रोजगार मुहैया कराने के इरादे से तैयार किया गया था. यह किसी ने नहीं सोचा था कि कोरोना जैसी महामारी में इतने सारे लोगों के लिए यह मरहम बनेगी. सामाजिक कार्यकर्ता और प्रवासी मजदूरों के बीच काम करने वाले वल्लभाचार्य पाण्डेय कहते हैं कि मनरेगा ने महामारी के शुरुआती हफ्तों में बहुत अच्छा काम किया, लेकिन "जब प्रवासी मजदूर अपने गांवों को लौटने लगे तो मनरेगा पर बोझ बढ़ गया."

भारत के दस करोड़ प्रवासी मजदूर लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित लोगों में शामिल हैं. महीनों तक गांव में रहने के बाद कुछ लोगों का कहना है कि शहर से उनकी कंपनी या फिर फैक्ट्री मालिकों ने उन्हें लेने के लिए बसें भेजी हैं. लेकिन बहुत से लोग अब भी अपने गांव में बेकार बैठे हैं. लॉकडाउन के कारण भारत की अर्थव्यवस्था दूसरी तिमाही में 24 प्रतिशत सिकुड़ी है. आने वाले दिन और भी मुश्किल हो सकते हैं क्योंकि भारत में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं.

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मजदूर यूनियनों के संघ एआईसीईटीयू के उपाध्यक्ष रघुनाथ सिंह कहते हैं, "महामारी ऐसे समय पर आई जब कंस्ट्रक्शन और मैन्युफैक्चरिंग जैसे सेक्टरों की हालत पहले से ही खस्ता चल रही थी. ऐसे में मजदूर अगर वापस शहर में आने का फैसला भी करें तो वे कहां जाएंगे."

15 साल पहले शुरू की गई मनेरगा में साल में कम से कम 100 दिन की रोजगार की गारंटी दी गई और हर दिन का औसत मेहनताना 200 रुपये मिलता है. इस स्कीम को परिवारों को गरीबी से निकालने और महिला और शोषित वर्गों को सशक्त करने का श्रेय दिया जाता है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस वित्त वर्ष में आठ लाख परिवारों ने काम के 100 दिन पूरे कर लिए हैं.

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बेकारी और निराशा

दूसरी तरफ, कई सामाजिक कार्यकर्ता, अकादमिक और रिसर्चर कहते हैं कि यह आंकड़े पूरा सच बयान नहीं करते हैं. पीपुल्स एक्शन ऑफ एंप्लॉयमेंट गारंटी नाम की संस्था से जुड़े एमएस रौनक कहते हैं, "काम ना मिलने का गैप उससे कहीं बड़ा है जितना आंकड़ों में दिखाया जाता है, क्योंकि एक दिन काम मिलने को भी काम मुहैया कराए जाने के तौर पर दर्ज किया जाता है."

पांच राज्यों में मनरेगा से जुड़े जिन अधिकारियों से थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने संपर्क किया, उनका कहना है कि रोजगार के लिए ऐसे काम तलाशे जा रहे हैं जिनमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लगाया जा सके. इनमें पेड़ लगाना, सड़कें बनाना और नहरों को साफ करना शामिल है. लेकिन राजस्थान में इस स्कीम के निदेशक पीसी किशन कहते हैं, "प्रवासी मजदूरों में ज्यादातर दक्ष कारीगर हैं जो हर दिन 500 रुपया कमा रहे थे. इसलिए 220 रुपये का मेहताना उन्हें गांव में रोक कर नहीं रख पाएगा."

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इसीलिए ओंकार राठौड़ वापस शहर में जाना चाहते हैं जहां वह कोरोना महामारी से पहले काम कर रहे थे. वह एक कार फैक्ट्री में काम करते थे और उन्हें महीने की सात हजार सैलरी मिलती थी. उन्होंने अपना कोराना टेस्ट भी करा लिया है. उन्हें उम्मीद है कि नेगेटिव सर्टिफिकेट उन्हें शहर लौटने में मदद करेगा. लेकिन शहर से जॉब कॉन्ट्रैक्टर ने उन्हें बताया कि वहां कोई काम नहीं है. राठौड़ को गांव में ही रहना पड़ेगा.

वह कहते हैं, "आधा साल तो बीत गया और कहीं भी काम नहीं है. ना बाहर और ना ही गांव में."

एके/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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