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बैट्री वाली कार बहकावा है

१९ जून २०१०

बैट्री वाली कारों का बड़ा गुणगान हो रहा है. पर्यावरण और जलवायु रक्षा के लिए वरदान बताया जा रहा है. पर, यह सब एक छलावा है. होगा यह कि कार के बदले बिजली उत्पादक और बैट्री निर्माता कंपनियां प्रदूषण पैदा करेंगी.

तस्वीर: AP

जर्मनी की सरकार ने जब से विधिवत घोषित किया है कि 2020 तक वह देश की सड़कों पर बैट्री से चलने वाली दस लाख इलेक्ट्रो कारें देखना चाहती है, तब से उसकी वाहवाही के दुनिया भर में डंके बज रहे हैं. उन लोगों की बातें नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ बन कर रह जाती है, जो कहते हैं कि दूरगामी और विश्वव्यापी दृष्टि से देखने पर हम पायेंगे कि पर्यावरण या जलवायु रक्षा को इलेक्ट्रो कारों से कोई लाभ नहीं पहुँचेगा, भले ही इन कारों से स्वयं कोई धुंआ नहीं निकलेगा.

दो बड़ी समस्याएं

पहली बड़ी समस्या है इन कारों में लगने वाली बैट्री, और दूसरी बड़ी समस्या है इस बैट्री को बार-बार चार्ज करने के लिए लगने वाली बिजली. इस समय उपलब्ध सबसे अच्छी बैट्री है लिथियम-अयन बैट्री, कहना है जर्मनी में गीसन विश्वविद्यालय के युर्गन यानेक काः "लिथियम-अयन बैट्री को इसलिए बहुत महत्व दिया जा रहा है, क्योंकि उसमें लीथियम नाम की जिस धातु का उपयोग होता है, वह अपने भीतर कहीं अधिक मात्रा में बिजली जमा कर सकती है. उससे अभी से तीन से चार वोल्ट तक का कहीं ऊँचा वोल्टेज प्राप्त किया जा सकता है. बिजली जमा करने की उसकी क्षमता का घनत्व भी कहीं ज़्यादा होता है."

बैट्री की बनावट

लिथियम-अयन बैट्रियों में भी डिसचार्ज, यानी इस्तेमाल के समय लीथियम के अयन नेगेटिव, यानी ऋणात्मक इलेक्ट्रोड से पॉज़िटिव, यानी धनात्मक इलेक्ट्रोड की ओर जाते हैं. बैट्री को दुबारा चार्ज करते समय यही अयन उल्टी दिशा में प्रवाहित होते हैं.

अमेरिका की एक एलेक्ट्रो कारतस्वीर: AP

बैट्री के भीतर एनोड, अर्थात धनात्मक ध्रुव ग्रेफ़ाइट के आवरण के बीच में लीथियम का बना होता है. कैथोड, यानी ऋणात्मक ध्रुव ऊँचे दर्जे तक ऑक्सीकृत लीथियम-कोबाल्ट ऑक्साइड की कई परतों का, लीथियम-आयरन फ़ॉस्फ़ेट का या लीथियम-मैंगनीज़ ऑक्साइड का बना होता है. दोनो ध्रुवों के बीच एक ऐसा इलेक्ट्रोलाइट होता है, जो बैट्री के चार्ज या डिसचार्ज होने के समय केवल लीथियम अयनों को ही आर-पार आने-जाने देता है. यानेक कहते हैं, "आदर्श स्थिति में आप घर पर रात में बैट्री को चार्ज कर सकते हैं और दिन में इस्तेमाल कर सकते हैं."

क़ीमत ऊँची, जीवन छोटा

लेकिन लीथियम-अयन बैट्रियां भी बहुत भारी होती हैं और बहुत मंहगी भी. उन में लगने वाला तांबा और कोबाल्ट भी महंगी धातुए हैं. कोबाल्ट रेडियोधर्मी भी है. इस समय लीथियम बैट्री से मिल सकने वाली प्रति किलोवाट बिजली की लागत एक हज़ार यूरो-- लगभग 60 हज़ार रूपये-- बैठती है. जीवनकाल भी पांच से सात साल तक ही होगा. इसके बाद पूरी बैट्री को बदलना पड़ेगा: "इस समय नयी सामग्रियों की तलाश हो रही है-- जैसे कि लीथियम-आयरन फ़ॉस्फेट-- ताकि कोबाल्ट से छुटकारा मिल सके. आयरन यानी लोहे का भी उपयोग हो सकता है. लेकिन, तब बैट्री की वोल्ट-क्षमता गिर जायेगी."

ऐसी भी हो सकती है एक किफ़ायती बिजली कारतस्वीर: DW/Mattox

वज़न भारी, दायरा कम

अनुमान है कि प्रथम इलेक्ट्रो कारों में केवल 20 किलोवाट घंटे तक की बिजली-संग्रह क्षमता होगी और वे एक बार में केवल 160 किलोमीटर तक जा सकेंगी. 20 किलोवाट का मतलब है, अकेले बैट्री का ही वज़न 200 किलो तक होगा. यानी, सबसे पहले बिजली जमा करने की उनकी क्षमता कई गुना बढ़ाने की ज़रूरत है. यानेक को इस में सफलता पर भारी संदेह हैः "इलेक्ट्रोडों के लिए ऐसी सामग्रियां पानी होंगी, जो और अधिक वोल्टेज संभव बनायें. पर, अधिक वोल्टेज से बैट्री के भीतर रासायनिक विघटन की क्रिया शुरू हो जाती है. इस का अभी तक कोई जवाब नहीं मिल पाया है."

प्रश्न अनेक, उत्तर अज्ञात

युर्गन यानेक नहीं मानते कि इन सब प्रश्नों का शीघ्र ही कोई क्रांतिकारी उत्तर मिल सकता है. बहुत हुआ तो बैट्रियों की क्षमता 10-20 प्रतिशत और बढ़ायी जा सकती है. इसलिए, बिल्कुल नये प्रकार की बैट्री का विकास करना होगा. इस में समय लगेगा. युर्गन यानेकः "इस समय केवल तीन लीटर पेट्रोल से सौ किलोमीटर जाने वाली कारें उलब्ध हैं. इससे भी कम तेल खपाने वाली कारें भी आयेंगी. दूसरी तरफ़, लीथियम-अयन बैट्री स्वयं बिजली पैदा नहीं करती. उसे चार्ज करने के लिए कहीं-न-कहीं से बिजली भी आनी चाहिये."

धुआं कार के बदले चिमनियों से

यह बिजली आयेगी उन्हीं बिजलीघरों से, जो तेल, गैस, कोयले या परमाणु ऊर्जा से चलते हैं. वे अभी ही इतनी कार्बन डाइऑक्साइड उगल रहे हैं या रेडियोधर्मी कचरा पैदा कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारक बन गये हैं. जब करोड़ों कारों के लिए उन्हें अपना बिजली उत्पादन और बढ़ा देना पड़ेगा, तब क्या होगा? यही न कि धुंआ कारों के बदले बिजलीघरों की चिमनियों से निकलने लगेगा!

यही नहीं. लीथियम एक दुर्लभ धातु है. केवल गिने-चुने देशों में मिलती है. उसे विद्युत-विश्लेषण द्वारा, यानी भारी मात्रा में बिजली खपा कर धातु रूप में परिशोधित किया जाता है. उसका उत्पादन जितना बढ़ेगा, उसकी खुदाई और परिशोधन में पानी और बिजली की खपत भी उतनी ही बढ़ेगी. हर पांच से सात साल पर बेकार हो गयी बैट्रियों का निपटारा भी सरल या सस्ता नहीं होगा. इस सारे जोड़-घटाने से फल यही निकलता है कि बिजली से चलने वाली इलेक्ट्रो कारें एक छलावा हैं. उन से जलवायु या पर्यावरण को कोई लाभ नहीं पहुँचेगा.

रिपोर्ट- राम यादव

संपादन- उज्ज्वल भट्टाचार्य

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