सेल्सगर्ल की नौकरी यानि 8 घंटे काम और मुस्कराते हुए लोगों से मिलना. लेकिन बैठने के लिए कुर्सी नहीं, टॉइलेट जाने की इजाजत नहीं. इस 'नहीं' को 'हां' में बदला है केरल की औरतों ने, जो 'बैठने के अधिकार' की लड़ाई लड़ रही थीं
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मीनाक्षी (बदला हुआ नाम) एक साड़ी बेचने वाली दुकान पर बतौर सेल्सगर्ल काम करती है. उसे यहां आने वाले ग्राहकों को ऐसी साड़ियां दिखानी है कि वे उसे खरीदने पर मजबूर हो जाएं. वह सारा दिन खड़े होकर साड़ियां दिखाती रहती है और मुस्कराते हुए ग्राहकों की पसंद-नापसंद को सुनती है. लेकिन यह क्या, मीनाक्षी के पास कोई कुर्सी नहीं है जिसपर वह बीच-बीच में बैठ सके. ग्राहक न हो तब भी उसे खड़ा ही रहना होता है. दुकान के मालिक काम के बीच में पानी पीने या टॉयलेट जाने की इजाजत नहीं दी है.
ऐसे ही काम करने वाली केरल की कुछ महिलाओं ने अपनी स्थिति को बदलने का बीड़ा उठाया और अब जाकर केरल सरकार ने सेल्सगर्ल्स को बैठने का अधिकार दिया है.
इन देशों में आदमियों से ज्यादा औरतें जाती हैं बाहर काम करने
दुनिया में महिलाओं की बराबरी को लेकर जब भी बात उठती है तो घर से बाहर के काम में उनकी हिस्सेदारी को इसका एक पैमाना बताया जाता है. दुनिया में वो कौन से देश हैं जहां कामकाजी लोगों की जमात में ज्यादा महिलाएं शामिल हैं.
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मोजाम्बिक
54.8 प्रतिशत
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बुरुंडी
52.4 प्रतिशत
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नेपाल
51.8 प्रतिशत
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रवांडा
51.5 प्रतिशत
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वर्जिन आइलैंड्स(यूएस)
50.6 प्रतिशत
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लिथुआनिया
50.6 प्रतिशत
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लातविया
50.2 प्रतिशत
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सियेरा लियोन
50.1 प्रतिशत
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अंगोला
50.1 प्रतिशत
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अमानवीय स्थिति
दरअसल, यह हाल देश की कई कामकाजी महिलाओं और पुरुषों का है जिन्हें काम के वक्त बैठने की इजाजत नहीं है. यह वर्कप्लेस का वह अमानवीय पहलू है जिसे हम जानकर भी अनजान हैं. बुनियादी अधिकार के इस मुद्दे को साल 2009-10 में कोझिकोड की पलीथोदी विजी ने उठाया था. टेक्सटाइल इंडस्ट्री में काम करने वाली विजी खुद इस समस्या से पीड़ित थीं और उन्हें स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें होने लगी थीं. पेन्नकुटम यानि महिलाओं के समूह नामक संघ बनाया गया और कोझिकोड से शुरू हुआ अभियान अन्य ज़िलों में भी फैलने लगा.
विजी ने डॉयचे वेले से अपने अनुभव के बारे में बताया, ''सिलाई की दुकान में मेरे साथ ज्यादातर औरतें काम करती थीं. हम उमस भरी गर्मी में घंटों काम करते, लेकिन बैठने या टॉयलेट जाने की इजाजत नहीं मिलती थी. मालिक को इसके बारे में बोलो तो वे कहते थे कि क्या कोई ऐसा कानून बना है जिसके तहत बैठने की इजाजत दी जाए.'' इसी के बाद विजी ने ठान लिया कि वह कानून बनवाएंगी जिसमें कामकाजी महिलाओं को 'बैठने का अधिकार' मिले.
2009 में शुरू हुआ यह सफर आसान नहीं था. पेशे से वकील और विजी के आंदोलन की गवाह अनीमा कहती हैं, ''तब मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की फेलो थी और मुझे विजी की बातों में दम लगा. मैंने अपने प्रोजेक्ट के तहत विजी के साथ काम करना शुरू किया. टेक्सटाइल इंडस्ट्री में महिलाओं की संख्या अधिक है, शायद इसलिए पुरुष प्रधान ट्रेड यूनियनों को समस्या बड़ी नहीं लगी. वहीं, इन यूनियनों में महिला नेताओं की संख्या न के बराबर थी, जो हमारी समस्या को गंभीरता से ले पातीं.''
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01:50
ट्रेड यूनियनों का समर्थन
विजी के मुताबिक, ''सबसे पहले कोझीकोड में पर्चे बांटकर लोगों को अपनी समस्या बताई. धीरे-धीरे अन्य इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं का समर्थन मिला. इसके बाद त्रिशूर में पहली बार स्ट्राइक हुई जिससे हमारी आवाज ट्रेड यूनियन को सुनाई दी.''
वकील अनीमा बताती हैं कि 2015 तक आते-आते सीटू (सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन) का समर्थन मिला और अन्य जिलों में स्ट्राइक हुई. हमें संगठित करने में यूनियनों ने मदद की और फिर एआईसीसीटीयू (ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन) तक आवाज पहुंची. मामला नेशनल ह्यूमन राइट कमीशन के पास गया और फिर केरल सरकार को इसके लिए नियम तय करने के निर्देश दिए गए.''
केरल सरकार ने विजी समेत महिला कार्यकर्ताओं की बात को माना और अब तय किया है कि महिलाओं और पुरुषों को उनके काम करने की जगह पर रेस्ट रूम की सुविधा दी जाएगी. अनिवार्य रूप से कुछ घंटों का ब्रेक भी मिलेगा. जिन जगहों पर महिलाओं को देर तक काम करना होता है, वहां उन्हें हॉस्टल की भी सुविधा देनी होगी.
जल्द ही सरकार इस संबंध में एक अध्यादेश जारी करने वाली है. विजी का कहना है कि नोटिफिकेशन जारी होने के बाद वो नियमों को देखेंगी और अगर उसमें कोई कमी लगती है तो वे आगे भी अपना आंदोलन जारी रखेंगी.
पीरियड्स पर "चुप्पी तोड़ो"
पीरियड्स पर "चुप्पी तोड़ो"
भारत में माहवारी शब्द अब भी शर्म और चुप्पी की संस्कृति में लिपटा हुआ है. जब भी कहीं इसका जिक्र होता है तो धीमें, दबे और सांकेतिक शब्द एक फुसफुसाहट की भाषा का रूप ले लेते हैं. इस पर चुप्पी तोड़ने की जरूरत है.
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अंतरराष्ट्रीय दिवस
28 मई को "विश्व माहवारी स्वच्छता दिवस" के रूप में मनाया जाता है. इसका मुख्य उद्देश्य समाज में फैली मासिक धर्म संबंधी गलत भ्रांतियों को दूर करने के साथ साथ महिलाओं और किशोरियों को माहवारी के बारे में सही जानकारी देना है. महीने के वो पांच दिन आज भी शर्म और उपेक्षा का विषय बने हुए हैं. इस फुसफुसाहट को अब ऐसा मंच मिल रहा है जहां इसे बुलंद आवाज में बदला जा सके.
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चुप्पी तोड़ो बैठक
दिल्ली स्थित स्वयंसेवी संस्था गूंज भारत के कई गांवों में माहवारी पर "चुप्पी तोड़ो बैठक" कराती है. इनमें गांव की महिलाएं माहवारी से जुड़े अपने अनुभव साझा करती हैं. यहां उन्हें सैनिटरी पैड की अहमियत के बारे में जाता है. ये बैठक माहवारी से जुड़ी शर्म और चुप्पी को हटाने का एक जरिया है ताकि महिलाएं अपनी सेहत को माहवारी से जोड़ कर देख सकें और इस विषय पर नि:संकोच अपनी बात रख सकें.
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गीली कतरनें
राजस्थान की 25 साल की दुर्गा कहती हैं, "एक ही कपड़े को बार बार इस्तेमाल करना पड़ता है और माहवारी का एक एक दिन पहाड़ जैसा कटता है." इस्तेमाल की गई कपड़े की कतरनों को वे ठीक तरह धो भी नहीं पातीं और शर्म के कारण उन्हें कपड़ों के नीचे सूखने के लिए डाल देतीं हैं. कई बार कतरनें ठीक से नहीं सूखे पातीं और नमी भरा कपड़ा इस्तेमाल करना पड़ता है.
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डिग्निटी पैक्स
यह एनजीओ शहरों से प्राप्त कपड़ों से महिलाओं के लिए सूती कपड़े के सैनिटरी पैड बनाता है. इन्हें देश भर के गांवों में "माहवारी डिग्निटी पैक्स" के रूप में बांटा जाता है. एक किट में 10 कपड़े के बने सैनिटरी पैड के साथ–साथ महिलाओं के लिए अंडर-गारमेंट्स भी रखे जातें हैं. ये डिग्निटी पैक्स उन महिलाओं के लिए एक बड़ी राहत होते हैं, जिन्हें माहवारी के दौरान एक कपड़े का टुकड़ा भी नहीं मिल पाता.
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दयनीय हालात
गरीबी और अज्ञानता के चलते महिलाएं अपनी "मासिक जरूरत" को कभी मिट्टी, तो कभी घास या प्लास्टिक की पन्नी, पत्ते और गंदे कपड़ों से पूरा करती हैं. इसके चलते वे गंभीर बीमारियों का शिकार होती रहती हैं. माहवारी के दौरान हाथों-पैरों में सूजन और अत्यधिक रक्तस्राव होना बहुत सी महिलाओं के लिए आम बात है. संस्था महिलाओं के साथ माहवारी से जुड़ी ऐसी मुश्किलों पर संवाद करती है.
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माई पैड
शहरों में लोगों से घर के पुराने कपडे जमा किए जाते हैं, जैसे चादर, पर्दे, साड़ियां इत्यादि. इन्हें अच्छी तरह धो कर साफ किया जाता है और फिर पैड के आकार में काटा जाता है. हर पैड हाथ से बनता है. कोई कपड़े की कटाई का काम करता है, कोई इस्त्री का तो कोई सिलाई का. हर पैड एक जैसे आकार का बनता है. इस पहल को नेजेपीसी यानी नॉट जस्ट अ पीस ऑफ क्लोथ नाम दिया गया है.
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आगे बढ़ो
इसके अलावा माहवारी पर बातचीत को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पूरे देश में "रेज़ योर हैंड" नाम की एक मुहिम भी चलाई गई है. यह मुहिम महिलाओं की गरिमा और माहवारी दोनों को एक समय में एक साथ संवाद में लाने की कोशिश है. इसी के तहत चुप्पी तोड़ो बैठक का आयोजन किया जाता है. इस तरह की बैठकों से समाज की मानसिकता को बदलने की कोशिश की जा रही है.