संयुक्त राष्ट्र युद्ध अपराध ट्राइब्यूनल ने मंगलवार को ‘बोस्निया का कसाई’ के नाम से चर्चित सर्बियाई जनरल रात्को म्लादिच की सजा कम करने की अपील को खारिज कर दिया है.
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बेल्जियम के वकील और इंटरनेशनल रेजिड्यूअल मकैनिजम फॉर क्रिमिनल ट्राइब्यूनल्स के मुख्य वकील सर्गे ब्रामेअर्त्स ने मंगलवार को डीडब्ल्यू को बताया कि वह संयुक्त राष्ट्र युद्ध अपराध ट्राइब्यूनल के उस फैसले से बहुत खुश हैं. संयुक्त राष्ट्र युद्ध अपराध ट्राइब्यूनल ने मंगलवार को ‘बोस्निया का कसाई' के नाम से चर्चित सर्बियाई नेता रात्को म्लादिच की सजा कम करने की अपील को खारिज कर दिया है.
बोस्नियन-सर्ब सेना के पूर्व जनरल म्लादिच को 1995 में सरायेवो के घेराव और स्रेब्रेनित्सा के नरसंहार का दोषी पाया गया है. इस नरसंहार में आठ हजार से ज्यादा लोगों की जानें गई थीं. जुलाई 1995 में हुए इस नरसंहार में सर्ब सेना ने आठ हजार से ज्यादा बोस्नियाक मुसलमान पुरुषों और किशोरों को कत्ल कर दिया था.
2017 में अंतरराष्ट्रीय अपराध ट्राइब्यूनल ने म्लादिच को उम्रकैद की सजा सुनाई थी, जिसके खिलाफ उसने अपील की थी. संयुक्त राष्ट्र की अदालत ने मंगलवार को उसे खारिज कर दिया.
ब्रामेअर्त्स ने कहा कि वह इस फैसले से खुश हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "बेशक, आज आए फैसले से हम बहुत खुश हैं. आज ही अपनी टीम के साथ मैंने स्रेब्रेनीत्सा की मांओं से मुलाकात की है. और जाहिर है, वे इस फैसले से संतुष्ट हैं.” इस मामले में यह आखरी फैसला है जिसके बाद कोई अपील नहीं की जा सकती.
मामला अभी खत्म नहीं
ब्रामेअर्त्स के लिए अभी यह मामला खत्म नहीं हुआ है और बाल्कन युद्ध में हुए अपराधों के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए और वह काफी कुछ करने की जरूरत समझते हैं. उन्होंने कहा, "यह एक अध्याय है जो पूरा हुआ है. लेकिन किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्व यूगोस्लाविया में चार हजार से ज्यादा लोग हैं जिन्हें जांच के बाद अदालत के कठघरे में खड़ा करना है.”
इंडोनेशिया में कैसे बचाए गए रोहिंग्या शरणार्थी
करीब 100 रोहिंग्या शरणार्थियों का एक समूह चार महीनों की समुद्री यात्रा कर जब इंडोनेशिया पहुंचा, तो प्रशासन ने उन्हें उतारने से इंकार कर दिया. लेकिन स्थानीय लोगों ने सरकार से लड़ कर शरणार्थियों को बचाया और वहां शरण दी.
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जोखिम भरी यात्रा
करीब 100 लोगों के इस समूह को इंडोनेशिया के मछुआरों ने 24 जून को देखा और अधिकारियों को सूचित किया. लेकिन प्रशासन ने कोविड-19 की चिंताओं को लेकर इन्हें उतारने की अनुमति नहीं दी.
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सरकार से लड़ कर बचाया
इंडोनेशिया के आचेह प्रांत के लोगों ने प्रशासन के आदेश का विरोध किया और इसके खिलाफ जाकर रोहिंग्याओं को खुद नाव से उतरा.
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चार महीनों बाद जमीन पर
शरणार्थियों का कहना है कि इस यात्रा के दौरान तस्करों ने उन्हें बहुत मारा. अपना मूत्र पी कर वे जीवित रहे. रास्ते में कुछ की मृत्यु भी हो गई और उनके शव को मजबूरी में नाव से समुद्र में फेंकना पड़ा.
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बांग्लादेश में भी रह ना सके
ये सभी म्यांमार से अपनी जान बचा कर बांग्लादेश पहुंचे थे, लेकिन वहां के शरणार्थी शिविरों के अमानवीय हालात से भी भागने पर मजबूर हो गए.
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तस्करों की दया पर
इन रोहिंग्याओं का कहना है कि नाव पर खाना खत्म हो जाने के बाद तस्करों ने इन्हें एक दूसरी नाव में बिठा दिया और समुद्र में बहने के लिए छोड़ दिया. आचेह में आप्रवासियों के एक केंद्र पर इंटरनेशनल आर्गेनाईजेशन फॉर माइग्रेशन (आईओएम) की देख-रेख में पहचान पत्र के लिए इंडोनेशिया की पुलिस द्वारा तस्वीर खिंचवाता एक रोहिंग्या शरणार्थी.
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महिलाएं और बच्चे भी
समूह में 48 महिलाएं और 35 बच्चे भी हैं. एक महिला की रास्ते में मृत्यु हो गई और उसके बच्चे अकेले रह गए. तीन और बच्चे नाव पर बिना माता-पिता के आए थे. समूह में एक गर्भवती महिला भी है. तस्वीर में रोहिंग्या महिलाएं आप्रवासियों के केंद्र के बाहर पुलिस की पहचान प्रक्रिया से गुजरती हुईं.
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हर साल वही कहानी
आप्रवासियों के केंद्र के बाहर बैठा हुआ एक रोहिंग्या शरणार्थी. हर साल हजारों सताए हुए रोहिंग्या तस्करों को पैसे देकर पनाह की तलाश में समुद्र के जोखिम भरे सफर पर निकल पड़ते हैं. आईओएम के अनुसार इस साल अभी तक कम से कम 1400 रोहिंग्या समुद्र में फंसे मिले हैं.
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चैन की नींद, फिलहाल
म्यांमार में अपने घरों से और बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों से हजारों मील दूर जान की बाजी लगा कर पहुंचे आचेह के आप्रवासी केंद्र में चैन की नींद लेते रोहिंग्या शरणार्थी. जाने इनके भविष्य में आगे क्या है.
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ब्रामेअर्त्स ने बोस्निया-हर्जेगोविना के राष्ट्रपति की टिप्पणी की भी आलोचना की. कुछ बाल्कन नेता आज भी स्रेब्रेनीत्सा नरसंहार और उस इलाके में हुए अन्य अपराधों को ज्यादा बड़ा नहीं मानते. बोस्निया-हर्जेगोविना के राष्ट्रपति मिलोराद डोडिच ने हाल ही में कहा था कि स्रेब्रेनीत्सा नरसंहार को जातिसंहार नहीं था. ब्रामेअर्त्स ने इन टिप्पणियों को अस्वीकार्य बताया. उन्होंने कहा, "यह पीड़ितों और बच गए लोगों का अपमान है. यह राजनीतिक रूप से कोई जिम्मेदार टिप्पणी नहीं है.” उन्होंने कहा कि सभी को 1995 में हुए अत्याचारों को स्वीकार करना चाहिए.
उन्होंने यह भी कहा कि एक ऐसा कानून होना चाहिए तो जातिसंहारों को खारिज करने और युद्ध अपराधों के गुणगान के खिलाफ हो. उन्होंने कहा कि बाल्कन के कुछ युद्ध अपराधियों को कुछ समुदायों में आज भी नायक माना जाता है.
ट्राइब्यूनल की विरासत
यूगोस्लाविया अंतरराष्ट्रीय अपराध ट्राइब्यूनल 1993 में स्थापित किया गया था. इसे 2017 में भंग कर दिया गया था. ब्रामेअर्त्स 2008 से भंग किए जाने तक इस ट्राइब्यूनल के चीफ प्रॉसिक्यूटर रहे. इस ट्राइब्यूनल ने 161 लोगों पर मुकदमा चलाया, जो किसी भी अन्य अंतरराष्ट्रीय ट्राइब्यूनल से अधिक है. ब्रामेअर्त्स कहते हैं कि बाल्कन क्षेत्र में किए गए अपराधों के संदर्भ में यूगोस्लाविया अंतरराष्ट्रीय अपराध ट्राइब्यूनल की विरासत बहुत अहम है.
वर्तमान में युद्ध अपराधों के लिए मुकदमा चलाने के संदर्भ में ब्रामेअर्त्स कहते हैं कि शायद सोवियत संघ के खत्म होने के बाद 1990 के दशक में इसके लिए माहौल ज्यादा सकारात्मक था. उन्होंने कहा, "अगर आप आज की दुनिया को देखो, जहां सीरिया, यमन, म्यानमार और कई जगह युद्ध चल रहे हैं, दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह है कि आज अपराध से मुक्ति नियम बन गई है और जवाबदेही एक अपवाद.” हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि जर्मनी, बेल्जियम और फ्रांस जैसे देशों में स्थानीय अदालतों कई अहम मामले उठा रही हैं.
बोस्निया का युद्ध अप्रैल 1992 में शुरू होकर दिसंबर 1995 तक चला था. इस युद्ध में एक लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे जिनमें से बोस्नियाक मुसलमान बहुलता में थे. अमेरिका के आहायो में विभिन्न पक्षों के बीच एक समझौता हुआ था. जनरल फ्रेमवर्क अग्रीमेंट फॉर पीस इन बोस्निया एंड हर्जेगोविना नाम के इस समझौते पर पैरिस में दस्तखत हुए थे, जिसके बाद तीन साल लंबा यह युद्ध खत्म हो पाया था.
वेज्ली डॉकरी
जर्मनी के जुल्म
बर्लिन में जर्मन हिस्टोरिकल म्यूजियम में एक प्रदर्शनी में दिखाया गया कि औपनिवेशिक दुनिया में जर्मनी ने किस किस तरह के जुल्म ढाए हैं. जर्मनी के औपनिवेशिक इतिहास के बारे में इस तरह पहली बार खुलकर बात हुई.
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जब पानी था भविष्य
चांसलर ओटो फोन बिसमार्क के दौर में जर्मनी का औपनिवेशिक साम्राज्य अफ्रीका में नामीबिया, कैमरून, टोगो, तंजानिया और केन्या तक फैला था. 1888 में ताजपोशी के बाद सम्राट विलहेल्म द्वीतीय ने कहा कि उपनिवेश बढ़ाओ. इसके लिए नई सेनाएं बनाई गईं और उन्हें अफ्रीका की ओर भेजा गया.
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जर्मन उपनिवेश
पैसिफिक में नॉर्थ न्यू गिनी, बिसमार्क आर्किपेलागो, मार्शल और सोलोमन द्वीप और समाओ के अलावा चीन में भी जर्मन उपनिवेश स्थापित किए गए. ब्रसेल्स में 1890 में हुई एक कॉन्फ्रेंस में यह तय हुआ कि रवांडा और बुरूंडी में जर्मन साम्राज्य स्थापित किए जाएंगे.
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असमानता की व्यवस्था
उपनिवेशों में गोरे लोग बहुत कम थे लेकिन उनका दर्जा बाकियों से कहीं ज्यादा था. 1914 में उपनिवेशों में 25 हजार जर्मन रह रहे थे जबकि 1.3 करोड़ मूल अफ्रीकी. लेकिन मूल लोगों को कोई अधिकार नहीं था.
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20वीं सदी का पहला नरसंहार
जर्मनी के आधीन दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका (नामीबिया) में हेरेरो और नामा में सदी का पहला नरसंहार हुआ था. यह जर्मन औपनिवेशिक इतिहास का सबसे जघन्य अपराध है. 60 हजार हेरेरो लोग प्यास से मर गए थे क्योंकि जर्मन सेना ने पानी का रास्ता रोक लिया था.
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जर्मन अपराध
नामीबिया में सिर्फ 16 हजार हेरेरो लोग बचे थे. उन्हें यातना शिविरों में ले जाया गया. वहां भी हजारों और लोग मारे गए जिनकी सटीक तादाद कभी पता नहीं चल सकी.
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औपनिवेशिक युद्ध
1905 से 1907 के बीच जर्मन ईस्ट अफ्रीका के खिलाफ गुलाम लोगों ने बगावत की जिसका पूरी ताकत से दमन किया गया. माजी माजी की बगावत में एक लाख स्थानीय लोग मारे गए. तंजानिया में हुईं इन मौतों ने जर्मन इतिहास में काला अध्याय जोड़ा.
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1907 के सुधार
बगावतों और युद्धों के बाद प्रशासनिक सुधारों पर बात हुई. लोगों के लिए हालात बेहतर करने पर बात हुई. 1907 में बर्नहार्ड डर्नबर्ग को औपनिवेशिक मामलों का मंत्री नियुक्त किया गया.
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विज्ञान का प्रसार
डर्नबर्ग ने उपनिवेशों के लिए कई सुधार किए. वहां विज्ञान और तकनीक के प्रसार के लिए संस्थान स्थापित गए. जर्मन विश्वविद्यालयों में भी विभाग शुरू हुए.
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जर्मनी की हार
पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की हार का नतीजा उपनिवेशों पर भी पड़ा. शांति समझौते की एक शर्त यह थी कि जर्मनी अपने उपनिवेशों पर अधिकार छोड़ देगा.
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नई सरकार के मंसूबे
नाजी शासन के दौरान भी जर्मनी के औपनिवेशिक मंसूबे नजर आए. 'जनरलप्लान ओस्ट' के नाम से एक योजना तैयार की गई ताकि पूर्वी यूरोप में उपनिवेश स्थापित किए जा सकें. नाजी सरकार ने अफ्रीका में हाथ से निकल गए उपनिवेश वापस पाने की भी योजना बनाई थी.
तस्वीर: DW/J. Hitz
और आज की बात
इस वक्त हेरेरो और नामा नरसंहार के लिए मुआवजे पर बातचीत चल रही है. हालांकि हेरेरो समुदाय ने संयुक्त राष्ट्र में शिकायत की है कि उसे बातचीत का हिस्सा नहीं बनाया गया है.
रिपोर्ट: यूलिया हित्स/वीके