ब्राजील के नव निर्वाचित राष्ट्रपति ने कहा है कि वह इस्राएल में अपने दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम ले जाने के चुनावी वादे को पूरा करेंगे. इससे पहले अमेरिका और ग्वाटेमाला अपने दूतावासों को वहां ले जा चुके हैं.
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ब्राजील के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जाइर बोलसोनारो ने कहा कि वह ब्राजीली दूतावास को येरुशलम ले जाना चाहते हैं. उन्होंने ट्वीट किया, "जैसा कि हम अपने चुनाव प्रचार के दौरान कह चुके हैं. हम ब्राजीली दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम ले जाना चाहते हैं. इस्राएल एक संप्रभु राष्ट्र है और हम पूरी तरह उसका सम्मान करेंगे."
इस्राएली प्रधानमंत्री बेन्यमिन नेतान्याहू ने बोलसोनारो के बयान का स्वागत किया है. उन्होंने कहा, "मैं अपने दोस्त ब्राजील के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जाइर बोलसोनारो को ब्राजीली दूतावास येरुशलम ले जाने की इच्छा के लिए बधाई देता हूं, जो एक ऐतिहासिक, सही और उत्साहवर्धक कदम है."
अगर बोलसोनारो अपने वादे पर अमल करते हैं तो ब्राजील दुनिया का तीसरा देश होगा जिसका दूतावास येरुशलम में होगा. इससे पहले अमेरिका और ग्वाटेमाला अपने दूतावासों को वहां ले जा चुके हैं.
इस्राएल के लिए आखिर क्यों इतना अहम है येरुशलम?
अमेरिका ने इस्राएल की राजधानी के रूप में येरुशलम को मान्यता दे दी. अमेरिका सहित कई देशों ने अपने दूतावास भी येरुशलम में शिफ्ट कर दिए हैं. येरुशलम ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म का पवित्र शहर है.
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क्यों है झगड़ा
इस्राएल पूरे येरुशलम पर अपना दावा करता है. 1967 के युद्ध के दौरान इस्राएल ने येरुशलम के पूर्वी हिस्से पर कब्जा कर लिया था. वहीं फलस्तीनी लोग चाहते हैं कि जब भी फलस्तीन एक अलग देश बने तो पूर्वी येरुशलम ही उनकी राजधानी बने. यही परस्पर प्रतिद्वंद्वी दावे दशकों से खिंच रहे इस्राएली-फलस्तीनी विवाद की मुख्य जड़ है.
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जटिल मामला
विवाद मुख्य रूप से शहर के पूर्वी हिस्से को लेकर ही है जहां येरुशलम के सबसे महत्वपूर्ण यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक स्थल हैं. ऐसे में, येरुशलम के दर्जे से जुड़ा विवाद राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक धार्मिक मामला भी है और शायद इसीलिए इतना जटिल भी है.
टेंपल माउंट या अल अक्सा मस्जिद
पहाड़ियों पर स्थित परिसर को यहूदी टेंपल माउंट कहते हैं और उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है. यहां हजारों साल पहले एक यहूदी मंदिर था जिसका जिक्र बाइबिल में भी है. लेकिन आज यहां पर अल अक्सा मस्जिद है जो इस्लाम में तीसरा सबसे अहम धार्मिक स्थल है.
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बातचीत पर जोर
पूरे येरुशलम पर इस्राएल का नियंत्रण है और यही से उसकी सरकार भी चलती है. लेकिन पूर्वी येरुशलम को अपने क्षेत्र में मिला लेने के इस्राएल के कदम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है कि येरुशलम का दर्जा बातचीत के जरिए तय होना चाहिए. हालांकि सभी दूतावास तेल अवीव में हैं.
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इस्राएल की कोशिश
इस्राएल लंबे समय से येरुशलम को अपनी राजधानी के तौर पर मान्यता दिलाना की कोशिश कर रहा था. यहीं इस्राएली प्रधानमंत्री का निवास और कार्यालय है. इसके अलावा देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट भी यहीं से चलती है और दुनिया भर के नेताओं को भी इस्राएली अधिकारियों से मिलने येरुशलम ही जाना पड़ता है.
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बाड़
येरुशलम के ज्यादातर हिस्से में यहूदी और फलस्तीनी बिना रोक टोक घूम सकते हैं. हालांकि एक दशक पहले इस्राएल ने शहर में कुछ अरब बस्तियों के बीच से गुजरने वाली एक बाड़ लगायी. इसके चलते हजारों फलस्तीनियों को शहर के मध्य तक पहुंचने के लिए भीड़ भाड़ वाले चेक पॉइंट से गुजरना पड़ता है.
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इस्राएली अमीर, फलीस्तीनी गरीब
शहर में रहने वाले इस्राएलियों और फलस्तीनियों के बीच आपस में बहुत कम संवाद होता है. यहूदी बस्तियां जहां बेहद संपन्न दिखती हैं, वहीं फलस्तीनी बस्तियों में गरीबी दिखायी देती है. शहर में रहने वाले तीन लाख से ज्यादा फलस्तीनियों के पास इस्राएल की नागरिकता नहीं है, वे सिर्फ 'निवासी' हैं.
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हिंसा का चक्र
इस्राएल और फलस्तीनियों के बीच बीते 20 वर्षों में हुई ज्यादातर हिंसा येरुशलम और वेस्ट बैंक में ही हुई है. 1996 में येरुशलम में दंगे हुए थे. 2000 में जब तत्कालीन इस्राएली प्रधानमंत्री एरिएल शेरोन टेंपल माउंट गये, तो भी हिंसा भड़क उठी.
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हालिया हिंसा
हाल के सालों में 2015 में एक के बाद एक चाकू से हमलों के मामले देखने को मिले. बताया जाता है कि टेंपल माउंट में आने वाले यहूदी लोगों की बढ़ती संख्या से नाराज चरमपंथियों ने इस हमलों को अंजाम दिया.
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कैमरों पर तनातनी
2016 में उस वक्त बड़ा विवाद हुआ जब इस्राएल ने अल अक्सा मस्जिद के पास सिक्योरिटी कैमरे लगाने की कोशिश की. फलस्तीनी बंदूकधारियों के हमलें में दो इस्राएली पुलिस अफसरों की मौत के बाद कैमरे लगाने का प्रयास किया था.
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नेतान्याहू के लिए?
तमाम विरोध के बावजूद जहां ट्रंप ने येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देकर अपना चुनावी वादा निभाया है, वहीं शायद वह इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू को भी खुश करना चाहते थे. विश्व मंच पर नेतान्याहू ट्रंप के अहम समर्थक माने जाते हैं.
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कड़ा विरोध
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अमेरिकी दूतावास को येरुशलम ले जाने की ट्रंप की योजना का विरोध किया. फलस्तीनी प्रधिकरण ने कहा है कि अमेरिका येरुशलम को इस्राएली की राजधानी के तौर पर मान्यता देता तो इससे न सिर्फ शांति प्रक्रिया की रही सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी, बल्कि इससे हिंसा का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है.
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सऊदी अरब भी साथ नहीं
अमेरिका के अहम सहयोगी समझे जाने वाले सऊदी अरब ने भी ऐसे किसी कदम का विरोध किया है. वहीं 57 मुस्लिम देशों के संगठन इस्लामी सहयोग संगठन ने इसे 'नग्न आक्रामकता' बताया है. अरब लीग ने भी इस पर अपना कड़ा विरोध जताया है. [रिपोर्ट: एके/ओएसजे (एपी)]
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लातिन अमेरिकी देश पैराग्वे ने कुछ समय के लिए अपना दूतावास येरुशलम में रखा था लेकिन जब देश में मारिया अब्दो बेनितेज राष्ट्रपति चुने गए तो उन्होंने पैराग्वे के दूतावास को वापस तेल अवीव लाने का फैसला किया.
सबसे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अपने दूतावास को येरुशलम ले जाने का फैसला किया. उनके इस कदम का तीखा विरोध हुआ. उन्हें ना सिर्फ मुस्लिम देशों, बल्कि कई पश्चिमी देशों की आलोचना भी झेलनी पड़ी.
फलस्तीनी लोग पूर्वी येरुशलम को अपने भावी राष्ट्र की राजधानी के तौर पर देखते हैं. इस्राएल ने 1967 के मध्य पूर्व युद्ध में पूर्वी येरुशलम पर कब्जा कर लिया. इस्राएल पूरे येरुशलम पर अपना दावा करता है और उसे अपनी राजधानी बताता है. येरुशलम के पूर्वी हिस्से में ईसाईयों, मुसलमानों और यहूदियों के कई धार्मिक स्थल हैं.
दुनिया के ज्यादातर देशों ने अपने दूतावास तेल अवीव में रखे हैं. उनका कहना है कि येरुशलम को लेकर विवाद का हल बातचीत के जरिए होना चाहिए. ब्राजील में कुछ लोगों ने देश के दूतावास को येरुशलम ले जाने के फैसले पर आपत्ति जताई है. उनका कहना है कि इससे मुस्लिम देशों के साथ ब्राजील के रिश्ते खराब हो सकते हैं.
एके/एनआर (एपी, एएफपी)
मध्य पूर्व में कितने ईसाई रहते हैं?
ईसाई धर्म की स्थापना से ही मध्य पूर्व में ईसाई लोग आबाद हैं. संख्या के लिहाज से वहां वे हमेशा अल्पसंख्यक ही रहे हैं और कई मुश्किलों के शिकार भी. लेकिन अब वे सबसे बड़ा संकट झेल रहे हैं.
तस्वीर: AP
खतरे में अस्तित्व
1400 साल पहले जब मुस्लिम सेनाएं मध्य पूर्व के पूरे इलाके में फैल गईं, तब भी ईसाई वहां जमे रहे. लेकिन अब जिहादियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों के चलते क्षेत्र के कई देशों में ईसाइयों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो रहा है. क्षेत्र में जब से आतंकवादी गुट इस्लामिक स्टेट मजबूत हुआ है, ईसाइयों के खिलाफ हमले बढ़ गए हैं.
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मिस्र
ईसायत की कोप्टिक ऑर्थोडॉक्स शाखा से सबसे ज्यादा मानने वाले लोग मिस्र में रहते हैं. देश की 9.2 करोड़ की आबादी में उनकी हिस्सेदारी 10 फीसदी है. कोप्ट ईसाई मध्य पूर्व में रहने वाला सबसे बड़ा ईसाई समुदाय है. लेकिन सरकार में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है और वे अकसर भेदभाव और उत्पीड़न का शिकार होते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/K. Desouki
इराक
चाल्डिएन ईसाई सबसे ज्यादा इराक में रहते हैं. 2003 में सद्दाम हुसैन की सत्ता खत्म होने से पहले उनकी संख्या दस लाख से ज्यादा थी. इनमें से छह लाख लोग तो राजधानी बगदाद में रहते थे. अब इराक में उनकी संख्या साढ़े तीन लाख से भी कम बची है. देश में जारी हिंसा और संघर्ष से बचने के लिए बहुत से चाल्डिएन ईसाई इराक छोड़ चुके हैं.
तस्वीर: picture-alliance/AA/abaca
सीरिया
सीरिया में रहने वाले ईसाइयों में ज्यादातर कैथोलिक और ऑर्थोडॉक्स ईसाई हैं. गृहयुद्ध शुरू होने से पहले देश की 2.2 करोड़ की आबादी में पांच से नौ प्रतिशत ईसाई थे. गृहयुद्ध के दौरान बहुत से चर्च तोड़े गए और बड़ी संख्या में ईसाई का कत्ल हुआ. अलैप्पो के चाल्डिएन बिशप एंटोनी ऑडो का कहना है कि सीरिया के 15 लाख ईसाइयों में से आधे लोगों ने देश छोड़ दिया है.
तस्वीर: DW/Y. Sayman
लेबनान
लेबनान में मैरोनाइट कैथोलिक्स और ग्रीक ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों की अच्छी खासी संख्या है. लेबनान में सत्ता साझेदारी डील के मुताबिक इस समय राष्ट्रपति पद पर एक ईसाई, प्रधानमंत्री पद पर एक सुन्नी मुसलमान और संसद के अध्यक्ष पद पर एक शिया मुसलमान है. लेबनान की 60 लाख से ज्यादा की आबादी में ईसाइयों की संख्या 40 फीसदी के आसपास है.
तस्वीर: DW
इस्राएल
मुख्य तौर पर यहूदी देश इस्राएल में रहने वाले ईसाइयों की संख्या 1.6 लाख है. इनमें से ज्यादातर अरब हैं और देश के उत्तरी हिस्से में रहते हैं. इस्राएल की आबादी में उनकी हिस्सेदारी दो प्रतिशत के आसपास है.
तस्वीर: dapd
पश्चिमी तट
पश्चिमी तट और येरुशलम में विभिन्न समुदायों के लगभग 50 हजार ईसाई रहते हैं. मुख्य तौर पर ये लोग बेथलेहम और रामल्लाह में रहते हैं. बेतलेहम को ईसा मसीह का जन्म स्थान माना जाता है लेकिन अब वहां ईसाई अल्पसंख्यक बन गए हैं, लेकिन शहर की अर्थव्यवस्था अब भी उनकी पकड़ बनी हुई है.
तस्वीर: picture-alliance/newscom/D. Hill
गाजा पट्टी
गाजा पट्टी में ईसाइयों, मुख्य तौर पर ग्रीक ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों की संख्या तेजी से घट रही है. इस्लामी कट्टरपंथियों के बढ़ते हमलों ने उन्हें वहां से भागने को मजबूर किया है. गाजा पट्टी में कट्टरपंथी संगठन हमास का शासन है. इस्राएल के साथ उसके संघर्ष के हाल के सालों में कई बार तनावपूर्ण हालात पैदा हुए हैं.
तस्वीर: DW/H. Balousha
जॉर्डन
जॉर्डन में रहने वाले ईसाइयों में ज्यादातर ग्रीक और रोमन ऑर्थोडॉक्स ईसाई हैं. देश की 95 लाख की आबादी में उनकी संख्या लगभग छह प्रतिशत है. वहां कई ईसाई सांसद है और कई सरकार और समाज में ऊंचे पदों तक पहुंचे हैं. हाल के सालों में जहां कई अरब देश उथल पुथल का शिकार रहे, वहीं जॉर्डन में शांति है. (रिपोर्ट: एएफपी/एके)