ब्रिटेन के आम चुनाव में भारतीय मूल के नेताओं का जलवा
श्रेया बहुगुणा
१३ दिसम्बर २०१९
ब्रिटेन के चुनाव नतीजों का जश्न लंदन से 6,693 किलोमीटर दूर भारत में भी मनाया जा रहा है. इसकी वजह रही भारतीय मूल के उम्मीदवारों की बंपर जीत.
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650 सीटों पर हुए चुनावों में करीब 60 से ज्यादा भारतीय मूल के उम्मीवार भी शामिल थे. जिनमें से 12 के करीब उम्मीवारों ने जीत दर्ज की. पिछले चुनाव में जितने भी कंजरवेटिव पार्टी के सांसद थे, वो तो हाउस ऑफ कॉमंस में एमपी के तौर पर पहुचेंगे ही. उनके साथ 2 नये भारतवंशी सांसद पार्टी को इस चुनाव के बाद मिल गए हैं, गगन मोहिन्द्रा और क्लेयर क्यूटिन्हो.
चुनाव जीतने वाली कजंर्वेटिव पार्टी ने 12 दिसंबर को हुए चुनावों में 25 भारतीयवंशी उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था. विजेता पार्टी के अलावा बाकी दलों, लेबर पार्टी ने 13, अति दक्षिणपंथी ब्रेक्जिट पार्टी के 12, लिबरल डेमोक्रेट्स के 8, यूकेआईपी से 2, ग्रीन पार्टी से एक और दो निर्दलीय प्रत्याशी चुनावी मैदान में थे. .
समाचार एजेंसी पीटीआई से हुई बातचीत में भारतीय मूल की क्यूटिंहो ने कहा "अब ब्रेक्जिट का वक्त आ गया है, जिसके बाद स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, पुलिस पर निवेश किया जा सकेगा."
बोरिस जॉनसन की कैबिनेट का हिस्सा रहीं और ब्रिटेन की गृह सचिव रही प्रीति पटेल को भी जीत हासिल हुई है. इसके अलावा इंफोसिस के सह संस्थापक नारायण मूर्ति के दामाद ऋषि सुनक को भी आसान जीत मिली है. ब्रिटेन के पूर्व अंतर्राष्ट्रीय विकास मंत्री रहे आलोक शर्मा को भी रिडिंग वेस्ट से जीत मिली है. ये कयास लगाए जा रहे हैं कि ये लोग इस बार भी जॉनसन कैबिनेट का हिस्सा होंगे.
इसके साथ शैलेज वारा को उत्तर पश्चिम कैब्रिजशायर सीट से बहुत बड़े अंतर से जीत मिली है. तो वहीं गोवा मूल की स्वेला ब्रावरमैन को भी फिर से जीत हासिल हुई है.
लेबर पार्टी की हार, लेकिन भारतवंशी उम्मीदवारों की बंपर जीत
लेबर पार्टी को इस बार करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है, लेकिन उसके भारतीय मूल के उम्मीदवारों के लिए इस हार के बावजूद भी यह खुशी का पल है. लेबर पार्टी से उम्मीदवार नवेंदु मिश्रा पहली बार सांसद चुने गए हैं. ब्रिटेन की पहली महिला सिख सांसद रही प्रीत कौर गिल एक बार फिर बर्मिंगघम एजबेस्टॉन से सांसद बनी हैं. तनमनजीत सिंह धेसी, जो ब्रिटेन के पहले पगड़ी वाले सांसद रहे हैं, एक बार फिर हाउस ऑफ कॉमंस में सासंद के तौर पर आएंगे.
ब्रिटेन के पुराने नेता वीरेन्द्र शर्मा ने पार्टी का विरोध सहा, इस विरोध के बावजूद एक बार फिर जीत दर्ज कराने में वह सफल रहे हैं. इसके अलावा लीजा नंदी, सीमा मल्होत्रा को भी आसान जीत मिली है.
विवादित सांसद रहे कीथ वाज जिन्हें चुनाव से पहले अपना पद छोड़ना पड़ा, उनकी बहन वैलेरी वाज ने भी वॉलसाल दक्षिण सीट पर जीत दर्ज की है.
लेकिन कहीं कहीं भारतीय मूल के नेताओं को हार का मुंह भी देखना पड़ा. ब्रेक्जिट पार्टी के भारतीय मूल के उम्मीवार अपना खाता भी नहीं खोल पाए.
कंजरवेटिव पार्टी की 1980 के बाद ये पहली बड़ी जीत है. यह माना जा रहा है कि भारतवंशियों के कैबिनेट में शामिल होने से भारत और ब्रिटेन के आर्थिक रिश्तों में मजबूती तो आ सकती है, साथ ही इन सांसदों की जीत से भारत और ब्रिटेन के रिश्तों के नए अध्याय की शुरुआत हो सकती है.
(ये हैं ब्रेक्जिट को लेकर अनसुलझे सवाल ये हैं ब्रेक्जिट को लेकर अनसुलझे सवाल)
ये हैं ब्रेक्जिट को लेकर अनसुलझे सवाल
ब्रिटेन ने तीन साल पहले यह घोषणा की थी कि वह यूरोपीय संघ से अलग हो जाएगा. इसके लिए 31 अक्टूबर की तिथि तय की गई है. शुरुआत में उम्मीद थी कि सबकुछ सौहार्दपूर्वक हो जाएगा लेकिन अब यह तलाक के मामले की तरह उलझता दिख रहा है.
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ब्रिटेन अलग होने में इतना समय लंबा समय क्यों ले रहा
ईयू से अलग होने के प्रस्ताव पर ब्रिटेन में खाने के टेबल से लेकर संसद तक में तीखी बहस हो रही है. यूरोपीय संघ के अन्य 27 देशों के मोर्चे का सामना कर रहे ब्रिटिश वार्ताकारों के लिए यह एक आदर्श स्थिति है. पूर्व पीएम टेरीजा मे ने ईयू से अलग होने का प्रस्ताव पेश किया तो उसे तीन बार ब्रिटिश संसद ने खारिज कर दिया था. ईयू ब्रेक्जिट समझौते का सम्मान करता लेकिन यह ब्रिटिश संसद से ही पास नहीं हो पा रहा है.
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ब्रिटेन के नए नेता ने ब्रेक्जिट वार्ता को कैसे प्रभावित किया
ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने ईयू से अलग होने की दिशा में कदम बढ़ाया. ब्रेक्जिट वार्ताकार जिसके लिए वर्षों से काम कर रहे थे, बोरिस ने अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से उसे दिनों में बदलने की कोशिश की. यह बदलाव ब्रिटेन के उत्तरी आयरलैंड और यूरोपीय संघ के सदस्य आयरलैंड के बीच के संबंधों की मांग को लेकर है. लेकिन जॉनसन के प्रस्ताव पर लोगों की नाराजगी बढ़ती जा रही है.
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अगले चार सप्ताह में और क्या हो सकता है
जॉनसन काफी ज्यादा कहते हैं और ईयू बहुत कम. आयरलैंड की सीमा जैसे मुद्दे को जॉनसन फिर से तय करना चाहते हैं. सीमा का जो स्वरूप जॉनसन चाहते हैं, उसे कानूनी अमलीजामा पहनाना असंभव लगता है. इसके लिए ब्रेजिक्ट की जो सीमा 31 अक्टूबर तक तय की गई है, उसे फिर से बढ़ाना पड़ सकता है. हालांकि, जॉनसन का कहना है कि वे तय तिथि तक ईयू से अलग हो जाएंगे. इस समय सीमा को 'जीने और मरने' जैसी अहम बता रहे हैं.
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आयरिश सीमा को लेकर सबसे मुश्किल क्या है
आयरलैंड और उत्तरी आयरलैंड के बीच की सीमा तय करना एक बड़ी बाधा है. कोई भी पक्ष ठोस सीमा नहीं चाहता है. इस सीमा पर किसी तरह की जांच न होना 'गुड फ्राइडे शांति समझौते' की एक प्रमुख उपलब्धि रही है, जिसने 1998 में दशकों से जारी हिंसा को कम करने में मदद की. समस्या तब आती है जब ब्रिटेन ईयू से अलग होता है. ऐसे में आयरलैंड में ईयू और ब्रिटेन के अलग करने वाली नई सीमा बनानी होगी.
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समस्या से निपटने के लिए बोरिस जॉनसन की योजना
ब्रिटेन के नए ब्रेक्जिट प्रस्ताव में उत्तरी आयरलैंड को ईयू शुल्क क्षेत्र से हटाने के लिए कहा गया है. इसका मतलब यह आयरलैंड के लिए एक अलग सीमा शुल्क क्षेत्र होगा. इस सीमा से पार करने वाले ट्रकों को अलग से शुल्क देना होगा. ऐसे में काफी ज्यादा भौतिक जांच की संभावना बनती है,लेकिन ब्रिटिश सरकार ने यह प्रस्ताव दिया है कि सीमा शुल्क को इलेक्ट्रॉनिक कर दिया जाए और काफी कम जगहों पर भौतिक जांच हो.
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यह अदृश्य सीमा कैसे काम करेगी
ब्रिटिश सरकार को उम्मीद है कि कागजी कार्रवाई को कारगर बनाने के लिए तकनीकी समाधान मिल सकता है. जबकि ईयू ने इस प्रस्ताव को काफी पहले ही ठंडे बस्ते में डाल दिया है. नई योजना ईयू के एकल बाजार नियमों का पालन करने के लिए उत्तरी आयरलैंड में भी लागू होती है, जो अब ब्रिटेन के बाकी हिस्सों में लागू नहीं होगी. उत्तरी आयरलैंड और ब्रिटेन के बीच ले जाए जा रहे सामानों की जांच के लिए नई प्रणाली बनानी होगी.
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उत्तरी आयरलैंड के लोग ईयू के साथ रहना चाहते हैं
जॉनसन का प्रस्ताव है कि उत्तरी आयरलैंड के सदन को ब्रेक्जिट सीमा समझौते को मानने या ना मानने का मौका दिया जाए और इसे हर चार साल पर बढ़ाया जाना चाहिए. यह योजना उत्तरी आयरलैंड की गुड फ्राइडे शांति समझौते द्वारा स्थापित पावर शेयरिंग असेंबली पर निर्भर करती है. लेकिन दो साल पहले पावर-शेयरिंग असेंबली को भंग कर दी गई और फिर से गठित नहीं की गई. इस पर ईयू और आयरलैंड सहमत नहीं है.