ब्रिटेन में कोविड वैक्सीन पर भारतीय समुदाय की हिचकिचाहट
१२ फ़रवरी २०२१
ब्रिटेन के भारतीय समुदाय में कोविड वैक्सीन को लेकर फैले अविश्वास और वैक्सीन लेने में आनाकानी की खबरें लगातार आ रही हैं. इसमें परिवारों और दोस्तों में व्हाट्सऐप के जरिए फैलने वाली फेक न्यूज और संदेंह की बड़ी भूमिका है.
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इन संदेशों में वैक्सीन में इस्तेमाल होने वाले पदार्थों पर शक जाहिर किया गया है जैसे कि वैक्सीन शाकाहारी है या नहीं, उसमें किसी प्रकार के मीट या जानवरों का फैट इस्तेमाल हुआ है या नहीं. लगातार इस बात की कोशिशें हो रही हैं कि भारतीयों को वैक्सीन लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाए. हाल ही में हुए एक सर्वे के जरिए यह पता लगाने की कोशिश भी की गई कि भारतीयों पर महामारी का क्या असर हुआ और वैक्सीन को लेकर उनका नजरिया क्या है. गौरतलब है कि कोविड महामारी के दूसरे चरण में दक्षिण एशियाई मूल के लोगों में मौत का खतरा कई गुना ज्यादा बताया गया है. यह बात पहले अश्वेत समुदाय के बारे में कही गई थी.
समुदायकानजरिया
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय समेत कई संस्थानों ने मिलकर हाल ही में एक सर्वे किया जिसके नतीजे ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहे. 2,320 ब्रिटिश भारतीयों से हासिल किए गए इस सर्वे में केवल 56 फीसदी ने वैक्सीन लेने में दिलचस्पी दिखाई जबकि 44 फीसदी ने वैक्सीन ना लेने या फिर असमंजस में होने की बात कही. खासकर मर्दों के मुकाबले महिलाओं की दिलचस्पी वैक्सीन लेने में काफी कम दिखाई दी.
जो वजहें गिनाई गई हैं उसमें वैक्सीन पर जानकारी के अभाव को जिम्मेदार ठहराया गया जबकि कुछ लोगों का यह भी कहना था कि उन्हें वैक्सीन की उतनी जरूरत नहीं है जितनी शायद सेहत की परेशानियों से जूझ रहे लोगों को होगी, इसलिए अगर उन्हें बुलाया भी जाए तो वे वैक्सीन लेने से इनकार कर देंगे.
इस सर्वे में हिस्सा लेने वाले कुल लोगों में तकरीबन आधी संख्या पंजाबी समुदाय से है, जबकि एक चौथाई गुजराती समुदाय से हैं. गुजरात से संबंध रखने वाले जगदीश मेहता, उत्तर-पश्चिमी लंदन के सबसे विविधता वाले इलाकों में शामिल हैरो में रहते हैं. बातचीत में उन्होंने बताया, "जब एक के बाद एक कई वैक्सीन आ गईं और उनके इस्तेमाल की इजाजत मिल गई, तो मेरे सभी नजदीकी लोगों में एक डर था कि आखिर कौन सी वैक्सीन सही होगी. इस पर जानकारी नहीं मिल पा रही थी. मीडिया में आई रिपोर्टें भी स्थिति को साफ नहीं कर पाईं. इससे समझ ही नहीं आ रहा था कि हमें क्या करना चाहिए”.
कोरोना वैक्सीन के हैं ये साइड इफेक्ट
कोरोना की वैक्सीन जितनी जल्दबाजी में बनी हैं, उसे देखते हुए कई लोगों के मन में सवाल उठ रहा है कि इसे लेना ठीक भी रहेगा या नहीं. जानिए कौन सी कंपनी की वैक्सीन के क्या साइड इफेक्ट हैं ताकि आपके सभी शक दूर हो जाएं.
कुछ सामान्य साइड इफेक्ट
कोई भी टीका लगने के बाद त्वचा का लाल होना, टीके वाली जगह पर सूजन और कुछ वक्त तक इंजेक्शन का दर्द होना आम बात है. कुछ लोगों को पहले तीन दिनों में थकान, बुखार और सिरदर्द भी होता है. इसका मतलब होता है कि टीका अपना काम कर रहा है और शरीर ने बीमारी से लड़ने के लिए जरूरी एंटीबॉडी बनाना शुरू कर दिया है.
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बड़े साइड इफेक्ट का खतरा?
अब तक जिन जिन टीकों को अनुमति मिली है, परीक्षणों में उनमें से किसी में भी बड़े साइड इफेक्ट नहीं मिले हैं. यूरोप की यूरोपियन मेडिसिन्स एजेंसी (ईएमए), अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) और विश्व स्वास्थ्य संगठन तीनों ने इन्हें अनुमति दी है. एक दो मामलों में लोगों को वैक्सीन से एलर्जी होने के मामले सामने आए थे लेकिन परीक्षण में हिस्सा लेने वाले बाकी लोगों में ऐसा नहीं देखा गया.
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बायोनटेक फाइजर
जर्मनी और अमेरिका ने मिलकर जो टीका बनाया है वह बाकी टीकों से अलग है. वह एमआरएनए का इस्तेमाल करता है यानी इसमें कीटाणु नहीं बल्कि उसका सिर्फ एक जेनेटिक कोड है. यह टीका अब कई लोगों को लग चुका है. अमेरिका में एक और ब्रिटेन में दो लोगों को इससे काफी एलर्जी हुई. इसके बाद ब्रिटेन की राष्ट्रीय दवा एजेंसी एमएचआरए ने चेतावनी दी कि जिन लोगों को किसी भी टीके से जरा भी एलर्जी रही हो, वे इसे ना लगवाएं.
तस्वीर: Jacob King/REUTERS
मॉडेर्ना
अमेरिकी कंपनी मॉडेर्ना का टीका भी काफी हद तक फाइजर के टीके जैसा ही है. परीक्षण में हिस्सा लेने वाले करीब दस फीसदी लोगों को थकान महसूस हुई. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके चेहरे की नसें कुछ वक्त के लिए पेरैलाइज हो गई. कंपनी का कहना है कि अब तक यह साफ नहीं हो पाया है कि ऐसा टीके में मौजूद किसी तत्व के कारण हुआ या फिर इन लोगों को पहले से ऐसी कोई बीमारी थी जो टीके के कारण बिगड़ गई.
तस्वीर: Dado Ruvic/Reuters
एस्ट्रा जेनेका
ब्रिटेन और स्वीडन की कंपनी एस्ट्रा जेनेका के टीके के परीक्षण को सितंबर में तब रोकना पड़ा जब उसमें हिस्सा लेने वाले एक व्यक्ति ने रीढ़ की हड्डी में सूजन की बात बताई. इसकी जांच के लिए बाहरी एक्सपर्ट भी बुलाए गए जिन्होंने कहा कि वे यकीन से नहीं कह सकते कि सूजन की असली वजह वैक्सीन ही है. इसके अलावा बाकी के टीकों की तरह यहां भी ज्यादा उम्र के लोगों में बुखार, थकान जैसे लक्षण कम देखे गए हैं.
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स्पूतनिक वी
रूस की वैक्सीन स्पूतनिक वी को अगस्त में ही मंजूरी दे दी गई थी. किसी भी टीके को तीन दौर के परीक्षणों के बाद ही बाजार में लाया जाता है, जबकि स्पूतनिक के मामले में दूसरे चरण के बाद ही ऐसा कर दिया गया. रूस के अलावा यह टीका भारत में भी दिया जाना है. जानकारों की शिकायत है कि इसके पूरे डाटा को सार्वजनिक नहीं किया गया है, इसलिए साइड इफेक्ट्स के बारे में ठीक से नहीं बताया जा सकता.
भारत बायोटेक की कोवैक्सीन भी स्पूतनिक की तरह विवादों में घिरी है. सरकार ने इसे इमरजेंसी इस्तेमाल के लिए अनुमति दी है लेकिन इसके भी तीसरे चरण के परीक्षणों के बारे में जानकारी नहीं है और ना ही यह बताया गया है कि यह कितनी कारगर है. भारत में महामारी पर नजर रख रही संस्था सेपी की अध्यक्ष गगनदीप कांग ने कहा है कि वे सरकार के फैसले को समझ नहीं पा रही हैं और अपने करियर में उन्होंने कभी ऐसा होते नहीं देखा.
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बच्चों के लिए टीका?
आम तौर पर पैदा होते ही बच्चों को टीके लगने शुरू हो जाते हैं लेकिन कोरोना के टीके के मामले में ऐसा नहीं होगा. इसकी दो वजह हैं: एक तो बच्चों पर इसका परीक्षण नहीं किया गया है और ना ही इसकी अनुमति है. और दूसरा यह कि महामारी की शुरुआत से बच्चों पर कोरोना का असर ना के बारबार देखा गया है. इसलिए बच्चों को यह टीका नहीं लगाया जाएगा. साथ ही गर्भवती महिलाओं को भी फिलहाल यह टीका नहीं दिया जाएगा.
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सुरक्षित टीका क्या होता है?
जर्मनी में कोरोना पर नजर रखने वाले रॉबर्ट कॉख इंस्टीट्यूट की वैक्सीनेशन कमिटी के सदस्य के सदस्य क्रिस्टियान बोगडान बताते हैं कि किसी टीके से अगर एक वृद्ध व्यक्ति की उम्र 20 प्रतिशत घटती है लेकिन साथ ही अगर 50 हजार में से सिर्फ एक व्यक्ति को उससे एलर्जी होती है, तो वे ऐसे टीके को सुरक्षित मानेंगे. उनके अनुसार यूरोप में इसी पैमाने पर टीकों को अनुमति दी जा रही है.
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विश्वासपैदाकरनेकीकोशिशें
शोधकर्ताओं ने इन आंकड़ों का इस्तेमाल इस बात पर जोर देने के लिए किया है कि वैक्सीन को लेकर फैली भ्रांतियां और फेक न्यूज के जाल को तोड़ने के लिए समुदाय केंद्रित अभियान चलाए जाने की जरूरत है. विश्वास पैदा करने की इसी मुहिम के तहत ब्रिटेन में मस्जिदों और मंदिरों को वैक्सीन अभियान में हिस्सेदारी के लिए जोड़ा गया है.
इन्हीं कोशिशों के तहत ऐसे कई वीडियो जारी किए जा रहे हैं जहां जाने-माने चेहरे वैक्सीन से जुड़े डर को कम करने की कोशिशें करते नजर आएंगे. इसमें टेलीविजन के मशहूर चेहरों के अलावा कॉमेडी की दुनिया से असीम चौधरी, संदीप भास्कर और रोमेश रंगनाथन जैसे नाम हैं जो वैक्सीन पर गलतफहमियों को दूर करने के लिए आवाज बुलंद कर रहे हैं. दक्षिण एशियाई समुदायों में जहां वैक्सीन पर जानकारी और भ्रम के बीच लकीर खीचने की चुनौती है, वहीं जानकार मानते हैं कि अश्वेत समुदाय में अविश्वास की वजह नस्लीय भेदभावपूर्ण सामाजिक ढांचा और चिकित्सीय अनुसंधानों का इतिहास है जहां अश्वेतों को शोध के लिए इस्तेमाल किया गया.
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गलतसूचनाओंकाजाल
महामारी ने जहां ब्रिटेन के अश्वेत और दक्षिण एशियाई समुदायों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के मामले में गैर-बराबरी की गंभीर स्थितियों को उजागर किया है, वहीं इन समुदायों में वैक्सीन को लेकर गलत सूचनाओं के प्रसार की काट ढूंढना भी अपने आप में एक बड़ी चुनौती है. ब्रिटिश स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि वे स्थानीय काउंसिलों को अतिरिक्त धनराशि मुहैया कराई जा रही है ताकि वे सही सूचनाएं फैलाने के लिए पूरी कोशिश कर सकें.
ब्रिटेन में कोविड वैक्सीन उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी संभालने वाले मंत्री नदीम जहावी ने अपने लिखित बयान में कहा है, "ऐसा हर व्यक्ति जिसे वैक्सीन मिलनी चाहिए, उसे हम वैक्सीन देंगे चाहे वह किसी भी धर्म या समुदाय का हो”. फेक न्यूज और फोन पर फैलने वाली गलत सूचनाएं, सरकारी कदमों पर अधूरी जानकारियों और तेजी से तैयार हुई वैक्सीन के प्रभावों पर भ्रम, ये सब मिलकर लोगों के भरोसे को हिला रहे हैं. जातीय समुदायों में विश्वास बहाली की चुनौती लगातार बनी हुई है क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद आंकड़े बार-बार इस बात की ओर इशारा करते हैं कि रास्ता अब भी लंबा है और लड़ाई अभी बाकी है.