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भगदड़ से बचने की नई जर्मन परियोजना

३१ जुलाई २०१०

ग्रीक मिथकों में हैर्मेस बुध का नाम है. अब जर्मनी में एक नए सॉफ़्टवेयर के साथ इस नाम की एक परियोजना शुरू की जा रही है. इरादा है विशाल कार्यक्रमों में भगदड़ के खतरे को रोकना.

ख़तरनाक भीड़तस्वीर: AP

ऐसा हर इंसान के मामले में देखा जाता है. अगर डर लगे, तो इंसान भागने की कोशिश करता है. जहां लाखों की भीड़ हो, यह दहशत में बदल जाता है, भगदड़ मच जाती है, और अंततः बहुतों की मौत होती है, लोग घायल होते हैं. उनकी सधी हुई नज़र आस-पास का ख़्याल किए बिना सिर्फ़ सामने की ओर देखती है. ऐसा ही हाल में जर्मनी के डुइसबुर्ग नगर में रॉक संगीत महोत्सव लव पैरेड के दौरान हुआ. नतीजा था 21 युवाओं की मौत. इससे पहले सन 2008 में जोधपुर के मंदिर में मची भगदड़ में 200 लोगों की मौत हो गई थी. उसकी व्याख्या करते हुए जर्मन ट्रैफ़िक विशेषज्ञ डुइसबुर्ग के माइकेल श्रेकेनबेर्ग ने कहा था कि वहां पूरी भीड़ एकसाथ गति में आ गई थी. मार्के की बात है कि इस बार लव पैरेड में सुरक्षा की व्यवस्था में श्रेकेनबेर्ग भी शामिल थे.

जोधपुर का हादसातस्वीर: AP

विज्ञान की दृष्टि से यहां कई प्रक्रियाएं एक साथ काम करती हैं. इनमें से एक को फ़्रीज़िंग बाई हीटिंग और दूसरी को फ़ास्टर इज़ स्लोअर एफ़ेक्ट कहते हैं. फ़्रीज़िंग बाई हीटिंग को फ़ुटपाथ पर लोगों के चलने के तरीके के ज़रिये समझा जा सकता है. अगर लोग ज़्यादा न हों, तो हर कोई आराम से धीरे-धीरे चलता रहता है. लेकिन सामने आते लोगों की वजह से अगर उसका चलना रुकने लगे, तो उसकी गति बढ़ जाती है, वह अगल-बगल से निकलना चाहता है, अगले इंसान को पीछे छोड़ते हुए बढ़ते जाना चाहता है. जितनी जगह खाली रहती है, क़ायदे से उसका इस्तेमाल नहीं हो पाता. अगर दो ग्रुप आमने-सामने हो, तो हिलना-डुलना बंद हो जाता है.

जब सामने का रास्ता अचानक संकरा हो, तो फ़ास्टर इज़ स्लोअर एफ़ेक्ट काम करने लगता है. पीछे से आने वाले लोगों की संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ने लगती है, हर इंसान के दिल में तेज़ी के साथ आगे बढ़ने की चाह जग उठती है. संकरे रास्ते के मुंह पर आगे रहने वाले लोगों पर दबाव बढ़ने लगता है. ज़्यूरिष के तकनीकी महाविद्यालय के डिर्क हेलबिंग का कहना है कि अंततः स्थिति ऐसी हो जाती है कि मानो कोई गाड़ी सीने पर धक्के दे रही हो.

तस्वीर: picture-alliance/ dpa

और ऐसी परिस्थिति में सामूहिक भगदड़ की स्थिति पैदा हो जाती है, जिसे वैज्ञानिक क्राउड टर्बुलेंस कहते हैं. धक्कों की लहर से हर इंसान बेकाबू होने लगता है. स्थिति पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता. प्रति वर्ग मीटर अगर 6 या उससे ज़्यादा लोग हों, तो स्थिति ऐसी होने लगती है.

जर्मनी के यूलिष के अनुसंधान केंद्र में ऐसी स्थिति से निपटने के लिए हैर्मेस नाम की एक परियोजना शुरू की गई है. यहां के वैज्ञानिक लोगों को बाहर निकालने की एक डिजीटल प्रणाली तैयार कर रहे हैं. इसके ज़रिये यह पूर्वाभास संभव होगा कि अगले 15 मिनटों में कहां ख़तरनाक भीड़ इकट्ठा हो सकती है. उसके बाद एक मिनट के अंदर लोगों की वास्तविक संख्या व उन्हें बाहर निकालने के संभव रास्तों की जानकारी दी जाएगी. अगले साल किसी फ़ुटबॉल स्टेडियम में इसका पहला परीक्षण किया जाएगा.

रिपोर्ट: एजेंसियां/उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन: महेश झा

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