अफगानिस्तान के जलालाबाद में सिख समुदाय पर हुए आतंकवादी हमले के बाद वहां से सिखों में गुस्सा है. वे अब अफगानिस्तान को छोड़कर भारत वापस आना चाहते हैं.
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अफगानिस्तान का जलालाबाद शहर रविवार की शाम एक बम धमाके से दहल उठा जिसमें 19 लोगों की मौत हो गई, वहीं 21 लोग घायल हो गए. इनमें ज्यादातर सिख और हिंदू थे, जो राष्ट्रपति अशरफ गनी से मुलाकात का इंतजार कर रहे थे. इस्लामिक स्टेट द्वारा किए गए इस हमले के पीड़ितों में संसदीय चुनाव के एकमात्र उम्मीदवार अवतार सिंह खालसा और एक्टिविस्ट रावल सिंह शामिल थे. इस फिदायीन हमले में अपने चाचा को खो चुके तेजवीर सिंह का कहना हैॆ, ´अब हम अफगानिस्तान में नहीं रहना चाहते. हम अफगान हैं, लेकिन आतंकवादियों ने हमें निशाना बनाया क्योंकि हम मुसलमान नहीं हैं. सिखों की धार्मिक स्वतंत्रता को इस्लामिक स्टेट बर्दाश्त नहीं कर सकता.´
हिंदुओं और सिखों के नेशनल पैनल के सचिव तेजवीर सिंह ने बताया कि अफगानिस्तान में सिखों के बस 300 परिवार हैं और सिर्फ काबुल और जलालाबाद में गुरुद्वारे हैं. 10 साल पहले तक अफगानिस्तान में तीन हजार सिख रह रहे थे. 90 के दशक अफगानिस्तान में में करीब 2.5 लाख सिख समुदाय के लोग रहा करते थे. गृहयुद्ध के बाद हालात ऐसे बिगड़े कि सिखों को देश छोड़कर जाना पड़ा.
अफगानों की घरवापसी
दिसंबर 2016 में पहली बार 34 अफगान शरणार्थियों को शरण का आवेदन अस्वीकर होने के बाद सामूहिक रूप से वापस अफगानिस्तान भेजा गया. काबुल में आतंकी हमले के बाद वापसी रोक दी गयी थी, लेकिन उसकी फिर शुरुआत हो रही है.
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प्लेन से वापसी
12 सितंबर को डुसेलडॉर्फ से एक विमान काबुल भेजे जाने की योजना है जिसमें 15 ऐसे शरणार्थियों को भेजा जाएगा. इन लोगों का शरण का आवेदन खारिज हो गया है. मई में काबुल में जर्मन दूतावास के पास हुए कार बम हमले के बाद यह अफगानों को वापस भेजने का पहला मामला है. विपक्षी ग्रीन और लेफ्ट पार्टी ने इसकी आलोचना की है.
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रुकने की कोशिश
मार्च में कॉटबुश शहर के हाईस्कूल छात्रों की एक पहल सुर्खियों में आयी जब उन्होंने अपने तीन अफगान साथियों की वापसी रोकने के लिए अभियान चलाया. उन्होंने रैली निकाली, दस्तखत जमा किए, वकील के खर्च के लिए चंदा इकट्टा किया. इस उम्मीद में कि वली जैसे उनके दोस्तों को तब तक वापस नहीं भेजा जा सकता, जब तक मामला चलेगा.
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सुरक्षित नहीं काबुल
फरवरी में म्यूनिख एयरपोर्ट पर हुए एक प्रदर्शन में दिखे इस पोस्टर में लिखा है, "एक घातक खतरे की ओर रवानगी." प्रदर्शनकारी अक्सर उन जर्मन हवाई अड्डों पर प्रदर्शन करते हैं जहां से ठुकराये गये शरणार्थियों को डिपोर्ट किया जाता है. जनवरी से मई 2017 के बीच शरणार्थियों के कई जत्थों को वापस भेजा गया है.
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वुर्त्सबुर्ग से काबुल
बदम हैदरी ने वापस भेजे जाने से पहले सात साल जर्मनी में गुजारे थे. वे पहले अफगानिस्तान में यूएसऐड संगठन के लिए काम करते थे और तालिबान से डरकर अपने देश से भाग गये. तालिबान से उन्हें अब भी सालों बाद भी डर लगता है. उन्हें अब भी उम्मीद है कि वे कभी न कभी जर्मनी लौट पायेंगे.
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जुल्म के शिकार अल्पसंख्यक
जनवरी में अधिकारियों ने अफगानिस्तान के हिंदू समुदाय के समीर नारंग को हैम्बर्ग से काबुल वापस भेज दिया. वे अपने परिवार के साथ चार साल से हैम्बर्ग में रह रहे थे. समीर का कहना है कि वापस भेजे जाने वाले अल्पसंख्यकों को अफगानिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है. उनकी जिंदगी सुरक्षित नहीं है.
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बेमन से वापसी
अफगानिस्तान पहुंचकर अंतरराष्ट्रीय प्रवासी संगठन आईओएस की मदद ले सकते हैं. जर्मन विदेश मंत्रालय के वित्तीय समर्थन से चलने वाली यह संस्था वहां पांव जमाने में वापस लौटने वालों को सलाह मशविरा देती है.
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अफगानिस्तान के संविधान और राजनीति में सिखों को भले ही धार्मिक स्वतंत्रता दी गई हो, लेकिन इन्हें पूर्वाग्रहों और यातना का सामना करना पड़ता है. इस्लामिक स्टेट की ओर से हिंसा और प्रताड़ना की वजह से हजारों सिख भारत की ओर पलायन कर रहे हैं. जलालाबाद के हमले के बाद सिखों ने भारतीय दूतावास में शरण ले रखी है.
अफगानियों के जख्मों पर संगीत का मरहम लगाता अमेरिकी
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जलालाबाद में किताबों की दुकान चलाने वाले बलदेव सिंह कहते हैं, "हमारे पास दो विकल्प हैं, या तो हम अफगानिस्तान छोड़कर भारत चले जाएं या फिर इस्लाम धर्म कबूल कर लें. भारत ने अफगानिस्तान के सिख और हिंदू समुदाय के लोगों को लॉन्ग टर्म वीजा देना शुरू दिया है. अफगानिस्तान में भारत के दूत विनय कुमार के मुताबिक, "अफगानिस्तान के हिंदू और सिख जब तक चाहें भारत में रह सकते हैं. हम यहां उन्हें मदद करने के लिए हैं. अंतिम फैसला उन्हें लेना है."
लेकिन अफगानिस्तान में कुछ सिख ऐसे भी हैं जो देश छोड़कर भारत नहीं आना चाहते. जिनकी जमीन या व्यापार भारत में नहीं है, उनका भारत आने का कोई इरादा नहीं है. काबुल में दुकान चलाने वाले संदीप सिंह कहते हैं, "हम कायर नहीं है जो कहीं और चले जाएं. अफगानिस्तान हमारा वतन है और हम कहीं नहीं जाएंगे."
ऐसे होते हैं अफगान
जर्मन फोटोग्राफर येंस उमबाख ने उत्तरी अफगानिस्तान का दौरा किया. इस इलाके में जर्मन सेना तैनात रही है और लोग जर्मन लोगों से अपरिचित नहीं हैं.
मजार-ए-शरीफ के चेहरे
ये बुजुर्ग उन 100 से ज्यादा अफगान लोगों में से एक हैं जिन्हें जर्मन फोटोग्राफर येंस उमबाख ने मजार-ए-शरीफ शहर के हालिया दौरे में अपने कैमरे में कैद किया है.
असली चेहरे
उमबाख ऐसे चेहरों को सामने लाना चाहते थे जो अकसर सुर्खियों के पीछे छिप जाते हैं. वो कहते हैं, “जैसे कि ये लड़की जिसने अपनी सारी जिंदगी विदेशी फौजों की मौजूदगी में गुजारी है.”
नजारे
उमबाख 2010 में पहली बार अफगानिस्तान गए और तभी से उन्हें इस देश से लगाव हो गया. उन्हें शिकायत है कि मीडिया सिर्फ अफगानिस्तान का कुरूप चेहरा ही दिखाता है.
मेहमानवाजी
अफगान लोग उमबाख के साथ बहुत प्यार और दोस्ताना तरीके से पेश आए. वो कहते हैं, “हमें अकसर दावतों, संगीत कार्यक्रमों और राष्ट्रीय खेल बुजकाशी के मुकाबलों में बुलाया जाता था.”
सुरक्षा
अफगानिस्तान में लोगों की फोटो लेना आसान काम नहीं था. हर जगह सुरक्षा होती थी. उमबाख को उनके स्थानीय सहायक ने बताया कि कहां जाना है और कहां नहीं.
नेता और उग्रवादी
उमबाख ने अता मोहम्मद नूर जैसे प्रभावशाली राजनेताओं की तस्वीरें भी लीं. बाल्ख प्रांत के गवर्नर मोहम्मद नूर जर्मनों के एक साझीदार है. उन्होंने कुछ उग्रवादियों को भी अपने कैमरे में कैद किया.
जर्मनी में प्रदर्शनी
उमबाख ने अपनी इन तस्वीरों की जर्मनी में एक प्रदर्शनी भी आयोजित की. कोलोन में लगने वाले दुनिया के सबसे बड़े फोटोग्राफी मेले फोटोकीना में भी उनके फोटो पेश किए गए.
फोटो बुक
येंस उमबाख अपनी तस्वीरों को किताब की शक्ल देना चाहते हैं. इसके लिए वो चंदा जमा कर रहे हैं. वो कहते हैं कि किताब की शक्ल में ये तस्वीरें हमेशा एक दस्तावेज के तौर पर बनी रहेंगी.