भारत के युवा कुछ इस तरह लड़ रहे हैं महामारी से
४ मई २०२१अपनी परीक्षाओं की तैयारी करने के बाद स्कूल जाने वाली छात्रा स्वधा प्रसाद अपने असली काम में जुट जाती हैं. वो काम है महामारी की इस घातक लहर की मार झेल रहे लोगों के लिए ऑक्सीजन सिलिंडर, दवाएं और अस्पतालों में खाली बिस्तर ढूंढना. स्वधा 'अनकट' नाम के एक संगठन से जुड़ी हुई हैं, जिसमें उनका साथ दे रहे हैं 14 से 19 साल की उम्र के दर्जनों वालंटियर.
यह सभी मिल कर पूरे देश में उपलब्ध मेडिकल संसाधनों की जानकारी के ऑनलाइन डेटाबेस बना रहे हैं. इनका काम चौबीसों घंटे चलता है और सभी युवा लगातार अपने अपने मोबाइल फोन पर लगे रहते हैं. उन्हें मरीजों के परेशान रिश्तेदारों के फोन आते रहते हैं और साथ ही साथ सामान की उपलब्धता सत्यापित कर ताजा हालात की जानकारी भी डालनी होती है.
मुंबई में रहने वाली 17 वर्ष की स्वधा दोपहर से लेकर अगली सुबह एक बजे तक 14 घंटों की शिफ्ट करती हैं. वो कहती हैं, "हम में से कुछ आधी रात से सुबह तक की शिफ्ट करते हैं क्योंकि सुबह तीन बजे तक फोन आते रहते हैं." वो कहती हैं यह काम उन्हें अक्सर थका देता है, लेकिन उनका मानना है कि "अगर मैं एक जिंदगी बचा सकती हूं, तो मैं किसी भी हाल में ना नहीं कहूंगी."
एसयूवी बेचकर मदद
उन्होंने बताया कि जिंदिगियां वाकई बचाई गई हैं. उन्होंने बताया की कैसे एक युवा कोविड-19 मरीज को दो घंटे के इंतजार के बीच रात में उनकी टीम ऑक्सीजन दिलाने में सफल हुई. स्वधा कहती हैं, "यह सिर्फ संसाधन मुहैया कराने के बारे में नहीं है...कभी कभी लोगों को बस यह महसूस करना जरूरी होता है कि वो अकेले नहीं हैं." मुंबई की झुग्गी बस्तियों में 32 साल के शाहनवाज शेख ने हजारों लोगों को ऑक्सीजन निशुल्क पहुंचाई है.
"ऑक्सीजन मैन" के नाम से जाने जाने वाले शाहनवाज ने पिछले साल लोगों की मदद करने के लिए अपनी एसयूवी बेच दी. उससे पहले उनके एक दोस्त की गर्भवती बहन की अस्पताल में बिस्तर मिलने का इंतजार करते करते रिक्शा में ही निधन हो गया था. शाहनवाज कहते हैं, "उनकी मौत इसलिए हुई क्योंकि उन्हें समय पर ऑक्सीजन नहीं मिली." उस समय शाहनवाज को इस बात की बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी कि एक साल बाद भी उन्हें इतने लोगों से मदद का अनुरोध आएगा.
वो बताते हैं, "पिछले साल हमें रोज करीब 40 फोन आते थे, अब हर दिन लगभग 500 फोन आ रहे हैं." उनकी टीम के 20 वालंटियर इस समय ऑक्सीजन की भारी कमी से भी जूझ रहे हैं और उसके ऊपर से मुनाफाखोर स्थिति को और भी खराब कर रहे हैं. शेख बताते हैं कि कभी कभी उनको हताश मरीजों के लिए ऑक्सीजन का इंतजाम करने के लिए दर्जनों किलोमीटर जाना पड़ता है.
वो कहते हैं, "यह आस्था की परीक्षा है, लेकिन जब मैं किसी की मदद कर पाता हूं तो मुझे रोना आ जाता है." हालांकि सॉफ्टवेयर इंजीनियर उमंग गलइया ने बताया कि अभी तक तो सिर्फ बड़े शहरों पर इस लहर की मार पड़ी थी, अब जैसे जैसे वायरस छोटे शहरों और गांवों में अपनी पैठ बना रहा है, टेक्नोलॉजी की सीमाएं खुल कर सामने आ रही हैं.
टेक्नोलॉजी की सीमाएं
ट्विट्टर पर अस्पतालों में बिस्तर, ऑक्सीजन, दवाओं जैसी चीजों की जरूरत के अनुरोध और उनकी उपलब्धता के बारे में जानकारी की बाढ़ आई हुई है, लेकिन इनमें से काफी जानकारी ऐसी है जिसकी पुष्टि नहीं की गई है. इस स्थिति को देखते हुए 25 साल के गलइया ने एक ऐप बनाया जिसकी मदद से लोग आसानी से वो ढूंढ सकें जिसकी उन्हें जरूरत है. सबसे बड़ी बात है कि इस ऐप पर सत्यापित संसाधनों की ही जानकारी है.
लेकिन वो खुद मानते हैं कि उनका ऐप बड़े शहरों की बाहर शायद ही किसी की मदद कर पाएगा. बुरी तरह से प्रभावित राज्य गुजरात के जिस जामनगर शहर से गलइया आते हैं, वो उसी का उदाहरण देते हैं. ऐसे छोटे शहरों में इंटरनेट का इस्तेमाल ही बहुत कम है. वो बताते हैं, "मैं जब ट्विट्टर पर जामनगर में संसाधनों की तलाश करता हूं, तो मुझे कुछ भी नहीं मिलता." उनका मानना है कि इस तरह की पहल के बावजूद महामारी को सरकार के बिना हराया नहीं जा सकता है.
वो कुछ सरल उपाय गिनाते हैं जिन्हें उठा कर कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी. जैसे अधिकारी अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता की वास्तविक जानकारी की एक ऑनलाइन रजिस्ट्री बना सकते थे जो अपने आप अपडेट भी होती रहती. वो पूछते हैं, "अगर हम ऐसी व्यवस्था सिनेमाघरों के लिए बना सकते हैं, तो अस्पतालों के लिए क्यों नहीं हैं?"
गलइया का यह भी मानना है कि युवाओं द्वारा की जाने वाली यह कोशिशें लंबे समय तक नहीं चल पाएंगी, क्योंकि जैसे जैसे वायरस शहर पर शहर तबाह कर रहा है संभव है कि वालंटियरों की भी ऊर्जा खत्म हो जाएगी. बीमारी और मौत का रोज सामना करने का मानसिक आघात अभी से दिखने लग गया है. मुंबई की स्वधा कहती हैं, "हमलोग बहुत मेहनत से काम कर रहे हैं लेकिन हम सबको नहीं बचा सकते हैं."
कांपती आवाज में वो बताते हैं कि कैसे उनकी टीम ने 80 साल की एक महिला की मदद करने की कोशिश की लेकिन अंत में उनकी मृत्यु हो गई. अपने तनाव को कम करने के लिए वो लोग ब्रेक लेते हैं और जूम पर साथ में फिल्में देखने का आयोजन करते हैं, लेकिन तनाव कभी पूरी तरह से जाता नहीं. स्वधा बताती हैं, "मेरे माता-पिता को इस बात की चिंता तो है, लेकिन जब खुद उनके दोस्तों को मदद की जरूरत होती है, तब वो भी मेरी ही तरफ देखते हैं."
सीके/एए (एएफपी)