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भारत और चीन में मा​नसिक स्वास्थ्य खस्ताहाल

१९ मई २०१६

विज्ञान पत्रिका दि लैंसेट में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक चीन और भारत दुनिया भर के एक तिहाई मानसिक मरीजों का घर हैं. लेकिन इनमें से महज कुछ ही लोगों को चिकित्सीय मदद मिल पाती है.

Symbolbild Angst Depression
तस्वीर: Fotolia/lassedesignen

इस रिसर्च के मुताबिक सबसे अधिक आबादी वाले इन दो देशों में मानसिक रोगियों की संख्या अच्छी आमदनी वाले सारे देशों के कुल मानसिक मरीजों से ज्यादा है. अध्ययन का कहना है कि खासकर भारत में यह बोझ आने वाले दशकों में काफी बढ़ता जाएगा. अनुमान के मुताबिक यहां मनो​रोगियों की तादाद 2025 तक एक चौथाई और बढ़ जाएगी. चीन में जन्मदर को रोकने के लिए महज एक बच्चे की सख्त नीति है. इसका स्वाभाविक असर चीन में तेजी से बढ़ती मानसिक बीमारी की रोकथाम पर भी पड़ने की उम्मीद जताई गई है.

इस अध्ययन के अनुसार दोनों ही देश इस चुनौती से निपटने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं. चीन में महज 6 प्रतिशत मानसिक मरीजों की उपचार तक पहुंच है. इस शोध के लेखकों में शामिल एमोरी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकल फिलिप्स कहते हैं, ''चीन के ग्रामीण इलाकों में मानसिक स्वास्थकर्मियों का भारी अभाव है.'' ठीक इसी तरह भारत में भी मानसिक मरीजों को स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पाना मुश्किल है.

तस्वीर: Artem Furman - Fotolia.com

दोनों ही देशों में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं के बजट का 1 प्रतिशत से भी कम खर्च किया जाता है. ज​बकि अमेरिका में यह 6 प्रतिशत है और जर्मनी और फ्रांस में यह 10 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा है.

भारत और चीन दोनों ही देशों ने हाल में मानसिक मरीजों की जरूरतों का खयाल रखने के लिए कुछ नीतियां लागू की हैं लेकिन हकीकत में उन पर कुछ भी अमल नहीं किया गया है. लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर विक्रम पटेल कहते हैं, ''ग्रामीण इलाकों में इस तरह के इलाज बिल्कुल नहीं होते.''

शोध में कहा गया है कि दोनों ही देशों में नीतियों और हकीकत के बीच के अंतर को खत्म करने में अभी दशकों लग सकते हैं. रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि दोनों ही देशों में योग या चीनी चिकित्सकीय पद्धति सरीखे पारंपरिक तरीकों को बढ़ावा देकर मानसिक स्वास्थ की चुनौतियों से निपटा जा सकता है.

आरजे/एमजे (एएफपी)

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