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भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध का मैदान

कुलदीप कुमार२२ नवम्बर २०१४

अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं की विदाई के बाद वहां की स्थिति के बारे में दुनिया भर में चिंता है. यह चिंता भी जुड़ गई है कि नाटो सैनिकों की विदाई के बाद यह देश भारत और पाकिस्तान के बीच परोक्ष युद्ध का मैदान तो नहीं बन जाएगा.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

दरअसल ये दोनों चिंताएं एक-दूसरे के साथ जुड़ी हैं क्योंकि पाकिस्तान की भूमिका ही बहुत सीमा तक यह तय करेगी कि अफगानिस्तान में किस तरह की राजनीतिक-सामरिक स्थिति उत्पन्न होती है. इस भूमिका से ही भारत की उपस्थिति और उसकी प्रकृति निर्धारित होगी. इसलिए सबसे पहला सवाल तो यही है कि पाकिस्तान का अफगानिस्तान के प्रति नजरिया क्या होगा? क्या वह भारत का सामना करने के लिए अफगानिस्तान में 'रणनीतिक गहराई' खोजने के अपने पुराने नजरिए को छोड़ देगा या पुरानी नीति पर ही चलेगा?

अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि पाकिस्तान अपनी नीति बदलने वाला है. राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति पर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सलाहकार और सर्वाधिक वरिष्ठ राजनयिकों में से एक सरताज अजीज ने स्पष्ट कर दिया है कि पाकिस्तान आतंकवादियों के बीच फर्क करने की अपनी नीति नहीं बदलेगा. जो आतंकवादी उसके खिलाफ सक्रिय नहीं हैं, उसे उनसे कोई परेशानी नहीं है.

इससे जाहिर है कि अफगानिस्तान से सटे इलाके में स्थापित हक्कानी गुट को उसका समर्थन मिलता रहेगा क्योंकि यह गुट अफगानिस्तान में भारत और अफगान सरकार के खिलाफ आतंकवादी कार्रवाइयों को अंजाम देता है. पाकिस्तान को अफगानिस्तान में भारत की किसी भी तरह की उपस्थिति मंजूर नहीं है. भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में सहयोग कर रहा है और सड़कें और बिजलीघर आदि बनाने के काम में लगा है. उसने अफगान पुलिस और सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण भी दिया है. पिछले दिसंबर से राजस्थान में भारतीय सेना अफगानिस्तान के विशेष बलों को प्रशिक्षण देने का काम कर रही है. इस सब को पाकिस्तान अपने हितों के खिलाफ समझता है और भारत पर आरोप लगाता है कि वह अफगानिस्तान में अपने वाणिज्यिक दूतावास खोलने के बहाने अपनी खुफिया एजेंसियों को वहां स्थापित कर रहा है और बलूचिस्तान में चल रहे विद्रोह के पीछे भी उसी की शह है. भारत इन आरोपों से इंकार करता है.

पाकिस्तान के इसी रुख को समझते हुए अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति अशरफ गनी ने करजई सरकार के उस अनुरोध को वापस ले लिया है जिसमें उसने भारत से हथियारों की सप्लाई करने को कहा था. माना जा रहा है कि यह निर्णय पाकिस्तान को यह जताने के लिए किया गया है कि अफगानिस्तान उसकी चिंताओं और सरोकारों को समझता है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि नई अफगान सरकार इस बात को पसंद नहीं करेगी कि पाकिस्तान उसे अस्थिर करने के लिए वहां आतंकवादी कार्रवाइयों को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन दे. अफगानिस्तान में तालिबान को फिर से काबिज कराने की नीति को पाकिस्तान ने छोड़ दिया है या नहीं, यह नाटो सेनाओं की वापसी के बाद ही पता चलेगा.

जो भी हो, भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए अफगानिस्तान में कोई भी देश पाकिस्तान जैसी महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकता. भारत की ऐसी कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं है. लेकिन अब भारत की तरह ही चीन और रूस भी यह मानने लगे हैं कि पाकिस्तान यह उम्मीद नहीं कर सकता कि अफगानिस्तान में अन्य देशों की कोई भूमिका ही न हो और वही अकेला इस देश के भविष्य का फैसला करे. यदि अफगानिस्तान में भारतीय ठिकानों पर आतंकवादी हमले होते रहेंगे, तब भी वहां भारत और पाकिस्तान के बीच परोक्ष युद्ध होने की संभावना नहीं है. वह युद्ध जम्मू-कश्मीर में कई दशकों से चल रहा है. भारत के पास ऐसे संसाधन भी नहीं हैं जिनसे वह अफगानिस्तान में पाकिस्तान के साथ परोक्ष युद्ध कर सके क्योंकि वहां तक पहुंचने के लिए पाकिस्तान से होकर ही जाना पड़ता है या फिर किसी अन्य देश होते हुए. भले ही जनरल परवेज मुशर्रफ परोक्ष युद्ध का खतरा दिखा कर पश्चिमी देशों को डराएं, लेकिन इसकी संभावना नगण्य ही लगती है.

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