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भारत की आजादी के बाद पहली बार वोट पड़ा है यहां

२० अप्रैल २०२४

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित कुछ इलाकों में आजादी के बाद लोगों ने पहली बार लोकसभा चुनाव में वोट डाला है. बीते सालों में सरकार के प्रयासों से लोगों का डर दूर हुआ है.

पहली बार वोट डालने के बाद उंगली पर लगा निशान दिखाती ग्रामीण महिला
भारत के नक्सल प्रभावित कुछ इलाकों में लोगों ने पहली बार वोट डाला हैतस्वीर: Idrees Mohammed/AFP/Getty Images

अछूते जंगल के बीच से गुजरती एक पतली सी सड़क छत्तीसगढ़ में माओवादियों के इरादों पर भारी पड़ी है. आजाद भारत के सबसे लंबे और खूनी विद्रोह को बीते कुछ सालों में बड़ा झटका लगा है. शुक्रवार को जब देश में लोकसभा चुनावके पहले दौर के लिए मतदान शुरू हुआ तो एक छोटे से गांव के लोगों ने पहली बार वोट डाला. डामर की इस नई सड़क ने उन्हें बाहरी दुनिया से जोड़ दिया है. पूरे छत्तीसगढ़ में ऐसे कई गांव हैं.

तेताम गांव के प्रमुख महादेव मकराम ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "पिछले राष्ट्रीय चुनाव में यहां कोई सरकार नहीं थी, ना पोलिंग बूथ थे, केवल विद्रोही थे जो सरकार से संपर्क के खिलाफ चेतावनी दे रहे थे." छत्तीसगड़ के सुदूर और जंगल वाले बस्तर जिले का तेताम गांव देश के "रेड कॉरिडोर" के केंद्र में है. यह सरकार से लड़ रहे वामपंथी गुरिल्लों का घर है. 

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जिले के विद्रोहियों के गढ़ में घुसने में नाकाम रही भारत की सरकार कई सालों तक तेताम के निवासियों को सरकार के नियंत्रण वाले इलाके में आ कर वोट डालने का अनुरोध करती थी. उधर माओवादी ऐसा करने वालों को धमकी देते थे. ऐसे में बहुत कम ही लोग यह खतरा उठा कर वोट डालने आते थे. जो करते थे उन्हें इसका कोई फायदा भी नहीं मिलता था.

कई जगहों पर बूथों को पहले मतदान के लिए सजाया गया था, यहां तक कि लाल कालीन भी बिछाए गएतस्वीर: Idrees Mohammed/AFP/Getty Images

मरकाम पहले पूछते थे, "क्यों वोट दें? आखिर कोई घंटों तक जंगल के रास्तों पर चल कर पहाड़ों और झरनों को पार कर के विद्रोहियों के खतरे का सामना क्यों करे? किस लिए? हमारे लिए सरकार ने आखिर किया क्या?" इस साल हालात बदले हुए हैं. तेताम उन 100 से ज्यादा गांवों में एक है जहां पहले विद्रोहियों का नियंत्रण था. 1947 में ब्रिटिश राज खत्म होने के बाद यहां पहली बार लोकसभा के लिए मतदान हुआ है.

पहली बार वोट

बीते कुछ सालों में छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्र और राज्य सरकार ने सुरक्षा बेहतर करने के दिशा में तेजी से काम किया है. जगह जगह पुलिस के कैंप बनाए जा रहे हैं. इसके साथ ही सड़क, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं को बेहतर किया जा रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने इलाके में सड़क और मोबाइल टावरों के विस्तार में अरबों रुपये खर्च किये हैं.

इलाके में लंबे समय से सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहे शुभ्रांशु चौधरी ने डीडब्ल्यू को बताया, "एक पुलिस कैंप से कम से कम पांच वर्ग किलोमीटर का दायरा विद्रोहियों के डर और नियंत्रण से मुक्त हो जाता है." पिछले हफ्ते भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने बताया कि 2019 से लेकर अब तक छत्तीसगढ़ में 250 सुरक्षा कैंप बनाए गए हैं.

निर्वाचन आयोग के अधिकारियों का दल पूरी मुस्तैदी से अपने काम में जुटा थातस्वीर: Idrees Mohammed/AFP/Getty Images

चौधरी के मुताबिक, "छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित करीब आधा इलाका सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया है, अभी और सुरक्षा कैंप बनाने की बात की जा रही है जो आने वाले वर्षों में स्थिति को और बेहतर बना सकते हैं." जनवरी से लेकर अब तक कम से कम 80 माओवादी पुलिस और सुरक्षाबल मुठभेड़ में मारे गए हैं. इनमें वो 29 भी शामिल हैं जिन्हें छत्तीसगढ़ के सुदूर इलाके में चुनाव से तीन दिन पहले सुरक्षा बलों ने मार दिया.

लोकसभा चुनाव के पहले चरण में क्या कुछ दांव पर

चौधरी ने यह भी बताया कि बदलाव की बयार छह महीने पहले विधान सभा चुनाव में भी दिखाई दी थी. उस चुनाव में भी इन इलाकों में पहले से काफी ज्यादा मतदान हुआ था. उन्होंने कहा, "एक प्रक्रिया कुछ सालों से चल रही है, उसका असर अब चुनावों में बढ़े मतदान के रूप में दिख रहा है."

छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में वरिष्ठ पत्रकार नरेश मिश्रा ने बताया, "जहां तक वोट देने की बात है तो 2016 से ही हालात बदल रहे हैं. सरकार का ही आंकड़ा है कि विधान सभा चुनाव में 124 बूथों पर पहली बार लोगों ने वोट डाला था. लोकसभा में भी इन बूथों पर पहली बार वोट डालने के लिए लोग आए हैं." हालांकि मिश्रा ने यह भी कहा कि कुछ बूथों पर बहुत उत्साह से मतदान हुआ है. छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक 83 फीसदी मतदान बस्तर जिले में हुआ है जबकि सबसे कम 43 फीसदी बीजापुर में. कुल मिला कर छत्तीसगढ़ में पहले दौर में 68.30 फीसदी मतदान हुआ है जो राष्ट्रीय औसत के 64 फीसदी से काफी ज्यादा है. ये आंकड़े चुनाव आयोग के हैं.  

लाल गलियारा

लाल गलियारा या रेड कॉरिडोर के रूप में कुख्यात रहे माओवादी आंदोलन ने 1960 के दशक से ही सिर उठाना शुरू कर दिया था. गरीब और आदिवासी समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष के नाम पर शुरू हुए आंदोलन ने बहुत जल्द हिंसक रूप ले लिया जिसके नतीजे में अब तक 10,000 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है. इससे पहले की सरकारों ने जब भी इन गुरिल्लों के खिलाफ अभियान तेज किया उन्हें नुकसान ही उठाना पड़ा. सरकार के प्रति इन इलाकों में स्थानीय लोगों के मन में भी बैर बढ़ता रहा.

कई बूथों पर लोगों में वोटिंग के लिए बड़ी संख्या में भीड़ उमड़ीतस्वीर: Idrees Mohammed/AFP/Getty Images

नक्सलियों ने अपहरण, जबरन भर्ती, हफ्ता वसूली और मौत की सजा देने जैसे कामों से अपने प्रति लोगों के मन में डर पैदा किया, खासतौर से उन लोगों में जो उनके नियंत्रण वाले इलाकों में थे. यह संघर्ष जब अपने चरम पर था तो एक बड़े इलाके में नक्सलियों ने सरकार को एक तरह से बिल्कुल नकार दिया था. नक्सली इन इलाकों में समांतर क्लिनिक, स्कूल और अपराध न्याय तंत्र भी चला रहे थे.

गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर एएफपी से कहा, "पहले विद्रोही गांव वालों से पूछते थे कि क्या कोई सरकार दिखी है. हम तुम्हारे डॉक्टर, टीचर और जज हैं. तब वे सही थे लेकिन अब नहीं. उन्होंने सरकार को खारिज किया लेकिन आखिरकार अब सरकार आ गई." पिछले साल के एक आधिकारिक रिपोर्ट के मुताबिक सरकार के अभियानों के असर में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 2010 के मुकाबले घट कर 45 हो गई है.

नरेश मिश्रा बताते हैं, "स्थिति में बदलाव कई स्तरों पर दिख रहा है.पहले जिस तरह समांतर स्कूल, क्लिनिक और न्याय तंत्र चल रहा था उसमें काफी कमी आई है. हालांकि माओवादियों के नियंत्रण वाले इलाके बदलते रहते हैं, लेकिन फिर बहुत से इलाके उनके नियंत्रण से बाहर गए हैं. वोट देने पर किसी की उंगली काटने या उसकी जान लेने जैसी घटना तो नहीं होती थी लेकिन उनका डर जरूर रहता था. अब बहुत से इलाकों में वह डर नहीं है."

कई इलाकों में पहली बार वोट डालने के लिए लोगों का उत्साह चरम पर थातस्वीर: Idrees Mohammed/AFP/Getty Images

जमीनी स्थिति में बदलाव

एक सुरक्षा कैंप तेताम गांव के पास भी 2022 में बनाया गया था. इसके साथ ही पहली बार एक सड़क भी गांव तक पहुंची. गांव के लोगों की जिंदगी अब भी पहले की तरह आस पास के जंगलों से मिलने वाली चीजों पर निर्भर है. हालांकि बदलाव की शुरुआत हो गई है.

पिछले 18 महीनों में तेताम के लोगों के पास मोबाइल फोन के कनेक्शन, नेशनल ग्रिड से बिजली, स्वास्थ्य केंद्र और सरकारी राशन की दुकान की सुविधा मिल गई. यहां रहने वाले 1,050 गांववासी पहली बार अपने समुदाय से बाहर के लोगों से जुड़ रहे हैं. बहुत से लोग यहां से थोड़ी दूर पर मौजूद छोटे से शहर दंतेवाड़ा पहली बार गए. यहां की आबादी करीब 20,000 है. तेताम निवासी 27 साल के दीपक मारकाम ने कहा, "शहर सचमुच सुंदर था. वहां बहुत कुछ देखने को था. मुझे उम्मीद है कि एक दिन मेरा गांव भी ऐसा होगा."

हालांकि इस बदलाव के साथ एक समस्या विकास में संतुलन बनाने की भी उभरी है. नरेश मिश्रा बताते हैं कि बड़ी संख्या में कंपनियां इन इलाकों का रुख कर रही हैं और खदान के लिए लाइसेंस हासिल करने की फिराक में हैं. जंगल शहर बन गए तो दूसरी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी जो और ज्यादा बड़ी चुनौती ले कर आएंगी.  

रिपोर्टः निखिल रंजन (एएफपी)

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